स्नेहिल प्रभात वंदन

 

डा. रश्मि दुबे
जिन दरख़्तों की जड़ें गहरी रहीं हैं
आंधियों के बाद भी ठहरी रहीं हैं
होती है शहादत देश के नाम पर
सरकारें हमेशा ही बहरी रहीं हैं
मूल में बैठा नाग जो आतंक का
क्या करें जो मार बैठा इस डंक का
हवायें भी वहां की जहरी रहीं हैं
सरकारें हमेशा ही बहरी रहीं हैं
नाम जन्नत दिया इश्क के दीवानों ने
दोजख़ बनाया जिहादी मेहमानों ने
अपनों के लिये ऊंची दहरी रही है
सरकारें हमेशा ही बहरी रही है
वतन पर कुर्बांन होते हैं लोग रोज़
रोज़ गिरती लाशें ,होती ज़मीदोज़
खून में वतनपरस्ती लहरी रही है
सरकारें हमेशा ही बहरी रहीं हैं

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