क्या भाजपा और कांग्रेस के बिना बन सकती है देश में सरकार?

दक्षिण भारत में मौजूद क्षेत्रीय दलों का मानना है कि वे सम्मिलित रूप से इस लोकसभा चुनाव में अपने मुख्य विपक्षी राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस से बेहतर प्रदर्शन करेंगे. यह भरोसा और विश्वास इन क्षेत्रीय दलों के आंतरिक सर्वे के बाद पैदा हुआ है.

सत्ता की इसी महक की वजह से देश के सबसे नए राज्य तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव, केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन से पहली बार मिलने पहुंचे. पी. विजयन मौजूदा समय में भारत के एकमात्र वामपंथी मुख्यमंत्री हैं.

के. चंद्रशेखर राव का ग़ैर-भाजपा और ग़ैर-कांग्रेसी फ्रंट बनाने का ख़्वाब पिछले साल उस समय ठंडे बस्ते में चला गया था, जब अन्य क्षेत्रीय दल उनके साथ नहीं आए थे. उसके बाद कई छोटे दल एनडीए और यूपीए का हिस्सा बन गए.

लेकिन बीते पांच सालों में केंद्र और राज्यों के बीच चलने वाली अनबन भरे रिश्तों की वजह से चंद्रशेखर राव और विजयन की मुलाक़ात अहम हो गई है.

केरल में सीपीएम के नेतृत्व वाले लेफ़्ट डेमोक्रेटिक फ़्रंट (एलडीएफ़) की सरकार है. यहां के मुख्यमंत्री ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री के साथ हुई बैठक हो ‘बहुत अहम’ बताया है.

पी. विजयन ने कहा, ”उनकी (चंद्रशेखर राव) नज़र में एनडीए और यूपीए में से किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं मिलेगा और ऐसे में क्षेत्रीय दल महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे. मेरा मानना है कि चंद्रशेखर राव सही सोच रहे हैं.”

विजयन देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने अपने पड़ोसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इस बात के लिए उकसाया कि वे केंद्र के उस फ़ैसले का विरोध करें जिसमें केंद्र ने मवेशियों के व्यापार में राज्य का हिस्सा ख़त्म करने की बात कही थी.

दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने बीफ़ पर हुए विवाद में नागरिकों की अपनी पसंद का मुद्दा उठाया था. इस विरोध के चलते भाजपा शासित केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अपना फ़ैसला वापस लेना पड़ा था.

केंद्र सरकार के ऐसे कई और फ़ैसले हैं जिनका क्षेत्रीय पार्टियों ने विरोध किया. इसमें राज्यों को अपनी इच्छानुसार अन्य पिछड़ा वर्ग में जातियों को शामिल करने की ताकत देना शामिल है.

इसके साथ ही देश की प्राकृतिक आपदाओं के वक़्त अलग-अलग राज्यों में भेदभावपूर्ण व्यवहार करना भी शामिल है.

कुल मिलाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दक्षिण भारत के राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच ज़्यादातर समय अनबन भरे रिश्ते ही चलते रहे.

इस अनबन की झलक अब चुनाव प्रचार के दौरान भी देखने को मिल रही है जब देश के अधिकतर ग़ैर-भाजपा शासित प्रदेशों की सरकारें भाजपा और उसके स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री मोदी पर लगातार निशाना साध रहे हैं.

वहीं प्रधानमंत्री मोदी भी कम नहीं हैं और वे अपने चुनावी भाषणों के अलावा तमाम दूसरे तरीकों से अपने राजनीतिक विरोधियों को जवाब देने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं. क्षेत्रीय दलों के कई नेताओं के घरों और दफ़्तरों में इनकम टैक्स विभाग के छापे मरवाए गए हैं.

यही वजह है कि कांग्रेस के अलावा तमाम दूसरे राजनीतिक दलों के निशाने पर भी भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं.

ऐसा मालूम पड़ता है कि चंद्रशेखर राव का मुख्य लक्ष्य तीसरे मोर्चे को सत्ता में लाना है. वे चाहते हैं कि अधिक से अधिक पार्टियों के समर्थन से तीसरे मोर्चे की सरकार बने.

राजनीतिक विचारक टी.अशोक इस बारे में कहते हैं, ”ऐसा देखा जा रहा है कि अधिकतर क्षेत्रीय दल भाजपा से नाराज़ हैं, ऐसे में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए के साथ तीसरे मोर्चे का गठन संभव हो सकता है.”

वहीं दूसरा नज़रिया यह बतलाता है कि जो प्रयोग कर्नाटक में सरकार गठन के लिए किया गया वहीं राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनाया जाए. कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अधिक सीटें मिली थीं, वहां उन्होंने क्षेत्रीय दल जनता दल सेक्युलर को सरकार बनाने का अवसर दिया और खुद समर्थन में आ गई.

अशोक कहते हैं, ”इसका सीधा सा मतलब है कि तीसरे मोर्चे को यूपीए का समर्थन मिल सकता है. इस मोर्चे की पहली मांग शायद यही होगी.”

कुछ-कुछ इसी तरह के प्रयोग वाली सरकार साल 1996 में भी बनी थी जब संयुक्त मोर्चे का नेतृत्व एचडी देवेगौड़ा ने किया था और कांग्रेस ने उन्हें बाहर से समर्थन दिया था.

हालांकि अशोक इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं करते कि तीसरा मोर्चा एनडीए का समर्थन भी हासिल कर लेगा. वे कहते हैं कि सबकुछ आंकड़ों पर निर्भर करता है, किस पार्टी को कितनी सीट मिलती हैं उसी के आधार पर गठबंधन रूप लेगा.

ऐसा सोचना शायद थोड़ा अतिश्योक्ति होगी क्योंकि तेलंगाना उत्तर प्रदेश या पश्चिम बंगाल या तमिलनाडु जितना बड़ा राज्य नहीं है.

यहां तक कि अगर चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) राज्य की 17 में से जिन 16 सीटों पर चुनाव लड़ रही है उन सभी को जीत भी जाए तब भी यह इतना बड़ा आंकड़ा नहीं है कि केसीआर देश के प्रधानमंत्री बनने का दम रख सकें.

तेलंगाना में एक सीट असदुद्दीन औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम को दी गई है. अशोक कहते हैं, ”जितनी सीटें समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी या ममता बनर्जी की टीएमसी के पास हैं उतनी केसीआर के पास नहीं हैं. यहां तक कि तमिलनाडु में डीएमके के एमके स्टालिन के पास भी इससे ज़्यादा सीटें लड़ने के लिए हैं.”

हालांकि फिर भी चंद्रशेखर राव की ताकत को कमतर नहीं आंका जा सकता. सरकार गठन में वे बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. ठीक जैसे साल 1996 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने निभाई थी.

अगर क्षेत्रीय दलो की सम्मिलित सीटें कांग्रेस और भाजपा से अधिक हो गई तब केसीआर की असली ताकत देखने को मिल सकती है.

हालांकि इस बीच चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देसम पार्टी पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा कि वो राज्य में अपने विरोधी जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वायएसआर कांग्रेस के साथ कैसे तालमेल बैठाते हैं.

अगर नायडू को लोकसभा और विधानसत्र में बहुमत मिल गया तो वो अपने पुराने अनुभवों के दम पर क्षेत्रीय दलों को एकजुट करने में अधिक सक्रियता दिखाते हुए मिल सकते हैं.

कुल मिलाकर फ़िलहाल सभी निगाहें 23 मई के इंतज़ार में रहेंगी, क्योंकि तभी पता चलेगा कि किस दल को कितनी सीटें मिलती हैं और क्षेत्रीय दलों के हाथों में कितनी ताकत पहुंचती है.

इमरान क़ुरैशी
बीबीसी से साभार

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