क्या भारतीय जनमानस को एक बार फिर चौंका पाएंगी, सोनिया  i

पंकज कुमार श्रीवास्तव
वैनेतो,इटली इलाके में विसेन्ज़ा से 20किमी दूर एक छोटे से गाँव लूसियाना में पिता स्टेफ़िनो मायनो और माता पाओलो मायनों के घर 9दिसंबर,1946 को एक कन्या ने जन्म लिया।यह लड़की 1964 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में बेल शैक्षणिक निधि के भाषा विद्यालय में अंग्रेज़ी भाषा का अध्ययन करने गयीं।
1968में इस लड़की-अन्टोनिया एड्विज अल्बीना मायनो-ने पूरे विश्व और खासकर भारतीय जनमानस को इस खबर से चौंका दिया,जब उसने भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बड़े पुत्र से राजीव गांधी से विवाह किया।इंदिराजी भारत की प्रधानमंत्री थी,लेकिन उनके दिल में भारतीय मां का दिल भी धड़कता था,जिसे अपने बेटे की शादी के तरह-तरह के अरमान होते हैं।सो, उन्होंने अपने विवाहित बेटा-बहू की भारतीय रीति-रिवाज से विवाह करने का फैसला किया।प्रसिद्ध कवि हरिवंशराय बच्चन और तेजी बच्चन ने कन्यादान की रस्म अदा की। अन्टोनिया एड्विज अल्बीना मायनो का नया नामकरण हुआ-सोनिया गांधी।हिन्दी के हास्यरसावतार काका हाथरसी हर कवि सम्मेलन में गीत गाते-इंदिराजी का लल्ला,इटली की दुल्हन लाया रे…।
भारतीय जनमानस इस बात से भी चौंकता है कि राजीव गाँधी के साथ विवाह होने के 15 साल बाद तक सोनिया ने भारतीय नागरिकता स्वीकार नहीं की थी, उन्होंने 1983 में भारतीय नागरिकता स्वीकार की।आम भारतीय पत्नी की तरह उनकी दुनिया पायलट पति राजीव गांधी और दो संतान-एक पुत्र राहुल गाँधी और एक पुत्री प्रियंका वाड्रा तक सिमटी हुई थी।
31अक्तूबर,1984को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद महज 7वर्ष के भीतर पति राजीव गांधी की हत्या ने सोनिया गांधी को भीतर तक हिला दिया था।वहीं दूसरी ओर, राजनैतिक सच्चाई यह थी कि इंदिराजी ने दो बार कांग्रेस का विभाजन किया था।पहली बार 1969में जब कांग्रेस नेतृत्व पर सिंडिकेट ने कब्जा कर रखा था और दूसरी बार दस साल के भीतर 1978में जब वे खुद के प्रति समर्पित लोगों की मंडली को लेकर अलग हुई थी।इंदिराजी के नेतृत्व वाले कांग्रेस के धड़े का नामकरण तक इंदिरा कांग्रेस कहा गया।इंदिरा कांग्रेस के तमाम कांग्रेसी अपनी राजनैतिक गतिशीलता को चुके थे,वह नेहरू-गांधी परिवार पर आश्रित थे। राजीव गांधी की हत्या के पश्चात कांग्रेस के वरिष्ट नेताओं ने सोनिया से पूछे बिना उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाये जाने की घोषणा कर दी थी।परंतु,सोनिया ने इसे स्वीकार नहीं किया और राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति अपनी घृणा और अविश्वास को इन शब्दों में व्यक्त किया-“मैं अपने बच्चों को भीख मांगते देख लूँगी,परंतु मैं राजनीति में कदम नहीं रखूँगी।”
काफ़ी समय तक राजनीति में कदम न रख कर उन्होंने अपने बेटे और बेटी का पालन-पोषण करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया।पीवी नरसिंहाराव के प्रधानमंत्रित्व काल-1991-96-के पश्चात् कांग्रेस 1996 का आम चुनाव हार गई,जिससे कांग्रेस के नेताओं ने फिर से नेहरु-गांधी परिवार के नेतृत्व की आवश्यकता महसूस की।उनके दबाव में सोनिया गांधी ने 1997 में कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन में प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की और उसके 62 दिनों के अंदर 1998 में वो कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं।राजनीति उनकी प्राथमिकता रही हो या न रही हो, लेकिन एक बार जब उन्होंने कदम बढ़ाए,तो किसी दुविधा में नहीं रहीं। राजनीति में उनके कदम रखने के बाद किसी ने उनका विदेशी मूल का मुद्दा उठाया,तो किसी ने उनकी कमज़ोर हिन्दी को मुद्दा बनाया।परंतु,भाजपा के नेताओं ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर आक्षेप लगाए।सुषमा स्वराज और उमा भारती ने घोषणा की कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो वे अपना सिर मुँडवा लेंगीं और भूमि पर ही सोयेंगीं।शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेसियों का एक धड़ा सोनिया के नेतृत्व को नकारते हुए अलग हो गया।उन पर परिवारवाद का आरोप तो आज भी मोदीजी लगाते ही रहते हैं,लेकिन कांग्रेसियों ने उनका साथ नहीं छोड़ा और इन मुद्दों को नकारते रहे।
सोनिया गांधी अक्टूबर 1999में बेल्लारी,कर्नाटक से और साथ ही अपने दिवंगत पति के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी,उत्तर प्रदेश से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ीं और विजयी हुईं।1999में 13वीं लोक सभा में वे विपक्ष की नेता चुनी गईं।
2004के चुनाव के दौरान आम राय थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सार्वजनिक योगदान के सामने सोनिया गांधी का सार्वजनिक योगदान कुछ भी नहीं दिखता था। विभिन्न सर्वेक्षणों में लोकप्रियता के पैमाने पर अटलजी सोनिया से 10%आगे दिखते थे।हर कोई मान रहा था कि सोनिया कोई चुनौती नहीं पेश कर पाएंगीक्षऔर अटलजी ही प्रधान मंत्री बनेंगे।पर,सोनिया ने देश भर में प्रचार अभियान का नेतृत्व किया और सब को चौंका देने वाले नतीजों में यूपीए को अनपेक्षित 200 से ज़्यादा सीटें मिली।सोनिया गांधी स्वयं रायबरेली,उत्तर प्रदेश से सांसद चुनी गईं।वामपंथी दलों ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर रखने के लिये कांग्रेस और सहयोगी दलों की सरकार का समर्थन करने का फ़ैसला किया जिससे कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों को स्पष्ट बहुमत का आंकड़ा प्राप्त हुआ।16मई,2004 को सोनिया गांधी 16-दलीय गठबंधन की नेता चुनी गईं जो वामपंथी दलों के सहयोग से सरकार बनाता, जिसकी प्रधानमंत्री सोनिया गांधी बनती।सबको अपेक्षा थी कि सोनिया गांधी ही प्रधानमंत्री बनेंगी और सबने उनका समर्थन किया। परंतु,18मई,2004 को उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह के नाम को आगे कर सबको चौंका दिया।कांग्रेसियों ने सोनिया के इस फैसले का खूब विरोध किया और उनसे इस फ़ैसले को बदलने का अनुरोध किया पर उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री बनना उनका लक्ष्य कभी नहीं था। सब नेताओं ने मनमोहन सिंह का समर्थन किया और वे प्रधानमंत्री बने पर सोनिया दल और यूपीए गठबंधन का अध्यक्ष बनीं।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का अध्यक्ष होने के कारण सोनिया गांधी पर लाभ के पद पर होने के साथ लोकसभा का सदस्य होने का आक्षेप लगा जिसके फलस्वरूप 23मार्च,2006को उन्होंने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष पद और लोकसभा की सदस्यता- दोनों से त्यागपत्र दे दिया।मई,2006 में वे रायबरेली, उत्तरप्रदेश से पुन: सांसद चुनी गईं।2009के लोकसभा चुनाव में उन्होंने फिर यूपीए के लिए देश की जनता से वोट मांगा।एक बार,फिर यूपीए ने जीत हासिल की और सोनिया यूपीए की अध्यक्ष चुनी गईं।
यूपीए-2का कार्यकाल काफी उथल-पुथल भरा रहा।एक तरफ अण्णा हजारे के नेतृत्व में लोकपाल कानून की मांग को लेकर जनांदोलन चला तो दूसरी तरफ,बाबा रामदेव की अगुवाई में कालाधन वापसी की मांग के लिए आंदोलन चला।2013में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश किया-एक तरफ, उन्होंने डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के सामने सवालों के पहाड़ खड़ा किए तो आमजन के सामने झूठे वादों और जुमलों की झड़ी लगा दी।अंबानी-अडाणी जैसे कारपोरेट जगत ने मोदी की राजनीति में पूंजी निवेश किया।डॉ मनमोहन सिंह जैसे काबिल प्रधानमंत्री की त्रासदी यह थी कि डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री जरूर थे, लेकिन वह जननेता नहीं थे।नतीजा,2014के आमचुनावमें कांग्रेस धूल-धूसरित हो गई और लोकसभा में उसके सांसदों की संख्या 44पर सिमट कर रह गई। अस्वस्थता सोनिया गांधी को सार्वजनिक जीवन से दूर रहने को बाध्य कर रही थी,सो 2017में उन्होंने पार्टी अध्यक्ष छोड़ दिया।परवर्ती कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस 2019के आमचुनाव में अपेक्षित सफलता अर्जित नहीं कर पाई।हारकर,आम कांग्रेस जनों के अनुरोध पर 10अगस्त,2019 को सोनियाने पुनः कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष पद स्वीकार किया।
2016के नोटबंदी का फैसला,2017का जीएसटी का फैसला,गिरती अर्थव्यवस्था और कोरोना काल का कुप्रबंध ने मोदीजी की लोकप्रियता का ग्राफ काफी नीचे गिरा दिया है-अगस्त,2020 में 66% से घटकर अगस्त,2021में महज 24%रह गया है।2020में दिल्ली और बिहार विधानसभाओं के चुनाव हों या 2021में हुए 5विधानसभाओं के चुनाव-मोदी की चुनावी लोकप्रियता ढलान पर दिख रही है।प.बंगाल में ममता बनर्जी ने जिस प्रकार मोदी-शाह को शिकस्त दी है,उससे ममता बनर्जी काफी उत्साहित हैं और उनमें राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं कुलबुला रही हैं।
ममता बनर्जी और उनके चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सोच रही है कि नेतृत्व के संकट का सामना कर रही कांग्रेस यूपीए का नेतृत्व ममता बनर्जी को सौंप देंगी। लेकिन, सोनिया गांधी जानती हैं कि 52लोकसभा सांसदों के अतिरिक्त 206लोकसभा क्षेत्र ऐसी हैं,जहां भाजपा के सीधी टक्कर में कांग्रेस ही है।2022में जिन 5 विधानसभाओं के चुनाव प्रस्तावित हैं, उनमें से पंजाब और उत्तराखंड में कांग्रेस भाजपा को सत्ता में आने नहीं देगी। गोवा में भी भाजपा सत्ता गंवाएगी और ममता बनर्जी कितना भी हाथ-पांव मार लें, कांग्रेस की सहयोगी भले बन जाएं, विकल्प नहीं बन पाएंगी।ले-देकर एक मणिपुर है,जहां ममता प्रभावी हो सकती हैं। उत्तरप्रदेश सबसे बड़ा प्रदेश है और वहां भी अखिलेश के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी कांग्रेस की कीमत पर ममता बनर्जी को तरजीह नहीं दे सकती। उत्तरप्रदेश में कांग्रेस क्या परिणाम दे पाएगी,यह मार्च में स्पष्ट होगा।2022के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव में भाजपा सत्ता में लौटने से रही।चिड़चिड़ा थी हुई पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता शरद पवार से मुलाक़ात के बाद पत्रकारों से कहा, “यूपीए क्या है? कोई यूपीए नहीं है.”
दरअसल बुधवार को पत्रकारों ने ममता बनर्जी से पूछा था कि क्या शरद पवार को यूपीए का नेतृत्व करना चाहिए? इसके जवाब में ममता बनर्जी ने यूपीए पर ही सवाल उठा दिए और नई राजनीतिक बहस को जन्म दे दिया.
ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस यूपीए का हिस्सा रही है लेकिन साल 2012 में वो इससे अलग हो गईं थी.कांग्रेस ने यूपीए पर ममता बनर्जी की टिप्पणी का ज़बाब देने से यह कहकर इनकार कर दिया कि जब तृणमूल कांग्रेस यूपीए में है ही नहीं,तो यूपीए के बारे में उनकी टिप्पणी गैर-महत्वपूर्ण है।
कुलमिलाकर,यूपीए का नेतृत्व हथियाने की ममता और प्रशांत किशोर की कोशिश को सोनिया गांधी ने विफल कर दिया है और 2024के आगामी आमचुनाव के लिए यूपीए के गतिशील नेतृत्व के लिए खुद को तैयार कर रहीं हैं।

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