लोकसभा चुनाव 2019 में करारी हार के बाद नई दिल्ली में कांग्रेस कार्यसमिति (CWC) की बैठक हुई, जिसमें हार के कारणों की समीक्षा की गई. इसमें राहुल गांधी को पार्टी में आवश्यक सुधार करने के लिए जरूरी कदम उठाने की सलाह दी गई. जाहिर है अब कांग्रेस में मंथन का दौर चलेगा और कुछ बदलाव भी जरूर किए जाएंगे. लेकिन, यहां सवाल बिहार को लेकर है. क्या बिहार में भी कांग्रेस को अपने दम पर फिर खड़ा करने की कोशिश की जाएगी?
दरअसल, तमाम तरह के समझौते करने के बाद भी बिहार में कांग्रेस आगे नहीं आ पा रही है. इस बार कांग्रेस बमुश्किल किशनगंज की ही सीट जीत पाई है. जाहिर है इसको लेकर पार्टी के भीतर मायूसी है.
इस करारी शिकस्त पर शुक्रवार को पार्टी के वरिष्ठ नेता सदानंद सिंह ने कहा था कि कांग्रेस बैसाखी के बदौलत खड़ी नहीं हो सकती, बल्कि अकेले रहकर ही मजबूत हो सकती है. उन्होंने कहा कि पार्टी को बैसाखी से उबरना होगा. कांग्रेस के अंदर भी सर्जरी की जरूरत है.
जाहिर है उनकी बातों का गहरा अर्थ है. दरअसल, इस चुनाव में भी कांग्रेस के कई नेता बिहार में अपने सुनहरे अतीत को याद करते हुए एक बार फिर से ‘फ्रंट फुट’ पर खेलने की बात करते रहे, लेकिन अंत में पार्टी बैकफुट पर ही रही और 40 सीटों में से महज 9 सीटों पर ही चुनाव लड़ी. सवाल यह है कि बिहार की राजनीति में कांग्रेस ‘बैक फुट’ पर कैसे चली गई?
दरअसल, बिहार में 1990 का दशक पिछड़ी जातियों के उभार की अवधि थी. इसी दौरान लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे नेताओं की राजनीतिक कद को नया आकार मिला. इस बदलाव के दौर से पहले तक बिहार की सत्ता में कांग्रेस का ही वर्चस्व था, लेकिन बदलते वक्त को शायद पहचानने में कांग्रेस चूक गई.
एक तरफ समाजवादी पृष्ठभूमि वाले नेता मजबूत होते चले गए और कांग्रेस उस चुनौती से सामना नहीं कर पाई. इसी का नतीजा रहा कि कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिरता रहा.
गौरतलब है कि स्वतंत्रता के पश्चात पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने संयुक्त बिहार (बिहार-झारखंड तब एक थे) की 324 विधानसभा सीटों में से 239 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी.
बिहार विभाजन के बाद वर्ष 2010 में हुए चुनावों में कांग्रेस ने अपना सबसे खराब प्रदर्शन दिया और 243 विधानसभा सीटों में से मात्र 4 सीटें हासिल कीं. साल 2014 के उपचुनावों में कांग्रेस ने एक और सीट जीती.