अगर लालू यादव जेल से बाहर होते?

News Agency : मार्च 2018 की बात है। रात के twelve बजने वाले हैं। राजधानी एक्सप्रेस गया जंक्शन आने ही वाली है। जिन्हें भी पता चल रहा है की लालू जी आ रहे हैं, वो इस समय गया जंक्शन की ओर उनकी एक झलक पाने के लिए बढ रहे हैं। गया जंक्शन लोगों से भर गया है। किसी के हाथ में मिठाई है तो , किसी के हाथ में भुजा-सत्तू । उनके लिए कोई चूरा तो कोई सोनपापड़ी लाया है। पूरा स्टेशन ‘ जेल का फाटक टूटेगा, शेर हमारा छूटेगा’, के नारे से कंपित हो उठता है। इसी का नाम लालू होना है। लालू यादव इस समय रांची के जेल में बंद हैं। बीमार हैं। सत्ता पक्ष उनपर आरोप लगाती रही है की वो जेल से पार्टी की मॉनिटरिंग कर रहे हैं।

अभी जब लोकसभा चुनाव अपने चरम पर है तो इस समय उनसे मिलने की अनुमति तक किसी को नहीं है। तेजस्वी यादव को भी किसी न किसी बहाने से अपने पिता से मिलने नहीं दिया जा रहा है, ऐसा वो अपनी अपनी हर जनसभा में कह रहे हैं। हाल ही में उन्होंने बिहार समेत देश के बहुसंख्यक के नाम अपना संदेश जेल से ही प्रेषित किया है जिसमें वोटरों से देश बचाने की अपील की है। उनकी अपील मार्मिक है जिसमें उनके भावनाओं का विस्फ़ोट भी दिखता है। जब लालू यादव पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब गांधी मैदान में उनका दिया भाषण लोगों को आज भी याद आता है जब उन्होंने कहा था, “जब इंसान ही नहीं रहेगा तो मंदिर में घंटी कौन बजावेगा, जब इंसान ही नहीं रहेगा तो मस्जिद में इबादत कौन करेगा. आम आदमी का जान उतना ही कीमती है जितना नेता-पीएम का, चाहे मेरा राज रहे या जाए, मैं दंगा फैलाने वालों से समझौता नहीं करूंगा।” और उन्होंने इसे सच भी कर दिखाया।

राजनीति के मुश्किल लम्हों में भी उन्होंने भाजपा आरएसएस से कोई समझौता नहीं किया। पूरे देश मे एकमात्र लालू यादव ही ऐसे नेता हैं जिन्होंने खम ठोककर भजपा से अपने दम पर लोहा लिया है। ना झुके, न डरे और न ही कोई परवाह की। लालू यादव जमीन से जुड़े नेता रहे हैं। उनके भदेसपन और शैली में गजब का आकर्षण रहा है। ninety के दशक में बहुजन के लिए लालू एक मसीहा के रूप में उभरे थे। ये लालू ही थे जो खेतों में अपना हेलीकॉप्टर उतार देते थे और गरीब गुरबों के बीच बैठ जाते थे। राह चलते रुक कर बहुजन बच्चों में चॉकलेट बांटने लगते थे। गरीब और स्लम के बच्चों को दमकल के पाइप से नहला देते थे। पहले दलित बहुजन अपने बेटे- बेटियों की शादी सड़क पर ही करते थे।

लालू यादव ने पटना के एलीट समझे जाने वाले पटना क्लब में इनलोगों की एंट्री कराई। यह लालू के लिए भी इतना आसान नहीं था। बिहार जैसे पिछड़े और सामंती मूल्यों वाले राज्य में पहली बार कोई नेता सामंतवादियों को अपने भदेसपन से उसकी भाषा में जवाब दे रहा था। इन सब से लालू बहुजन के दिल मे उतर गए। उन्हें लगा कि कोई है जो उनकी परवाह करता है। कोई है ऊपर जिससे वो बगैर डर के अपनी बातें कर सकता है। हालांकि ऐसा नही है कि लालू यादव के शासनकाल में पूरा प्रशासन बहुत असरदार था, लेकिन वो इतना असरदार तो था ही कि दंगाइयों को काबू में रखे। गरीबों की सुने।

बिहार की पहले से डोलती अर्थव्यवस्था में उत्साहजनक सुधार भी न हुआ। सड़के भी बेहतर न हुई थी। घोटाले भी हुये। लेकिन इसके बावजूद लालू दलितों पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक के दिलों दिमाग मे छाए रहे। उस समय एक कहावत थी- जबतक समोसे में है आलू , बिहार में रहेगा लालू। लालू यादव के करीबी रहे राजद नेता शिवानंद तिवारी बीबीसी से बातचीत करते हुए बताते हैं कि लालू जब-जब मुसीबत में होते हैं उनके कोर वोटर उनके समर्थन में एकजुट हो जाते हैं। ऐसा कई बार हुआ है और इस बार भी ऐसा हो रहा है। 2015 के मोदी लहर में और लालू के पराभव के दिनों में हुये बिहार विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में लालू की राजद ही उभरी थी। आज भी बिहार में दलितों, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक का बड़ा तबका लालू यादव के साथ है। यह हुजूम तब और भी दिखता है जब लालू खुद उनके सामने होते हैं। और यह विपक्ष के लिए ‘एक तो करेला दूजा नीम’ की तरह होता है। इसलिए विपक्ष हर संभव प्रयास कर रही है कि लालू कम से कम लोकसभा चुनाव तक चुनावी गतिविधि से दूर रहें।

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