भारत-रूस के रिश्तों में मजबूती

क्रांति कुमार पाठक
हाल ही में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा से दोनों देशों के पुराने रिश्तों को और मजबूती मिली है। दरअसल, भारत-रूस 21 वीं सालाना शिखर बैठक के लिए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का दिल्ली आना जाहिर करता है कि मास्को की निगाह में भारत की क्या अहमियत है। रूसी राष्ट्रपति ने भारत को यूं ही एक परखा हुआ मित्र नहीं कहा है, इस मित्रता ने पांच दशकों का अडिग सफर तय किया है। 9 अगस्त 1971 को तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी व सोवियत संघ नेता लियोनिड ब्रेझनेव ने इसकी नींव रखी थी और यह साल-दर-साल पुख्ता होती गई है। यहां तक कि सोवियत संघ के विघटन के बाद भी जब दुनिया एकध्रुवीय हुई, उस दौर में भी न‌ई दिल्ली और मास्को ने आपसी रिश्तों की चमक फीकी नहीं पड़ने दी और दोनों देशों की उत्तरोत्तर सरकारों ने अपने तमाम व्यावहारिक तकाजों को पूरा करते हुए और देशहित में न‌ए रिश्तों को बुनते हुए एक-दूसरे की भावनाओं का हमेशा ध्यान रखा।
व्लादिमीर पुतिन के साथ वहां के रक्षामंत्री और विदेशमंत्री भी आए और अपने भारतीय समकक्षियों  से मुलाकात कर रक्षा, व्यापार, ऊर्जा आदि क्षेत्रों में सहयोग को लेकर क‌ई अहम समझौते पर हस्ताक्षर किए। हालांकि भारत पहले ही रूस से एस-400 मिसाइल प्रणाली खरीद और एके-203 रायफल बनाने के लिए लाइसेंस प्राप्त कर चका है, पर पुतिन की इस यात्रा में आगे के वर्षों को ध्यान में रखते हुए भी रणनीति तय की गई, जो कि बेहद ही महत्वपूर्ण हैं। वैसे रूस के साथ भारत के ये रक्षा सौदे न‌ए नहीं हैं, बहुत पहले से वह उससे रक्षा उपकरण  खरीदता आ रहा है। हालांकि बीच के कुछ वर्षों में अमेरिका, फ्रांस और इजरायल से भी कुछ रक्षा सौदे होने की वजह से रूस से उपकरणों की खरीद कम हो गई थी, पर अब मिसाइल प्रणाली खरीदने और अत्याधुनिक रायफल भारत में ही बनाने का लाइसेंस मिल जाने के बाद फिर से दोनों देशों के बीच रक्षा सौदों के मामले में बेहतर रिश्ते बन गए हैं। हालांकि अमेरिका शुरू से दबाव बनाता आ रहा था कि भारत मिसाइल प्रणाली रूस से न खरीदे, मगर भारत ने उसका दबाव नहीं माना। यह मिसाइल प्रणाली जल्दी भारत पहुंचने वाली है।
रक्षा सौदे के अलावा ऊर्जा और व्यापार के क्षेत्र में भारत की जरूरतों के लिहाज से भी रूस के साथ प्रगाढ़ हो रहे रिश्ते बहुत महत्वपूर्ण हैं। चीन और अमेरिका पर भारत की निर्भरता बढ़ना भरोसेमंद नहीं हो सकती। रूस और भारत बहुत पुराने मित्र हैं और हर गाढ़े वक्त में रूस भारत के काम आया है, जैसा कि पुतिन के साथ मुलाकात के वक्त भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उल्लेख भी किया कि किस तरह कोविड के समय रूस ने भारत की मदद की।
इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले दशक में अमेरिका, खासकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल और उनकी नीतियों के कारण वैश्विक मंचों पर वाशिंगटन की आभा मलिन पड़ी, तो वहीं चीन का प्रभाव बढ़ा। इसके साथ ही क‌ई विकासशील देशों की चिंताएं भी गहराने लगीं, क्योंकि बीजिंग की विस्तारवादी भौगोलिक-आर्थिक नीतियों से ये मुल्क अपने लिए खतरा महसूस करने लगे। गलवान घाटी में हमने चीनी दुस्साहस का बदतर रूप देखा ही, संयुक्त राष्ट्र में इस्लामाबाद प्रायोजित प्रस्तावों को बार-बार उसे आगे बढ़ाते हुए भी देखा और इन सभी मौकों पर रूस ने खुलकर भारत का साथ दिया। गौरतलब है कि अमेरिका के विरुद्ध रूस और चीन के संबंधों में अपेक्षाकृत नजदीकी बढ़ने के बावजूद मास्को हमारे हक में मजबूती से खड़ा रहा है।रूस भी इस बात को भली-भांति समझता है कि भारत भी मित्रता निभाने में उससे पीछे नहीं है।
मात्र छह घंटे की रूसी राष्ट्रपति की यात्रा के दौरान कुल 28 समझौतों पर हुए हस्ताक्षर भी दोनों देशों के मजबूत संबंधों की ही कहानी बयां कर रहे हैं। खासकर रक्षा क्षेत्र में दोनों देशों के रिश्ते की मजबूती का अंदाजा इस बात से चल जाता है कि एस-400 मिसाइल प्रणाली के सौदे को लेकर अमेरिका, चीन, तुर्की सहित कई देशों की नाखुशी को दोनों देशों ने महत्व नहीं दिया। इसी तरह, तालिबान के मामलों में रूस शुरुआत में भ्रम का शिकार रहा और ऐसा लगा कि वह तालिबान सरकार को मान्यता देने को तैयार बैठा है, लेकिन जब भारत ने अपनी चिंताएं उसके सामने रखीं, तो मास्को ने फौरन अपनी अफगान नीति पर गौर किया। आज दोनों देशों की काबुल से एक ही मांग है कि तालिबान हुकूमत पहले समावेशी सरकार गठित करे और अपनी धरती से पड़ोसी देशों में आतंकवाद के निर्यात को रोकने की प्रतिबद्धता दिखाएं। कश्मीर में पाकिस्तानी कुचक्र को तोड़ने के लिए अफगानिस्तान पर रूस का दबाव असरदार साबित हो सकता है। चीन और पाकिस्तान की कुटिल दोस्ती को देखते हुए अफगानिस्तान मामलों में हमें मास्को के साथ की दरकार रहेगी। बल्कि चीन के साथ रिश्तों में आई खटास को दूर करने में भी रूसी सहयोग महत्वपूर्ण है। इसी तरह, वैश्विक मंचों पर अपने महत्व को फिर से हासिल करने के लिए रूस को हमारे साथ की जरूरत है। भारत दुनिया का एक विशाल और प्रतिष्ठित लोकतंत्र तो है ही, बड़ी अर्थव्यवस्था भी है, इसे कोई दरगुजर नहीं कर सकता।
दरअसल, चीन और अमेरिका विस्तारवादी नीतियों पर चलने वाले देश हैं। इसलिए उन्हें रूस के साथ भारत की दोस्ती सदा खटकती रही है। स्वाभाविक ही रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की इस यात्रा पर इन दोनों देशों की नजर लगी हुई थी। इसकी वजह केवल रक्षा सौदे नहीं, कूटनीतिक पहलू भी है। हालांकि चीन और रूस के संबंध बेहतर हैं, फिर भी क‌ई मामलों में दोनों के बीच तनातनी बनी रहती है। जैसे यूरेशिया में दोनों एक-दूसरे की पैठ नहीं बनने देना चाहते हैं। फिर चीन के साथ सीमा पर भारत के जो तनावपूर्ण रिश्ते रहते हैं, उससे भी वह रूस की भारत की नजदीकी नहीं देखना चाहता।
पिछले कुछ सालों में अमेरिका के साथ भारत के संबंध प्रगाढ़ हुए हैं, क‌ई मामलों में अमेरिका ने भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था पर भरोसा भी जताया है, मगर रूस के साथ उसके तनावपूर्ण रिश्ते ही रहे हैं, इसलिए वह नहीं चाहता कि भारत उस पर से निर्भरता छोड़ कर रूस के साथ संबंध बनाए रखे। वह चाहता है कि व्यापार, ऊर्जा और सामरिक मामलों में भारत उसी पर निर्भर रहे। मगर भारत ने उसका यह दबाव न मान कर एक तरह से बड़ा कूटनीतिक दांव खेला है। रूस से रिश्ते मजबूत करने की जरूरत इसलिए भी थी कि अफगानिस्तान में उसे अपनी उपस्थिति बनाए रखनी है। फिर चीन की विस्तारवादी नीतियों को भी इससे चुनौती मिलेगी, क्योंकि वह भी अफगानिस्तान में अपनी पैठ बनाए हुए है। रूस के साथ दोस्ती संयुक्त राष्ट्र संघ में भी भारत की स्थिति मजबूत करेगी।न सिर्फ भारत के लिए, बल्कि रूस के लिए भी पुतिन की यह यात्रा लाभदायक साबित होगी।

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