राजनीति समाज सेवा का एक जरिया माना जाता है. शुरुआत में इससे समर्पित और उच्च भावना वाले लोग जुड़े. लेकिन समय के साथ राजनीति में सभी प्रकार के लोगों की एंट्री होने लगी. अपराधियों और बाहुबलियों को महत्व मिलने लगा. धन कुबेरों का बोलबाला कायम हुआ. अब राजनीति के प्रति नौकरशाहों में गजब का उत्साह देखा जा रहा है. इस बार फिर झारखंड के कई आईपीएस- आईएएस खादी धारण करने का मन बना रहे हैं.
वरिष्ठ पत्रकार विनय चतुर्वेदी कहते हैं कि अब अधिकारी नौकरशाही से अधिक लोकतंत्र की पंचायतों में प्रवेश की इच्छा रखने लगे है. इसके लिए नौकरशाह यानी आईएएस-आईपीएस राजनीतिक निष्ठा दिखाते नजर आते हैं. आमतौर पर नौकरशाह राजनीतिक संबद्धता से परहेज करते थे, पर आज सब चल रहा है. प्रत्येक राजनीतिक दल में इनका स्वागत हो रहा है.
राजनीति में पूर्व से शामिल नौकरशाहों की सफलता से नये अधिकारी प्रेरित होते हैं. लिहाजा अपने लिए भी संभावना तलाशने में जुट जाते हैं. कोई वीआरएस लेकर चुनावी मैदान में आ जाते हैं, तो कोई रिटायरमेंट के बाद इस प्लेटफार्म को अपनाते हैं. झारखंड में नौकरशाह से सियासतदां बनने की शुरुआत यशवंत सिन्हा ने की. बाद में वह केंद्रीय मंत्री बने. पिछले लोकसभा चुनाव में पूर्व डीजीपी बीडी राम पलामू लोकसभा क्षेत्र से सिर्फ टिकट ही नहीं पाए, बल्कि भाजपा से सांसद भी बन गये. इस बार फिर वह भाग्य आजमा रहे हैं. इस सीट के लिए पूर्व मुख्य सचिव राजबाला वर्मा का भी नाम चर्चा में है.
झारखंड के पूर्व डीजीपी राजीव कुमार ने हाल ही में कांग्रेस का दामन थाम लिया. वे पलामू से भाग्य आजमाना चाह रहे हैं. इसके अलावा वर्तमान डीजीपी डीके पांडेय का भी नाम गिरिडीह से सामने आ रहा था. लेकिन बीजेपी ने अब वह सीट आजसू को दे दी है. भाजपा के अलावा कांग्रेस, आजसू में भी ऐसे अधिकारी भाग्य आजमा चुके हैं या फिर मैदान में उतरने को तैयार हैं. आईपीएस अफसर रामेश्वर उरांव, सुबोध प्रसाद, अमिताभ चौधरी, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. अजय कुमार, लक्ष्मण प्रसाद, अरुण उरांव जैसे अधिकारियों को राजनीति पसंद आयी है. कई सफल हुए. तो कई असफल.
आईएएस अफसर विमल कीर्ति सिंह पिछले लोकसभा चुनाव के समय भाजपा से चुनाव लड़ने के लिए टिकट की जुगाड़ में थे. लेकिन सफल नहीं हो पाए. 2014 में ही आईएएस अधिकारी जेबी तुबिद विधानसभा चुनाव लड़े, लेकिन हार गये. वैसे राजनीतिक दल अधिकारियों को पसंद भी कर रहे हैं. उनका मानना है कि राजनीति में सभी के लिए द्वार खुले हैं. उनके अनुभवों का लाभ भी मिलता है.
दरअसल, कई अधिकारी अपनी नौकरी के दौरान अपनी निष्ठा उनदलों के साथ जोड़ने की कोशिश में रहते हैं, जिनसे उनके समीकरण बैठते हैं. इसलिए नौकरी के एक खास पड़ाव पर वे उस राजनीतिक दल के प्रति सहानुभूति रखने लगते हैं. कई अधिकारियों पर राजनीतिक दलों के इशारे पर काम करने के आरोप गाह-बगाहे लगते रहते हैं. कई बार ऐसा देखा गया है कि राजनीतिक दल भी अपने निहित स्वार्थ के लिए इनका इस्तेमाल करते हैं. ऐसे में दशकों से पार्टी के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता ठगे जाते हैं.