ख़बरिया चैनलों के एग्ज़िट पोल के मुताबिक नरेंद्र मोदी सरकार वापसी कर रही है. दावा तो बीजेपी गठबंधन को 300 से भी ज्यादा सीटों के मिलने का किया जा रहा है, अब ऐसा होगा या नहीं यह तो 23 मई को होने वाले नतीजों से पता चलेगा.
बावजूद इन सबके यह आम चुनाव 2004 से बहुत मिलता-जुलता है, जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार का चमक-दमक भरा ‘इंडिया शाइनिंग’ अभियान और बहुप्रचारित ‘फ़ील गुड फैक्टर’ धराशायी हो गया था.
तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के करिश्माई नेतृत्व की कलई भी उतर गई थी. एनडीए की सत्ता से बेदखली का जनादेश आया था. त्रिशंकु लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी कांग्रेस ने पहली बार केंद्र में गठबंधन सरकार बनाई थी.
तब मुख्यधारा की मीडिया से जुड़े विश्लेषक ऐसा नहीं मानते थे कि वाजपेयी जाने वाले हैं और एक ऐसी महिला के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव लड़ रही है जो ठीक से हिंदी भी नहीं बोल पाती, वो कांग्रेस को गठबंधन सरकार बनाने लायक हालत में ले आएगी.
इस बार भी ज़्यादातर विश्लेषकों मानना है कि देश में एक बार फिर मोदी सरकार बनने जा रही है. ऐसा होगा या नहीं, यह तो नतीजों से स्पष्ट होगा, मगर अभी इतना तो कहा ही जा सकता है कि 2004 और 2019 के आम चुनाव में कई समानताएं हैं.
1999 में तेरहवीं लोकसभा के लिए आम चुनाव सितंबर-अक्टूबर के दौरान हुए थे. इस लिहाज से 14वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव 2004 में सितंबर-अक्टूबर में होने थे लेकिन भाजपा और एनडीए के रणनीतिकारों ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को निर्धारित समय से पांच महीने पहले ही चुनाव कराने की सलाह दे डाली थी.
वाजपेयी को समझाया गया था कि ‘फ़ील गुड फैक्टर’ और ‘इंडिया शाइनिंग’ के प्रचार अभियान की मदद से एनडीए सत्ता विरोधी लहर को बेअसर कर देगा और स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लेगा.
इस सोच का आधार यह था कि एनडीए शासन के दौरान अर्थव्यवस्था मे लगातार वृद्धि दिखाई दी थी. भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार भी बेहतर हालत में था. उसमें 100 अरब डॉलर से अधिक राशि जमा थी, यह उस समय दुनिया मे सातवां सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार था और भारत के लिए एक रिकॉर्ड भी.
सेवा क्षेत्र में भी बड़ी संख्या में नौकरियां पैदा हुई थीं. इसी सोच के बूते समय से पूर्व चुनाव कराने की घोषणा कर दी गई, 20 अप्रैल से 10 मई 2004 के बीच 4 चरणों में लोकसभा के लिए मतदान हुआ.
1990 के दशक में हुए सभी लोकसभा चुनावों की तुलना में 21वीं सदी के इस पहले आम चुनाव के दौरान दो व्यक्तित्वों (वाजपेयी और सोनिया गांधी) का टकराव अधिक देखा गया, जैसा कि इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के बीच रहा.
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए ने उस चुनाव में अपनी सरकार के कामकाज को तो लोगों के सामने पेश किया, लेकिन उससे भी ज्यादा जोर-शोर से उसने सोनिया गांधी के विदेशी मूल को अपने चुनावी अभियान का मुद्दा बनाया.ठीक उसी तरह जैसे इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी ने पूरे नेहरू-गांधी परिवार को अपने निशाने पर रखा.
यहां तक कि चुनाव के बीच बीजेपी सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी के ज़रिए राहुल गांधी की नागरिकता का मुद्दा दोबारा उछालने की कोशिश की गई जिसे सुप्रीम कोर्ट कई साल पहले निबटा चुकी थी.
2004 में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने सूखे से निबटने में सरकार की नाकामी, किसानों की आत्महत्या, महंगाई आदि के साथ-साथ 2002 के गुजरात के नरसंहार को एनडीए के सरकार के खिलाफ़ मुद्दा बनाया था. इस बार विपक्ष की ओर से नोटबंदी और जीएसटी की विफलता, बेरोजगारी, किसानों की बदहाली, रफ़ाल विमान सौदा, सामाजिक तनाव, संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन जैसे मुद्दों पर सरकार को घेरा गया.
आज की तरह उस समय भी न तो विपक्ष एकजुट था और न ही कोई तीसरा ठोस विकल्प मौजूद था. ज़्यादातर क्षेत्रीय दल तब भी भाजपा के साथ एनडीए के कुनबे में शामिल थे. हालांकि करुणानिधि की डीएमके और रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के मुद्दे पर एनडीए से अलग हो चुकी थी.
दूसरी तरफ़, कांग्रेस की अगुवाई में भी राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी मोर्चा बनाने की कोशिश तो हुई थी, लेकिन यह कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई थी. हालांकि कुछ राज्यों में स्थानीय स्तर पर कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच चुनावी तालमेल हो गया था.
बिहार में उसने लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल और रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी के साथ, तमिलनाडु में डीएमके और आंध्र प्रदेश तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. यह पहला अवसर था जब कांग्रेस ने अन्य दलों के साथ इस तरह तालमेल करके संसदीय चुनाव लड़ा था.
वामपंथी दलों, ख़ास तौर पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) ने अपने प्रभाव वाले राज्यों पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में अपने दम पर कांग्रेस और एनडीए दोनों का सामना करते हुए चुनाव लड़ा.
पंजाब और आंध्र प्रदेश में उन्होंने कांग्रेस के साथ सीटों का तालमेल किया. तमिलनाडु में वो द्रमुक के नेतृत्व में हुए तालमेल में शामिल थे, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने इस बार की तरह उस बार भी कांग्रेस और भाजपा में से किसी के साथ न जाते हुए अकेले ही चुनाव लड़ा था.
2004 में अपनी तमाम रणनीतियों के बावजूद एनडीए का नेतृत्व और उसके चुनावी व्यूह रचनाकार सत्ता विरोधी लहर को थामने में नाकाम रहे.
गुजरात के नरसंहार का दाग तो उसके दामन पर था ही, उसे सरकारी कर्मचारियों की पेंशन बंद करने, श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर मजदूर और कर्मचारी विरोधी कानूनों को लागू करने और मुनाफ़ा कमाने वाले सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने जैसे अपने जनविरोधी फैसलों का भी ख़ामियाजा भुगतना पड़ा.अटल बिहारी वाजपेयी का करिश्माई नेतृत्व भी काम नहीं आया.
13 मई 2004 को आए चुनाव नतीजों में भाजपा और एनडीए की हार हुई हालांकि किसी भी पार्टी या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हुआ, लेकिन कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. उसे इस चुनाव में 141 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा को 138 सीटें ही हासिल हो सकीं.
इस चुनाव में इन दोनों ही पार्टियों को मिले वोटों के प्रतिशत में पिछले चुनाव के मुकाबले समान रूप से 1.60 प्रतिशत की गिरावट आई. कांग्रेस को कुल करीब पौने 14 करोड़ वोट मिले यानी पौने 27 प्रतिशत वोट मिले जबकि भाजपा को मिले 13 करोड़ से कुछ कम वोट जो 22 प्रतिशत के करीब रहा.
कांग्रेस अपने सहयोगी दलों वाम मोर्चा, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बाहरी समर्थन के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई. कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को 218 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों को महज 181 सीटें.
कांग्रेस ने चुनाव के बाद अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर औपचारिक रूप से संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का गठन किया और लोकसभा में कुल 335 सदस्यों का समर्थन जुटा कर सरकार बनाई. यह पहला अवसर था, जब कांग्रेस ने केंद्र में गठबंधन सरकार बनाई.
चुनाव से पहले कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी को ही प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा माना जा रहा था. चुनाव नतीजों के बाद राष्ट्रपति ने भी सोनिया को ही सरकार बनाने का न्योता दिया लेकिन सोनिया ने अप्रत्याशित रूप से प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर सभी को हैरान कर दिया.
उन्होंने इस पद के लिए डॉक्टर मनमोहन सिह का नाम प्रस्तावित किया. कांग्रेस और यूपीए के अन्य दलों ने भी सोनिया गांधी की इच्छा का सम्मान करते हुए मनमोहन सिंह को अपना नेता चुना और इस तरह वे देश के 14वें प्रधानमंत्री बने थे.
न तो यह 2004 वाला दौर है न ही मोदी वाजपेयी जैसे नेता हैं जो राजधर्म निभाने की बात करते थे. वाजपेयी की तुलना में नरेंद्र मोदी ‘ग्लैडिएटर शैली’ में लड़ते हैं जबकि वाजपेयी एक मत से सरकार गिर जाने के बाद भी अशालीन नहीं हुए थे.
सोशल मीडिया और मुख्यधारा की मीडिया कुछ ज़्यादा ही कुशल प्रबंधन, अपार आर्थिक संसाधन और पहले के मुकाबले अधिक चुस्त कॉर्पोरेट स्टाइल का मैनेजमेंट, पन्ना प्रमुख से लेकर हर बूथ का माइक्रो मैनेजमेंट, यह सब पहले नहीं था. अब है.
नरेंद्र मोदी ने आम जनता को शॉर्ट टर्म तकलीफ़ और दीर्घकालीन अंधकार में डालने वाले नोटबंदी जैसे फ़ैसले किए, उसके बावजूद यूपी का चुनाव जीता और जीएसटी से त्रस्त गुजरात में भी सत्ता में वापस लौट आए. यह कारनामा शायद वाजपेयी-आडवाणी नहीं कर पाते क्योंकि वे मर्यादाओं का लिहाज़ करने में यकीन रखते थे.
आख़िरी चरण का मतदान खत्म होने के बाद केदारनाथ में कई कैमरों के सामने लाल कालीन पर चलकर, गुफा में ध्यान लगाने वाले मोदी की तुलना वाजपेयी से बिल्कुल नहीं की जा सकती.
2004 और 2019 की स्थितियों में बहुत सारी समानताएं हैं लेकिन खिलाड़ी बिल्कुल अलग हैं, इसका रुझान तो एग्ज़िट पोल के नतीजों से भी झलक रहा है. हालांकि अंतिम परिणाम तो 23 मई को ही पता चलेगा.