स्नेहिल प्रभात वंदन

  डा. रश्मि दुबे जिन दरख़्तों की जड़ें गहरी रहीं हैं आंधियों के बाद भी ठहरी रहीं हैं होती है शहादत देश के नाम पर सरकारें हमेशा ही बहरी रहीं हैं मूल में बैठा नाग जो आतंक का क्या करें जो मार बैठा इस डंक का हवायें भी वहां की जहरी रहीं हैं सरकारें हमेशा ही बहरी रहीं हैं नाम जन्नत दिया इश्क के दीवानों ने दोजख़ बनाया जिहादी मेहमानों ने अपनों के लिये ऊंची दहरी रही है सरकारें हमेशा ही बहरी रही है वतन पर कुर्बांन होते हैं लोग…

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मेरे अल्फ़ाज़..

कीर्ति सिंह गौड़ वो गलियाँ छूट गईं जहाँ बचपन की चौखट पर जवानी की बाट जोहते थे हम सावन की बूँदों में भीग कर गीली सौंधी मिट्टी में सपनों के बीज बोते थे हम सालों साल उस मिट्टी को नहीं खोदा की उसमें सपने पल रहे होंगे कि अचानक एक दिन वो गलियाँ छूट गईं और वो बचपन की चौखट रूठ गई काश एक बार उस चौखट पर माथा लगाया होता वापस नहीं जा पाऊँगी वहाँ इस ग़म ने नहीं सताया होता और जब जाना हुआ उस ओर तो गलियाँ…

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