मेरे अल्फ़ाज़..

कीर्ति सिंह गौड़

वो गलियाँ छूट गईं
जहाँ बचपन की चौखट पर
जवानी की बाट जोहते थे हम
सावन की बूँदों में भीग कर
गीली सौंधी मिट्टी में
सपनों के बीज बोते थे हम
सालों साल उस मिट्टी को नहीं खोदा
की उसमें सपने पल रहे होंगे
कि अचानक एक दिन वो
गलियाँ छूट गईं
और वो बचपन की
चौखट रूठ गई
काश एक बार उस चौखट
पर माथा लगाया होता
वापस नहीं जा पाऊँगी वहाँ
इस ग़म ने नहीं सताया होता
और जब जाना हुआ उस ओर
तो गलियाँ सड़क बन चुकी थीं
और जहाँ सपने बोए थे
वहाँ इमारतें तन चुकी थीं
अजीब कश्मकश तब भी थी
अजीब कश्मकश अब भी है
एक कसक तब भी थी
एक कसक अब भी है

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