आसान नहीं है-अखिलेश की डगर.….

पंकज कुमार श्रीवास्तव
यूं तो,प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के आम चुनाव से सर्वथा अलग होते हैं।लोकसभा के आम चुनाव के मुद्दे और प्रदेश विधानसभा चुनाव के स्थानीय मुद्दे सर्वथा अलग-अलग होते हैं।लेकिन, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव,2022 एक अपवाद साबित होगा।वर्तमान केंद्र सरकार और सत्ताधारी भाजपा ने इसे 2024 के आमचुनाव के सेमीफाइनल के तौर पर घोषित कर दिया है।केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने प्रदेश की राजधानी लखनऊ में 29अक्टूबर को घोषित किया कि 2024के आमचुनाव के बाद मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए 2022में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाएं।मोदीजी ने पिछले 20वर्षों में अपनी सार्वजनिक छवि बनाई है कि वह जो करते हैं उससे पीछे नहीं हटते,अपने किए का उनके मन में कोई पछतावा भी नहीं होता और वह सार्वजनिक माफी जैसी किसी बात पर विश्वास नहीं करते।ना तो उन्होंने गुजरात दंगों के लिए कभी माफी मांगी और न नोटबंदी में अपनी असफलता के लिए ही।1साल से चल रहे अनवरत किसान आंदोलन के दौरान खुद मोदीने लोकसभा के पटल पर एक वर्ग को
आंदोलनजीवी घोषित करते रहे,परजीवी घोषित करते रहे उनकी सरकार के मंत्रिमंडलीय सहयोगी किसान आंदोलन को मवाली,राष्ट्रद्रोही,खालिस्तानी घोषित करते रहे छुटभैये अंधभक्त और गोदी मीडिया किसान आंदोलन को और न जाने क्या क्या कहती रही। लेकिन,19नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में तीनों काले कानूनों को वापस लेने की जो घोषणा की वह नरेंद्र मोदी और उनके नेतृत्व में भाजपा के चाल चरित्र और चेहरा से सर्वथा विपरीत दिखता है।यह उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव,2022 के दृष्टिकोण से जन आक्रोश को ठंडा करने की कोशिश के तौर पर परिभाषित की जा रही है। सार्वजनिक जीवन में यह नरेंद्र मोदी की पहली हार भी दिख रही है।अंधभक्त और गोदी मीडिया सकते की हालत में है।यह माना जा रहा है कि उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के दृष्टिकोण से भाजपा गहरे दबाव में है और प्रादेशिक सत्ता की संभावना उसे दूर दूर तक नहीं दिख रही।
अखिलेश यादव पूरे उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ और भाजपा के विरुद्ध एंटी इनकंबेंसी वोटों के भरोसे आगामी विधानसभा में बहुमत पाने की उम्मीद और भरोसा रखे हुए हैं।लेकिन क्या एंटी इन्कमबेंसी सिर्फ सत्ताधारी दल के लिए है?विपक्षी दल के लिए नहीं?वर्तमान विधानसभा के दृष्टिकोण से,विपक्षी दल के रूप में अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी ने कौन सी सकारात्मक भूमिका निभाई है?
अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी के खिलाफ भाजपा का सबसे बड़ा आरोप पारिवारिक कुनबावाद का है,क्या यह आरोप गलत है?लोहिया के पिछड़ावाद को मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव ने पारिवारिक कुनबावाद में बदल दिया।इनके शासनकाल में गैर-यादव पिछड़ावर्ग सत्ता की प्राथमिकता से बाहर ही रहा है?
भाजपा पर सबसे बड़ा आरोप साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का है,लेकिन आज अखिलेश जिस प्रकार जातीय तुष्टिकरण की राजनीति करने की कोशिश कर रहे हैं,उसे कैसे जायज ठहराया जा सकता है?
भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रामजन्मभूमि मुक्ति और श्रीराममंदिर निर्माण को वर्षों ही नहीं दशकों से चुनावी मुद्दा बनाए हुए है।अब,जब सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से श्रीराम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो चुका है तो श्रीराम मंदिर निर्माण ट्रस्ट पर
भूमिक्रय में घोटालेके जो आरोप लगे हैं,वह एक बड़ा चुनावी मुद्दा हो सकता था,लेकिन अखिलेश यादव और उनकी पार्टी इस मुद्दे पर मुंह खोलने के लिए तैयार नहीं है।क्योंकि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर 2012-17 के कार्यकाल में अखिलेश यादव का परफॉर्मेंस कोई बेहतर नहीं रहा है।
योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप
ठाकुरवाद का है लेकिन इसके विरुद्ध अखिलेश यादव कोई आक्रामक रवैया नहीं अपना सकते क्योंकि उनके कार्यकाल में थाना और अंचल कार्यालय से लेकर मुख्य सचिव और डीजीपी के स्तर तक सारे महत्वपूर्ण पदों पर यादवों की भरमार रही है।आज,जो अधिकारी प्रशासनिक भ्रष्टाचार के प्रतीक दिख रहे हैं,वह अखिलेश यादव के कार्यकाल में भी महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर थे और उस दौरान भी उन लोगों ने मलाई खाई है।
योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध एक बड़ा आरोप उनकी ‘ठोको नीति’,पुलिसतंत्रके निरंकुश हो जाने का है, बड़े पैमाने पर पुलिस एनकाउंटर में लोगों के मारे जाने का है।यही नहीं पटरी रेहड़ी वालों से लेकर मजदूरी करने वालों तक पुलिसिया तंत्र के आतंक के शिकार हुए,लेकिन अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टीने पिछले 5साल में कोई आक्रामक विरोधी दल की भूमिका नहीं निभाई है।
योगी आदित्यनाथ के कार्यकाल में दंगाशून्य प्रशासन का दावा भले किया जा रहा हो लेकिन केंद्र सरकार का नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि योगी आदित्यनाथ के कार्यकाल में सांप्रदायिक दंगे ज्यादा हुए हैं।लेकिन,सामाजिक समरसता का ठेका लेने वाली समाजवादी पार्टी कहीं सामाजिक समरसता के पक्ष में खड़ी दिखाई दी है क्या?
आरएसएस का रवैया प्रारंभ से ही महिलाविरोधी रहा है और योगी आदित्यनाथ के कार्यकाल में महिलाओं पर अत्याचार बढ़े हैं,महिलाओं पर बलात्कार और यौन शोषण के अपराध बढ़े हैं।लेकिन,अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी कहीं भी प्रगतिशील रवैया अपनाते हुए नहीं दिखी।
बाजीगर बनकर उभरे अखिलेश यादव, योगी के गढ़ में ऐसे चढ़ाई साइकिल | UP ByPolls  verdict : How Akhilesh Yadav became winner in the fort of yogi adityanath.  - Hindi Oneindia
कोरोना काल में जो कुव्यवस्था दिखाई दी,उसको याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।जिस प्रकार से लोग पेरासिटामोल जैसी मामूली दवा के लिए भटकते दिखे, ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए भटकते दिखे हॉस्पिटल में बेड के लिए भटकते दिखे,हॉस्पिटल में मास्क और वेंटिलेटर के अभाव में दम घुटने के कारण मरे या फिर मौत हो जाने पर पारिवारिक-धार्मिक रीति रिवाज के मुताबिक अंतिम संस्कार न हो पाने के कारण लाशों को नदी के रेत में गाड़ना पड़ा या नदियों में बहाना पड़ा-इन सबके लिए योगी आदित्यनाथ और उनकी सरकार अपराधिक रूप से दोषी है,लेकिन उस दौरान अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी कहां थी?
यह कोरोना काल की कुव्यवस्था थी की पंचायत चुनाव में भाजपा बुरी तरह पराजित हुई थी।लेकिन, जिला परिषदों के चुनाव में भाजपा को चुनाव लूटने की इजाजत किसने दी?क्या अखिलेश यादव लोकतंत्र के इस अपहरण के मूकदर्शक बने रहने के दोषी नहीं हैं क्या?
समाजवाद के प्रतीकपुरुष लोहिया के जमाने से महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर समाजवादी आंदोलन करते रहे हैं।लेकिन,महंगाई और बेरोजगारी के लिए योगी आदित्यनाथ से ज्यादा केंद्र सरकार की नीतियां जवाबदेह रही हैं।लेकिन,किसी भी मुद्दे पर, अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी आंदोलन करते नहीं दिखी।
किसान नेता चौधरी चरण सिंह की विरासत संभाल रहे जयंत चौधरी आज अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करते दिख रहे हैं लेकिन पिछले 1 साल में किसान आंदोलन के प्रति अखिलेश का कौन सा सकारात्मक रवैया रहा है?
नीति आयोग का पैमाना रहा हो या पब्लिक अफेयर्स इंडेक्स का मापदंड उत्तर प्रदेश हर पैमाने पर निरंतर फिसड्डी होता चला गया,लेकिन अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी ने जनता को क्या बताया क्या मार्गदर्शन किया?योगी आदित्यनाथ की सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कौन सी जद्दोजहद अखिलेश यादव और उनकी पार्टी ने की?
उत्तरप्रदेश विधानसभाके पिछले 3 चुनावोंके कुल वोटों की संख्या और हुए मतदान प्रतिशतका अध्ययन, आकलन और विश्लेषण करें-2007में कुल वोट थे 11.30करोड़-वोट पड़े 45.96%,2012में कुल वोट थे 12.74करोड़-कुल वोट पड़े 59.40%,2017में कुल वोट थे 14.05करोड़-कुल वोट पड़े-61.04%।इन आंकड़ों के आधार पर एक अनुमान किया जा सकता है कि 2022के चुनाव में कुल वोट होंगे 15.50करोड़ और डाले जानेवाले वोटोंका प्रतिशत हो सकता है- 65% यानि कि तकरीबन 10करोड़ से ज्यादा वोट पड़ेंगे।
भाजपा विरोधी मतोंकी पहली दावेदार समाजवादी पार्टी और उसके नेता अखिलेश यादव हैं।समाजवादी पार्टी को 2007में 25.43%,2012में जब वह सत्तामें आई थी,तो 29.15% वोट मिले।2007और 2012में उसे भाजपा से ज्यादा वोट मिले थे।2017में जब वह सत्ता गंवाकर 47सीटों पर सिमट गई,तो भी उसे 21.82% वोट मिले थे।2017के विधानसभा चुनावमें तत्कालीन सत्ताधारी दल-समाजवादी पार्टी-पारिवारिक कलह की शिकार थी।
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मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी सत्ता की दावेदारी से बाहर दिखती हैं।बसपा ने 2007 में 30.43% के साथ 15872561 वोट प्राप्त किए और वह अकेले 206 सीट जीत कर सत्तासीन हुई।2012 में बेशक इसने सत्ता गंवायी,लेकिन 25.91%वोट के साथ 19647303 वोट प्राप्त किए अर्थात् इसके अपने वोटों में लगभग 24% इजाफा हुआ।2017 में बसपा को बेशक महज 19 सीटें मिली,लेकिन तब भी इसे 19281352 वोट मिले अर्थात् इसके वोटों में 2%से भी कम की गिरावट दर्ज की गई और इसे लगभग 22% वोट मिले।2019के लोकसभा चुनाव के दौरान मायावती और बसपा का अखिलेश यादव के साथ गठबंधन था, लेकिन मायावती अपने इस वोट बैंक को अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को शिफ्ट नहीं करा पाईं थीं।क्योंकि इस वोट बैंक के लिए अखिलेश यादव आकांक्षा के प्रतीक पुरुष नहीं हो पाए।2019के आम चुनाव में इस वोटबैंक ने भाजपा को प्राथमिकता दी थी और अगर इसका दुहराव उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव,2022में भी हो गया,तो मुख्यमंत्री की कुर्सी अखिलेश यादव तक आते-आते रह जाएगी।
Why Mayawati Is Blaming Akhilesh Yadav After Election Result - झूठ बोल रही  हैं मायावती कि उन्हें सपा के वोट नहीं मिले? आंकड़े बयां कर रहे पूरी हकीकत |  Patrika News
इसी दबाव में,24नवंबर को अखिलेश यादव ने राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन की घोषणा की अपना दल (कृष्णा पटेल गुट)की कृष्णा पटेल(जो केन्द्रीय मंत्री और अपना दल-अनुप्रिया पटेल गुट वाली अनुप्रिया पटेल की मां हैं)ने अखिलेश यादव से मुलाकात की।आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने भी अखिलेश यादव से मुलाकात की और भी कई दलों के उनके गठबंधन में शामिल होने की संभावना जताई जा रही है।वर्तमान विधानसभा में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के विधायकों की संख्या 47 ही है,वैसे में किसी विधायक के टिकट काटने की आशंका और जरूरत नहीं है।
संभव है, जातीय आकांक्षाओं के प्रतीक पुरुष होने का दावा कर रहे कुछ और भी नेताओं से अखिलेश गठबंधन करें,लेकिन जातीय तुष्टिकरण की राजनीति को कैसे जायज ठहराया जा सकता है?
राष्ट्रीय परिपेक्ष में बात की जाए,तो बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति तकरीबन एक जैसी जातीय आधारित है।बिहार विधानसभा के चुनाव पिछले वर्ष अक्टूबर-नवंबर,2020 में हुए थे।उस चुनाव के दौरान विपक्षी नेता तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी राजद के पास विकल्प था कि वह उपेन्द्र कुशवाहा,मुकेश सहनी जीतनराम मांझी,पप्पू यादव सरीखे जातीय नेताओं के साथ गठबंधन करें।लेकिन,तेजस्वी यादव ने इन नेताओं को कोई तरजीह नहीं दी।पप्पू यादव और उपेंद्र कुशवाहा ने अलग-अलग गठबंधन कर चुनाव लड़ा था।लेकिन,यह लोग कोई भी सीट जीत पाने में असफल रहे थे।अलबत्ता,मुकेश सहनी और जीतनराम मांझी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन खेमे में चले गए और यह दोनों अपनी-अपनी पार्टियों के लिए चार-चार सीट जीत पाने में सफल रहे थे।
बिहार के इन अनुभवों की अनदेखी करते हुए अखिलेश यादव जातीय आकांक्षाओं के प्रतीकपुरुष होने का दावा कर रहे नेताओं से गठबंधन कर रहे हैं,जातीय तुष्टिकरण की राजनीति को कैसे जायज ठहराया जा सकता है?
(लेखक पूर्व अतिथि संकाय,जेवियर समाज सेवा संस्थान रांची हैं)

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