लालू यादव के हाथों इस तरह उपयोग होते रहे बाहुबली अनंत सिंह !

राजनीतिक संवाददाता द्वारा
मोकामा: बिहार विधान परिषद चुनाव (MLC) और मुजफ्फरपुर के बोचहां सीट पर हुए उपचुनाव के बाद अचानक से मीडिया में मोकामा के बाहुबली विधायक अनंत सिंह का नाम सुर्खियों में है। अनंत सिंह जेल में होने के चलते प्रत्यक्ष रूप से इन दोनों चुनावों में शामिल नहीं रहे और ना ही वह प्रत्याशी रहे। इसके बाद भी उनके नाम की चर्चा खूब हो रही है।

बिहार चुनाव....कभी लालू तो कभी नीतीश के लिए क्यों जरूरी हो जाते हैं बाहुबली  अनंत सिंह? - Importance of MLA anant singh for CM Nitish kumar and lalu  prasad yadav bihar election

इस बार अनंत सिंह की चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि इन दोनों चुनावों में अनंत सिंह के बाहुबल नहीं बल्कि उनके शॉर्प पॉलिटिक्ल माइंड गेम का मुजायरा देखने को मिला है। अनंत सिंह से माइंड गेम से लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (RJD) को फायदा हुआ है। अनंत सिंह और उनके परिवार के साथ लालू प्रसाद यादव और उनकी फैमिली का दोस्ती और दुश्मनी दोनों तरह का रिश्ता रहा है। दिलचस्प बात यह है कि दोस्ती हो चाहे दुश्मनी दोनों ही मसलों में लालू यादव और उनके परिवार को राजनीतिक रूप से फायदा होता रहा है। आइए स्टेप बाई स्टेप समझते हैं कि लालू यादव ने अनंत सिंह से दोस्ती और दुश्मनी दोनों ही कंडीशन में कैसे राजनीतिक लाभ उठाते रहे हैं।
लालू यादव और अनंत सिंह की अनंत कथा को समझने के लिए हमें करीब 4 दशक पीछे फ्लैशबैक में जाना होगा। 80 के दशक में मोकामा विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के चर्चित नेता श्याम सुंदर सिंह धीरज चुनाव जीतते रहे। मोकामा के बूढ़े बुजुर्ग बताते हैं कि श्याम सुंदर सिंह धीरज पक्के राजनेता थे। वह खुद कभी फ्रंट पर आकर बाहुबल का परिचय नहीं देते थे बल्कि उन्होंने कुछ ऐसे गुर्गे पाल रखे थे जो इलाके में उनकी ताकत का अहसास कराते रहते थे। इन्हीं गुर्गों में एक थे लदमा गांव निवासी दिलीप सिंह। परिवार में दिलीप सिंह के अलावा बिरंची सिंह, फाजो सिंह और अनंत सिंह चार सगे भाई थे। जमीन जायदाद से संपन्न यह परिवार घोड़े पालने का शौक रखते थे। घोड़े होने के चलते इस परिवार के कई तांगे (टमटम) बाढ़ और सकसोहरा रोड में चलते थे। शुरुआती दिनों परिवार के चारो भाई टमटम के रोजगार के साथ कम्यूनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में काम करते थे। इलाके में पारिवारिक रंजिश में बिरंची सिंह और फाजो सिंह हत्या हो जाने के बाद दिलीप सिंह ने टमटम के धंधे के साथ रंगदारी वसूली का काम शुरू कर दिया। इसी बीच मोकामा के तत्कालीन कांग्रेसी विधायक श्याम सुंदर सिंह ‘धीरज’ ने उन्हें राजनीतिक संरक्षण दे दी और चुनावों में उनसे बूथ कैप्चरिंग करवाने लगे।
एक बार की बात है दिलीप सिंह पटना में श्याम सुंदर सिंह धीरज के सरकारी आवास पर उनसे मिलने पहुंचे। इसपर श्याम सुंदर सिंह धीरज ने उनसे कहा कि यह सभ्य लोगों की जगह है। वह ऐसे दिन में उनसे मिलने ना आया करें। रात में गुपचुप तरीके से मिलने आया करें। यह बात दिलीप सिंह के मन में घर कर गई। उसी दौर में लालू प्रसाद की जनता दल मोकामा में किसी ऐसे उम्मीदवार की तलाश में थी जो कांग्रेस श्याम सुंदर सिंह धीरज को हरा पाए। कहा जाता है कि 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव की दखल से दिलीप सिंह को मोकामा से विधानसभा का टिकट मिला और उन्होंने तत्कालीन बिहार सरकार के मंत्री श्याम सुंदर सिंह धीरज को करारी शिकस्त दी। इनाम स्वरूप दिलीप सिंह को लालू यादव ने अपनी कैबिनेट में जगह भी दे दी। 1995 के चुनाव में भी दिलीप सिंह ने श्याम सुंदर सिंह को हराया। दिलीप सिंह पूरी रसूख के साथ लालू यादव और बाद में राबड़ी देवी की कैबिनेट का हिस्सा बने रहे। इस दौर में दिलीप सिंह के चेहरे को आगे कर लालू यादव बिहार में भूमिहार समाज का अच्छा खासा वोट हासिल करते रहे।
2000 के बिहार विधानसभा चुनाव में दूसरे बाहुबली नेता सूरजभान सिंह ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में दिलीप सिंह को हरा दिया। इसके बाद 2003 में लालू यादव की पार्टी आरजेडी ने उन्हें विधान परिषद भेज दिया, लेकिन 2006 में हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई। इसके बाद छोटे भाई अनंत सिंह ने उनकी राजनीतिक विरासत संभालने का फैसला लिया। 2000 में बनी राबड़ी देवी की सरकार को जंगलराज कहा जाने लगा था। यूं कहें कि बिहार में राजनीतिक हवा का रुख बदलने लगा था। ऐसे में अनंत सिंह ने भाई दिलीप सिंह की मौत के बाद तत्कालीन केंद्रीय मंत्री नीतीश कुमार के नजदीक होने की कोशिश कर रहे थे। 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव से चंद महीने पहले अनंत सिंह ने बाढ़ में नीतीश कुमार को चांदी के सिक्कों से तौलकर गाजे बाजे के साथ जेडीयू में शामिल हो गए।
अनंत सिंह के नीतीश कुमार के करीब जाना लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी को नागवार गुजरी। तभी मीडिया में जंगलराज की बनी छवि को मिटाने के लिए मुख्यमंत्री रहते हुए राबड़ी देवी ने अनंत सिंह के लदमा स्थित पुश्तैनी मकान पर एसटीएफ की रेड डलवा दी। इस घटना के कुछ दिन बाद ही गोलीबारी की भी घटना हुई। इस रेड के बाद 2005 के बिहार विधानसभा चुनावों में लालू यादव मंच से लगातार अनंत सिंह का नाम लेकर कहते कि उनकी सरकार में क्रिमिनल को कतई नहीं बख्शेगी। भूमिहार अनंत सिंह के घर पर छापेमारी कर लालू यादव ओबीसी और पिछड़े वोटरों को अपने साथ जोड़े रहने में सफल रहे। लालू परिवार से दुश्मनी लेकर भी अनंत सिंह जेडीयू के टिकट पर 2005 से 2015 तक विधानसभा के सदस्य रहे।
2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के साथ गठबंधन होने पर लालू प्रसाद यादव दलित और पिछड़े समाज के वोटरों को किसी कीमत पर अपनी पार्टी से छिटकने नहीं देना चाहते थे। इसी दौरान 2015 में अनंत सिंह पर बाढ़ में विनय उर्फ पुटुस यादव की हत्या करवाने के आरोप लगे। लालू यादव ने मौके की नजाकत को भांपते हुए बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान नीतीश कुमार पर इतना दबाव बना दिया कि चुनाव से पहले अनंत सिंह को अरेस्ट करवाकर पटना के बेऊर जेल में बंद करवाना पड़ा। इसके बाद लालू यादव कई मंचों से कहते सुने गए थे कि भूमिहार यादव को परेशान करेगा तो वह उसका अनंत सिंह जैसा हाल कर देंगे। अनंत सिंह जैसे भूमिहार नेता को जेल भेजने का लालू यादव की पार्टी आरजेडी को खूब फायदा हुआ। यादव समेत तमाम पिछड़ी और दलित जाति के वोटरों से दिल खोलकर आरजेडी प्रत्याशी को वोट दिए। हालांकि अनंत सिंह जेल से ही मोकामा से निर्दलीय चुनाव जीत गए।
2005 से लगातार बिहार में हार झेल रहे लालू प्रसाद यादव समझ चुके हैं कि केवल मुस्लिम+यादव के वोट से उनके बेटे तेजस्वी यादव बिहार की सत्ता पर काबिज नहीं हो सकते हैं। इसलिए तेजस्वी यादव बिहार की पॉलिटिक्स में A टू Z फॉर्म्यूला लेकर आए हैं। A टू Z फॉर्म्यूले के तहत भूमिहारों को आरजेडी से जोड़ने के लिए उन्होंने सबसे पहले अनंत सिंह के नाम को आगे किया। एमएलसी चुनाव में तेजस्वी यादव ने अनंत सिंह की सलाह पर भूमिहार नेताओं कार्तिकेय मास्टर, इंजीनियर सौरभ और अजय सिंह को टिकट दिए और उन्होंने जीत भी दर्ज की।
अनंत सिंह की सलाह पर एमएलसी चुनाव में तीन भूमिहार नेताओं को विधायक बनवाने का इनाम तेजस्वी यादव को बोचहां उपचुनाव में मिला। बोचहां में तेजस्वी यादव ने मल्लाह समाज से आने वाले अमर पासवान को कैंडिडेट बनाया था। इसके बाद भी इस सीट पर करीब 40 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले भूमिहारों ने दिल खोलकर आरजेडी के कैंडिडेट को वोट दिया। करीब 30-35 साल बाद बिहार की पॉलिटिक्स में भूमिहार समाज के लोगों ने बीजेपी से अलग जाकर दिल खोलकर आरजेडी को वोट किया।

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