पंकज कुमार श्रीवास्तव
बात उन दिनों की है,जब बिहार में कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री थे।पटना में भाषण के लिए आचार्य कृपलानी पधारे थे।अपने भाषण के क्रम में आचार्य ने बताया कि जब वह हवाई जहाज से उतरे,तो कुछ लोगों ने उन्हें काले झंडे दिखाए।उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि उनका विरोध क्यों हो रहा है,तो पता चला कि बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने की घोषणा की थी। अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए आचार्य कृपलानी ने कहा कि लोकतंत्र में मुख्यमंत्री सैकड़ों बात सोचता- बोलता रहता है,उसकी हर बात लागू नहीं हो सकती।अपनी बात को उसे अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के सामने कैबिनेट में रखना होता है,कैबिनेट से उसे पारित करवाना होता है,उसके बाद नीतिगत फैसलों के लिए उसे विधानसभा से पारित करवाना होता है और तब उसे राज्यपाल का अनुमोदन भी लेना पड़ता है।अगर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरीजी ने कोई घोषणा की है,तो उन्हें उसे अपने मंत्रिमंडल में पारित करवाना होगा,फिर विधानसभा में पारित करवाना होगा और तब राज्यपाल का अनुमोदन भी प्राप्त करना होगा।अगर वह सब करवा पाने में सक्षम होते है तो उसे बदलवाने वाले कृपलानी कौन होता है?यही नहीं,बिहार की जातिगत व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए आचार्य ने अपनी पीड़ा व्यक्त की-बिहार में 70 सालों में कुछ भी नहीं बदला।70साल पहले जब वह मुजफ्फरपुर में लंगट सिंह कॉलेज में प्रोफेसर थे तो एक बार वह ट्रेन से सफर कर रहे थे।सामने बैठे सज्जन ने उनका नाम पूछा तो उन्होंने अपना नाम बताया।नाम से स्पष्ट लगा कि वह मूलतः बिहारी नहीं हैं,तो उस व्यक्ति ने आगे पूछा कि आपका जात क्या है?आचार्य ने प्रतिप्रश्न किया था-जात क्या होता है? उस आदमी ने कहा कि पारिवारिक,खानदानी तौर पर जो पेशा हो,उससे जात समझ में आती है जैसे कि लोहा का काम लोहार करता है,लकड़ी का काम बढ़ई करता है,आदि आदि।उस व्यक्ति को आचार्य ने आगे जवाब दिया था कि मेरी जात दिनभर बदलते रहती है-सुबह उठकर मैं शौच जाता हूं,तो मैं भंगी हूं,कपड़े साफ करता हूं,तो धोबी हूं,पढ़ता हूं तो मैं ब्राह्मण हूं, कॉलेज जाने के पहले जूते साफ करता हूं,तो मोची हूं,पैसे के लिए पढ़ाता हूं तो बनिया हूं।आचार्य ने आगे पीड़ा बताई-70सालों में जातिगत संकीर्णता से बिहार उबर नहीं पाया और यह बिहार के पिछड़ेपन का कारण है।
तब अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए लोकसभा/विधानसभा में आरक्षण की सांवैधानिक व्यवस्था संविधान लागू होने के समय यानि कि 1950से ही लागू थी,जो तदर्थ तौर पर 10वर्ष के लिए लागू की गई थी।शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था 1951में लागू हुई थी।हालांकि,इन आरक्षणों के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले थे,लेकिन आरक्षण के प्रावधानों पर पुनर्विचार की कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई थी और लोकसभा/विधानसभा में आरक्षण की व्यवस्था का समय-सीमा विस्तार होता रहा था।
पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था ने 1990में राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकृष्ट किया था,जब विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री थे।विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लोकतंत्र को संख्यावाद से नियंत्रित करने की कोशिश की थी,वह भी तब जब उनकी सरकार अल्पमत में थी,और उनकी सरकार एक तरफ वामपंथियों और दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की वैसाखियों पर टिकी थी।विश्वनाथ प्रताप सिंह का संख्या गणित था कि मुल्क की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत है,और अगर वह दलित और पिछड़ों को आरक्षण का लाभ दिलवा सके और इस वर्ग का निरंतर वोट उनको मिलता रहा,तो वह लंबे समय तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे।अपनी इस रणनीति के तहत विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की थी विश्वनाथ प्रताप सिंह की घोषणा से पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिए जाने के विरोधी लोगों ने आंदोलनात्मक पहल की थी।विश्वनाथ प्रताप सिंह की इस राजनैतिक पहल को मंडलवाद की संज्ञा दी गई।उत्तरप्रदेश,बिहार सहित हिन्दी प्रदेशों में निश्चित रूप से पिछड़ा वर्ग के लोगों में एक राजनैतिक चेतना आई और उसके परिणाम आज देखने को मिल रहे हैं।सार्वजनिक राजनीति से लेकर प्रशासन में अगड़ों का वर्चस्व टूटा है।लेकिन,सच यह भी है कि उत्तरप्रदेश और बिहार में पिछड़े वोटों की राजनीति करने वाले दो राजनीतिक घराने-मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद परिवार सामने आए।यही नहीं दलितों या बहुजनों की राजनीति करने वाले भी दो प्रमुख हस्तियां-उत्तरप्रदेश में मायावती और बिहार में रामबिलास पासवान-राजनीति में उभरीं।सच यह भी है कि मुलायम सिंह यादव से लेकर लालू प्रसाद तक और मायावती से लेकर के रामविलास पासवान तक ने राजनीति के जो कीर्तिमान गढ़े उसमें व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है और संपत्तिअर्जन ज्यादा महत्वपूर्ण रहा और इनलोगों ने राजनैतिक मूल्य और आदर्शों को ताक पर रख दिया।बाद में,बिहार में नीतीश कुमार ने महसूस किया पिछड़ावाद के नाम पर यादववाद हावी हो गया है और पिछड़ों का बड़ा वर्ग अभी भी उपेक्षित है तो उन्होंने पिछड़ों के बीच अति पिछड़ा और दलितों के बीच महादलित की राजनीति शुरू की।
वीपी सिंह के मंडलवाद के उभार तक अयोध्या में रामजन्मभूमि मुक्ति और श्रीराममंदिर निर्माण राजनैतिक विमर्श के केन्द्र बिन्दु में नहीं था।लेकिन,आरएसएस ने यह महसूस कर लिया था की इस मुद्दे पर भारतीय जनमानस को इतना उद्वेलित किया जा सकता है कि हिंदू राष्ट्र की अपनी अवधारणा को वह आगे बढ़ा सके।आरएसएस के सांप्रदायिक सोच को लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक राम जन्मभूमि मुक्ति और श्रीराममंदिर निर्माण हेतु रथयात्रा के द्वारा राजनीतिक अभियान में बदलने की कोशिश की। लालकृष्ण आडवाणी जब इस रथयात्रा पर निकल रहे थे तो उनको बखूबी मालूम था कि श्रीराममंदिर निर्माण अदालती फैसले के पहले संभव नहीं है।लेकिन आरएसएस की साम्प्रदायिक महत्वाकांक्षा और अपने राजनैतिक वजूद के लिए उन्हें यह जरूरी दिखा।दूसरी ओर,वीपी सिंह और लालू प्रसाद को बखूबी मालूम था आडवाणी की रथयात्रा को रोकने का मतलब केंद्र में वीपी सिंह सरकार को कुर्बान करना होगा।लेकिन, केंद्र सरकार के गिरने का खतरा उठाकर भी लालू प्रसाद ने बिहार में आडवाणी को गिरफ्तार कर उनकी रथयात्रा रोक दी।सार्वजनिक राजनीति में वह दौर मंडलवाद और कमंडलवाद के प्रादुर्भाव का था। लगभग तीन दशक से हिंदी प्रदेशों की राजनीति
मंडलवाद और कमंडलवाद के इर्द-गिर्द घूमती रही है।
कांग्रेस ने इन तीन दशकों में उत्तरप्रदेश,बिहार और झारखंड में अपने को राजनीति में पीछे रखने की कोशिश की।नतीजा यह हुआ कि 134 संसदीय सीटों वाले इस विशाल भू-भाग में कांग्रेस लगातार सिमटती चली गई।उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव,2017 में तो इसे महज 6.25%वोट और सात सीटें मिली।
उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 के संदर्भ में महासचिव प्रियंका गांधी ने नारी सशक्तिकरण और युवा पीढ़ी को शिक्षित, प्रशिक्षित और दीक्षित करने को अपने एजेंडा के केन्द्रबिन्दु में रखा है। महिलाओं को 40% टिकट देने और लड़कियोंको स्कूटी,स्मार्टफोन देने का वादा करके चुनाव को जाति और संप्रदाय से ऊपर उठकर लैंगिक समस्याओं,महिला सशक्तिकरण, महिला उत्पीडन,यौनशोषण जैसी समस्याओं पर केंद्रित किया है।
आज प्रियंका गांधी और राहुल गांधी ने भर्ती विधान-युवा घोषणा पत्र जारी कर बताया है कि पिछले 2-3सालों में प्रतिदिन 890युवा अपने रोजगार खोए हैं।ऐसे में विभिन्न विभागों में रिक्तियों के लिए भर्ती अभियान सहित शिक्षा-बजट बढ़ाकर युवा पीढ़ी को शिक्षित प्रशिक्षित और दीक्षित करने का संकल्प व्यक्त किया है।
2019में प्रियंका गांधी ने कांग्रेस का महासचिव बनाए जाने के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस में जान फूंकने की कोशिश की है।जिला,अनुमंडल,प्रखंड और पंचायत स्तर तक कांग्रेस का ढांचा नए सिरे से खड़ा किया है।मुद्दों के आधार पर नई पीढ़ी को गोलबंद किया है।लगभग 20000 कार्यकर्ता आन्दोलनात्मक गतिविधियों में जेल गए हैं।उन्नाव हो या हाथरस महिलाओं के खिलाफ जुल्म और अत्याचार के खिलाफ सबसे पहले पहुंची हैं।सोनभद्र में मीड डे मील में गड़बड़ी हो या आगरा में बाल्मिकी समाज के व्यक्ति के खिलाफ ज्यादती प्रियंका हर उत्पीड़न के खिलाफ खड़ी हुईं हैं। लखीमपुर-खीरी कांड के बाद किसान आन्दोलन के प्रति भी उनका समर्थन स्पष्ट रहा है।कांग्रेस के मामूली से मामूली कार्यकर्ता से वह नियमित और सीधा संपर्क में हैं।सोशल मीडिया ही नहीं कांग्रेस के पास 4000से ज्यादा प्रचार वाहन हैं,जो डिजिटल माध्यम से प्रचार अभियान को सरल बना रहे हैं।जनसभाओं,नुक्कड़ सभाओं, रैलियों, जुलूसों पर प्रतिबंध के बाद कांग्रेस और प्रियंका ही संसाधन, मानव संसाधन,तकनीकी कौशल,आधारभूत संरचना के मामले में सक्षम हैं।
किसानहित की बात हो या मंहगाई,बेरोज़गारी,ढहती अर्थव्यवस्था,बिकते सार्वजनिक उपक्रम हों-तमाम राष्ट्रीय मुद्दों पर भाजपा का विकल्प कांग्रेस प्रियंका ही हो सकती हैं।ऐसे में नकारात्मकताओं को नकारकर सकारात्मक, रचनात्मक और सृजनात्मक राजनीति की प्रियंका की पहल क्या राजनैतिक परिणाम लाती है-यह यूपी की जनता के विवेक पर निर्भर करेगा।
लेखक क्या हैं :-
1.स्नातक(पत्रकारिता),स्नातकोत् तर(प्रबंधन)
सेवानिवृत्त प्रबंधक,झारखंड राज्य ग्रामीण बैंक डाल्टनगंज(झारखंड)
2.पूर्व अतिथि संकाय,
जेवियर समाज सेवा संस्थान,रांची
3.अध्यक्ष,
प्रगतिशील लेखक संघ,पलामू(झारखंड),
4.सहायक संपादक,
वैचारिक मासिक पत्रिका-‘सुबह की धूप’
संपर्क-8092882344/8873813976