पश्चिम बंगाल की इस सीट पर भाई-बहन में छिड़ी चुनावी जंग

प्रभाकर एम.
मालदा जिले की दो संसदीय सीटों को पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता अब्दुल गनी ख़ान चौधरी का गढ़ माना जाता रहा है. परिसीमन की वजह से वर्ष 2009 में मालदा सीट उत्तर और दक्षिण दो हिस्सों में बंट गई थी.
गनी ख़ान की वजह से ही यह दोनों सीटें कांग्रेस का अजेय दुर्ग बनी थीं. लेकिन दो बार से मालदा उत्तर सीट से जीती मौसम नूर ने अबकी तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया है. ऐसे में सवाल उठने लगा है कि क्या अबकी गनी ख़ान की विरासत बचेगी या फिर तृणमूल कांग्रेस कांग्रेस के इस किले में सेंध लगाएगी?
कांग्रेस ने यहां मालदा दक्षिण सीट के सांसद अबु हाशेम ख़ान के बेटे और विधायक ईशा खान चौधरी को मैदान में उतारा है. यानी यहां गनी ख़ान की विरासत पर ममेरे भाई-बहन में जंग है. इस सीट पर तीसरे चरण में मतदान होना है. इस पारिवारिक लड़ाई में अबकी बाकी तमाम मुद्दे गौण हो गए हैं.
बांग्लादेश की सीमा पर गंगा नदी के किनारे बसा यह जिला अस्सी के दशक से ही कांग्रेस का अजेय गढ़ रहा है. इन चार दशकों के दौरान राज्य में लेफ़्ट फ़्रंट और तृणमूल कांग्रेस की भारी लहर में भी लोकसभा और विधानसभा चुनावों के दौरान उसके इस किले की दीवारें जस की तस रही हैं.
एबीए गनी ख़ान चौधरी मालदा सीट से वर्ष 1980 से 2004 तक लगातार लोकसभा के लिए चुने गए थे. उन्होंने केंद्र में मंत्री रहते मालदा शहर और रेलवे स्टेशन की तस्वीर बदल दी थी. रेल मंत्री रहते उन्होंने इलाके के लिए दर्जनों नई ट्रेनें तो चलाई ही थीं, शहर के सैकड़ों युवकों को रोजगार भी दिया था.
यही वजह है कि इस शहर में ज्यादातर लोग रेलवे में हैं. मालदा में गनी खान विकास का पर्याय बन गए थे और उनकी यह छवि अब भी बनी हुई है.
यही वजह है कि उस समय से लेकर अब तक मालदा से लड़ने वाले तमाम कांग्रेसी उम्मीदवार गनी ख़ान के नाम की कसमें खाते रहे हैं. उनके बाद उनके भाई अबु हाशेम खान चौधरी और भांजी मौसम नूर मालदा जिले की दोनों सीटों से चुनी जाती रही हैं. लेकिन बीती जनवरी में नूर के तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने की वजह से अब इस कांग्रेसी किले में सेंध का अंदेशा है.
मौसम की दलील है कि इलाके में बीजेपी के बढ़ते असर को रोकने के लिए ही उन्होंने पार्टी बदलने का फ़ैसला किया.
वो कहती हैं, “अगर आप आम लोगों के लिए काम करना चाहते हैं तो ममता बनर्जी के नेतृत्व में ही ऐसा संभव है. ममता दीदी ही बंगाल को बीजेपी के हाथों से बचाने में सक्षम हैं. इसी वजह से मैंने पार्टी बदलने का फैसला किया.”
वहीं, नूर के मुकाबले मैदान में उतरे उनके ममेरे भाई और सुजापुर सीट से विधायक ईशा ख़ान चौधरी अपनी बहन के फैसले की आलोचना करते हुए उन पर पारिवारिक मूल्यों को तिलांजलि देने का आरोप लगाते हैं.
ईशा मालदा दक्षिण सीट से निवर्तमान कांग्रेस सांसद और उम्मीदवार अबु हाशेम के बेटे हैं.
चौधरी कहते हैं, “मौजूदा मुश्किल दौर में एबीए गनी ख़ान चौधरी के आदर्शों की रक्षा करना उनका कर्तव्य था. लेकिन ऐसा करने की बजाय उन्होंने ममता बनर्जी का हाथ थाम लिया.”
चौधरी तमाम विपक्षी दलों को साथ लाने की ममता की मंशा पर भी सवाल उठाते हैं.
वो कहते हैं, “एक ओर तो वे बीजेपी को हराने के लिए महागठजोड़ बनाने की अपील कर रही हैं और दूसरी ओर कांग्रेस को कमज़ोर करने का प्रयास कर रही हैं जो महागठजोड़ का अहम हिस्सा है.”
वो नूर के तृणमूल में शामिल होने को राजनीतिक साजिश का हिस्सा बताते हैं.
गनी ख़ान ईशा के चाचा थे और मौसम नूर के मामा. 80 के दशक से अब तक कांग्रेस की ओर से ज़िले की दोनों सीटों पर गनी ख़ान परिवार का ही कोई सदस्य चुनाव लड़ता और जीतता रहा है. लेकिन अबकी मालदा उत्तर सीट पर परिवार में ही कड़ी लड़ाई शुरू हो गई है.
वैसे ईशा कहते हैं, “हम राजनीतिक और पारिवारिक सम्बन्धों में घालमेल नहीं करते. ये दोनों अलग चीजें हैं. लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान वो मौसम के पाला बदलने को कांग्रेस और गनी ख़ान की विरासत के साथ विश्वासघात करार देते हैं.”
उधर, मौसम कहती हैं, “मामा (गनी ख़ान) के साथ लंबे अरसे तक काम करने वाले तमाम नेता अब तृणमूल कांग्रेस का हिस्सा हैं. मैंने गनी खान के सपने से प्रेरित होकर ही राजनीति में आने फ़ैसला किया था. काम की वजह से ही जिले के लोग अब भी उनका बेहद सम्मान करते हैं.”

लड़ाई पारिवारिक होने की वजह से दोनों उम्मीदवार एक-दूसरे पर निजी हमले करने से बच रहे हैं. इस सीट पर बीजेपी ने खगेन मुर्मू को अपना उम्मीदवार बनाया है. मुर्मू ने हाल में ही अपनी पुरानी पार्टी सीपीएम से नाता तोड़ कर बीजेपी का दामन थामा था. सीपीएम ने इस सीट पर विश्नाथ घोष को उम्मीदवार बनाया है.

जिले में बीते चार दशकों से हर चुनाव में गनी ख़ान चौधरी और उनकी विरासत ही प्रमुख मुद्दा रही है. इस बार भी यहां गनी ख़ान की विरासत पर जंग ही उम्मीदवारों की हार-जीत तय करेगी.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि मौसम नूर अपने इलाके में हाल के वर्षों में बीजेपी की बढ़त से परेशान होकर तृणमूल में शामिल होने का फैसला किया.

मौसम नूर के पाला बदलने से अपने इस अजेय गढ़ में कांग्रेस की जीत की संभावना पर कितना असर पड़ेगा?

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सोमेन मित्र कहते हैं, “इससे कांग्रेस की जीत की संभावना पर कोई असर नहीं पड़ेगा. यहां कांग्रेस ही जीतेगी.”

वहीं, राजनीतिक विश्लेषक सब्यसाची दत्त कहते हैं, “अगर पारिवारिक लड़ाई में इस संसदीय इलाके में अल्पसंख्यक वोटों का विभाजन होता है तो इसका फायदा बीजेपी को मिल सकता है.”

वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक मालदा जिले में 51 फ़ीसदी वोटर अल्पसंख्यक तबके के हैं.

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