क्या दूसरी बार भी चलेगा नरेंद्र मोदी का तिलिस्म?

Will Narendra Modi's Tselism run for the second time?

फ़रवरी की एक सर्द रात को श्रीनगर के आम लोग घने काले आसमान में उड़ते जेट फ़ाइटर की आवाज़ से जग गए थे. कई लोगों को ये आशंका हुई कि युद्ध महज एक धमाके भर की दूरी पर रह गया है. भारत प्रशासित कश्मीर के लोग अपने यहां खाने-पीने का सामान जमा करने लगे. पेट्रोल पंप के सामने लोगों की लाइन लगने लगी तो पेट्रोल पंप पर पेट्रोल कम पड़ने लगा.

अस्पताल के डॉक्टरों को दवाइयों का भंडार रखने को कहा गया. घबराये हुए लोग अपने बगीचों में बंकर बनाने की सोचने लगे थे. एक बड़े नेता को अब इस बात पर पछतावा हो रहा है कि उन्होंने एयरपोर्ट के पास घर खरीद लिया. उन्हें अब ये अच्छा विचार नहीं लग रहा है.

कुछ ही दिनों में भारत के लड़ाकू विमान मिराज 2000 पाकिस्तान की सीमा में दाखिल तक हो गए. भारत ने कहा कि उसके जेट विमानों ने लेज़र गाइडेड बमों से ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह के बालाकोट में चरमपंथी शिविरों को निशाना बनाया.

साल 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद ये पहला मौका था जब भारत ने नियंत्रण रेखा के उस पार जाकर हवाई हमला किया.

समझदारी यही कहती है कि परमाणु हथियार से संपन्न पड़ोसियों को सोच समझकर कदम उठाना चाहिए. लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस नीति को अब खारिज कर दिया है.

इस हमले की वाहवाही करते हुए 68 वर्षीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ये हमला पुलवामा में फ़रवरी में ही भारतीय सुरक्षा बल के जवानों पर हुए घातक हमले का वाजिब और मुंहतोड़ जवाब है.

मोदी ने लोगों से ये भी कहा कि उन्होंने इस हमले के लिए सेना को खुली छूट दी थी. एक सभा में तो उन्होंने ये भी कहा, “लोगों का खून उबल रहा है.” एक दूसरी सभा में उन्होंने कहा, “मेरे दिल में भी वही आग जल रही है जो आपके अंदर जल रही है.”

दरअसल, कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच लंबे समय से आपसी दुश्मनी का युद्ध क्षेत्र रहा है. दोनों पक्ष इस खूबसूरत से मुस्लिम बहुल इलाके पर अपना अपना दावा जताते हैं.

लेकिन दोनों ही देशों के पास इसके कुछ ही हिस्सों पर नियंत्रण है. दोनों ही पक्ष एक-दूसरे से ख़तरा भी महसूस करते हैं. दोनों देशों के बीच दो युद्ध और इस इलाके में एक झड़प हो चुकी है.

लेकिन इस बार भारत के हमले के पीछे पर्याप्त वजह मानी जा सकती है. इसी साल 14 फरवरी को भारत के अर्धसैनिक बलों के 78 बसों के काफिले को विस्फोटकों से भरी एक मिनी वैन ने निशाना बनाया.

भारी सुरक्षा के बीच हाइवे पर श्रीनगर से 19 किलोमीटर दूर हुए इस हमले में 46 जवानों की मौत हुई. ये इस इलाके में दशकों बाद भारत के सुरक्षा बलों पर सबसे ख़तरनाक हमला था. पाकिस्तान से संचालित चरमपंथी समूह ‘जैश-ए-मोहम्मद’ ने इस हमले के बाद जिम्मेदारी ली थी.

ऐसे में मोदी की प्रतिक्रिया को इस हमले के जवाब के तौर पर देखा गया. प्रधानमंत्री की भारतीय जनता पार्टी ने हमेशा ये कहा है कि ‘राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय एकता’ उनके मूल तत्वों में शामिल है.

मोदी ने उस भाव में अपनी ताकत और अचल राष्ट्रवाद से नया उत्साह पैदा किया है. मोदी समर्थकों का मानना है कि वे अपनी बातों पर खरे उतरे और पाकिस्तान को करारा जवाब दिया है.

हालांकि सच्चाई इतनी सरल भी नहीं है, जितनी दिख रही है. हवाई हमले के 24 घंटे के भीतर पाकिस्तान ने भारत के एक लड़ाकू जेट विमान को अपने शासन वाले कश्मीर में मार गिराया और एक भारतीय पायलट को गिरफ़्तार भी कर लिया.

इसके बाद दोनों देशों पर तनाव कम करने लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ता गया जिससे पाकिस्तान ने भारतीय पायलट को रिहा करने की पेशकश की. एक दिन बाद भारतीय पायलट स्वदेश लौट आए.

वहीं मोदी ने इसे अपने पक्ष में प्रचारित करने का कोई मौका नहीं गंवाया. उन्होंने ऐलान कर दिया, “देश सुरक्षित हाथों में है.” ये मोदी के लिए किसी जीत से कम साबित नहीं हुआ और इसकी कई वजहें भी सामने हैं.

मोदी को पसंद करने वाली रेटिंग पिछले कुछ समय से राज्यों में चुनाव हारने के चलते गिरावट की ओर थी. उसमें तेजी से सुधार देखने को मिला.

मोदी साल 2014 में देश के प्रधानमंत्री बने, उन्होंने अपने नेतृत्व में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की बात करने वाली बीजेपी को शानदार जीत दिलाई. साल 1984 के बाद ये पहला मौका था जब किसी पार्टी को आम चुनावों में बहुमत हासिल हुआ था.

इतने शानदार बहुमत के बावजूद मोदी के कामकाज को लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाएं दिख रही हैं. कुछ मामलों में फ़ायदा हुआ है, ज़्यादा सड़कें बन गई हैं, ग्रामीण विकास हुआ है, लोगों को सस्ती रसोई गैस दी गई है, गांवों में शौचालय बन गए हैं. एक समान बिक्री कर यानी जीएसटी लागू हो गया है.

इतना ही नहीं पचास करोड़ परिवारों को स्वास्थ्य बीमा देने के लक्ष्य के साथ स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू हुई है और दिवालिया को लेकर नया कानून भी बना है. लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था ठीक से काम नहीं कर रही है.

खेती किसानी कर रहे लोगों को अपने फसल का मामूली दाम मिल रहा है. याद रहे कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा खेतीबाड़ी से जुड़ा हुआ है. देश में बेरोज़गारी बढ़ रही है और विवादास्पद नोटबंदी से ग़रीबों को काफी नुक़सान हुआ है.

वहीं, सामाजिक तौर पर भारतीय जनता पार्टी के उग्र हिंदू राष्ट्रवाद से देश में ध्रुवीकरण बढ़ा है और अल्पसंख्यक घबराए हुए हैं. इसके साथ-साथ भारत फ़ेक न्यूज़ की महामारी की चपेट भी आ गया है.

अलग राय रखने वालों को राष्ट्रद्रोही बताने और इस आरोप में जेल भेजने तक का चलन बढ़ा है. इन सबके बीच नरेंद्र मोदी एक निर्णायक आम चुनाव का सामना कर रहे हैं.

कुछ मामलों में ये एक तरह से मोदी पर जनमत संग्रह होने वाला है. कई लोगों का मानना है कि मोदी भारत की छवि को इस रूप में ढालना चाहते हैं- ‘राष्ट्रवादी’, ‘सामाजिक तौर पर संकीर्ण’ और ‘खुले तौर पर देशभक्त.’

बहरहाल 11 अप्रैल से 19 मई तक, क़रीब 40 दिनों तक चलने वाले मैराथन चुनाव में तकरीबन 90 करोड़ लोग अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे.

ये भी कहा जा रहा है कि ये देश का सबसे बड़ा, सबसे लंबे समय तक चलने वाला और सबसे महंगा चुनाव साबित होने वाला है. लेकिन सवाल वही है, जैसा कुछ लोग पूछ भी रहे हैं, “क्या ये चुनाव भारत की आत्मा को बचाने की लड़ाई है?”

गुजरात के वडोदरा की गलियों में तेज धूप के बीच राजनबेन धनंजय भट्ट का चुनावी अभियान जोरों पर दिखा. 56 साल की भट्ट यहां बीजेपी की उम्मीदवार हैं. वे काली चमचमाती जीप की छत से बाहर निकलकर हाथ जोड़े लोगों का अभिवादन कर रही हैं.

उनका स्वागत करने के लिए बड़ी संख्या में पुरुष, महिलाएं और बच्चे इकट्ठा हुए हैं. ये लोग उन्हें माला पहना रहे हैं, आशीर्वाद दे रहे हैं और घर में बनी मिठाइयां और जूस भी ऑफर कर रहे हैं.

जब भट्ट जीत का निशान बनाती हैं तो गली के मकानों और छतों से उन्हें उत्साहवर्धक जवाब मिलता है. पूरी गली भगवा रंग में डूबी नजर आती है. भगवा साफा बांधे, टोपी पहने, रुमाल बांधे, गमछा लगाए मोटरसाइकिल पर सवार युवा भट्ट की रैली के आगे-आगे चल रहे हैं.

एक ट्रक भी साथ में था जिसमें डीजे तेज धुनों पर संगीत बजा रहा था और आतिशबाज़ी भी देखने को मिली. कोलाहल के इस उत्सव में हर ओर से एक ही आवाज़ गूंजती है.

पार्टी के युवा समर्थक उन्मादी एक स्वर से “मोदी, मोदी, मोदी” के नारे लगा रहे हैं. ये नारे देखते-देखते बीजेपी के 2019 के चुनावी अभियान की गीत से मिल जाते हैं, ये गीत है, “मोदी है तो मुमकिन है.”

मोदी का चेहरा लोगों की टीशर्ट, टोपी, होर्डिंग और कार पर सब जगह दिखता है. मोदी खुद तो मौजूद नहीं हैं, लेकिन हर तरफ वे नजर आते हैं.

यहां के बीजेपी कार्यकर्ता इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं हैं कि वे यहां चुनाव प्रचार करने का वक्त निकाल पाएंगे या नहीं.

खुद कभी नहीं हार मानने वाली भट्ट कहती हैं, “मोदी जी यहां से चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. लेकिन उनकी छवि लार्जर दैन लाइफ़ वाली है, जो लोग मुझे वोट दे रहे हैं, वे लोग मोदी जी को वोट दे रहे हैं.”

साल 2014 में मोदी वडोदरा संसदीय सीट से 5,70,128 मतों के विशाल अंतर से जीते थे. बाद में उन्होंने उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट से प्रतिनिधित्व किया और वडोदरा सीट खाली कर दी थी.

कुछ महीने बाद हुए उपचुनाव में पूर्व नगरपालिका पार्षद और डिप्टी मेयर रहीं भट्ट पार्टी के उम्मीदवार को तौर पर चुनाव जीतने में कामयाब हुईं.इस बार वह दूसरी बार संसद पहुंचने की कोशिश कर रही हैं. बीजेपी के गढ़ में उनके सामने कोई चुनौती भी नजर नहीं आती.

बीजेपी यहां 1996 से लगातार चुनाव जीतती आई है और इन दिनों तो विपक्षी उम्मीदवार कहीं नजर भी नहीं आ रहे हैं.भट्ट बताती हैं, “ये चुनाव मेरी जीत का नहीं है, बल्कि जीत के अंतर का है. मेरा लक्ष्य इस सीट पर कम से कम छह लाख वोट से जीतकर गुजरात के लिए नया रिकॉर्ड बनाना है.”

भट्ट के मुताबिक, “हमलोग जो भी यहां करते हैं वो नरेंद्र भाई को समर्पित कर देते हैं. लोग यहां उन्हें ही वोट देते हैं. गुजरात उनकी जन्मभूमि है और वडोदरा उनका कर्मक्षेत्र रहा है.”

बहरहाल, दिलचस्प ये है कि भारत के सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले नरेंद्र मोदी के बारे में बेहद कम जानकारी मौजूद है. वडोदरा से यही कोई 200 किलोमीटर दूर देहाती इलाके वडनगर में एक चाय वाले के परिवार में मोदी का जन्म हुआ.

मोदी की जीवनी लिखने वाले एक लेखक के मुताबिक़ मोदी का अपने परिवार या फिर वडनगर के दोस्तों के साथ कोई खास रिश्ता नहीं था, अपनी युवावस्था में तो उन्होंने इस इलाके को लगभग भुला ही दिया था.

मोदी जब किशोर ही थे, तब परंपरागत तौर पर उनकी शादी हुई थी. इस सच्चाई का पता साल 2014 में उस वक्त चला जब उन्होंने चुनाव के लिए अपना नोमिनेशन दाखिल किया था. वे अपनी पत्नी जसोदाबेन के साथ केवल तीन साल तक रहे.

जीवन के शुरुआती दिनों में ही मोदी दक्षिणपंथी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़ गए थे. संघ को बीजेपी का मातृ संगठन माना जाता है. थोड़े ही समय में मोदी संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन 1925 में हुआ था. इस संगठन का ध्येय भारत की बहुसंख्यक हिंदू आबादी की एकता और सुरक्षा है.संघ खुद को प्राथमिक तौर पर राजनीतिक संगठन के तौर पर पेश भी नहीं करता, इसका मिशन स्टेटमेंट सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर जोर देता है.

ब्रिटिश राज के जमाने से ही संघ हिंदू राष्ट्रवाद की वकालत करने लगा. साल 1948 में महात्मा गांधी की हत्या संघ के ही एक पूर्व सदस्य ने की थी.

आज आरएसएस के छह हज़ार से ज्यादा पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं. भारत भर में फैली 80 हज़ार शाखाओं में करीब 20 लाख लोग शामिल होते हैं.

बीजेपी, आरएसएस की राजनीतिक इकाई है. बीजेपी का विश्वास हिंदुत्व में हैं, ये विचारधारा हिंदुओं की श्रेष्ठता और हिंदू रीति रिवाजों के मुताबिक़ जीवनशैली को स्थापित करना चाहती है.

बीजेपी कार्यकर्ताओं के मुताबिक़ आरएसएस के अपने शुरुआती दिनों में मोदी वडोदरा में ज्यादा वक्त रहे थे और संघ की ओर से मिले घर में लोगों के साथ कमरा शेयर करते थे.

पार्टी के एक कार्यकर्ता ने बताया, “वे कभी कभार बाइक से बाहर जाते थे और संघ के कैडरों से मिलते थे. वे यहां की हर गली के बारे में जानते हैं और इस शहर में अभी भी उनके दोस्त मौजूद हैं.”

साल 2014 में देश का प्रधानमंत्री बनने से पहले 13 साल तक मोदी गुजरात के बेहद प्रभावी और बिज़नेस फ्रेंडली मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए थे.उन्हें गुजरात को आर्थिक तौर पर सशक्त बनाने का श्रेय दिया जाता है, हालांकि उनके मोदीनॉमिक्स को लेकर अर्थशास्त्रियों में काफी बहस होती रही है.

इस दौरान मोदी पर ये भी आरोप लगा कि साल 2002 के सांप्रदायिक दंगों पर काबू पाने के लिए उन्होंने पर्याप्त कदम नहीं उठाए. इस दंगे में 1000 से ज्यादा लोग मारे गए थे. मरने वालों में ज्यादातर मुसलमान थे.

ये हिंसा गोधरा में एक ट्रेन के डिब्बे में आग लगाए जाने के बाद भड़की थी, इस आग में 60 हिंदू तीर्थ यात्रियों की मौत हो गई थी. ट्रेन के डिब्बे में आग लगाने का आरोप मुस्लिम समुदाय पर लगाया गया था.

मोदी को बीजेपी ने 2013 में चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाया और उनके नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने का फैसला लिया. एक साल बाद वे देश के प्रधानमंत्री बन गए. उनके समर्थक उन्हें बेहद परिश्रमी नेता मानते हैं.

समर्थकों का कहना है कि वे अल्पसंख्यकों को संतुष्ट करने के लिए कोई उल्टा-सीधा फैसला नहीं कर सकते. हालांकि ये जानना ज़रूरी है कि भारत में करीब 17 करोड़ मुस्लिम आबादी है.

मोदी के समर्थक ये भी बताते हैं कि वे सामान्य परिवार से निकलकर बने सेल्फमेड शख्सियत हैं. ऐसा कहते हुए वे मोदी की तुलना सुविधासंपन्न नेहरू-गांधी परिवार से करते हैं.

मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की कमान इसी परिवार के हाथों में रही है और परिवार ने करीब 50 साल तक देश पर शासन भी किया है.

बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, “मोदी यहां बीजेपी से ज्यादा लोकप्रिय हैं. वे चमत्कार की तरह हैं. वे गुजरात के सर्वाधिक लोकप्रिय मुख्यमंत्री रहे और अब वे भारत के सबसे बड़े नेता हैं. गुजरातियों को उन पर गर्व है.”

वडोदरा के एमएस यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर अमित ढोलकिया बताते हैं कि गुजरात में हिंदुत्व की राजनीति का लंबा इतिहास रहा है और इससे मोदी को मदद मिली है.

लेकिन वे ये भी कहते हैं, “हिंदुओं में अलग-अलग वर्गों के चलते हिंदुत्व की राजनीति की अपनी सीमा है और मोदी इसको समझते हैं. गुजरात में भी, बीजेपी को कभी 48 फीसदी से ज्यादा वोट नहीं मिले. यही वजह है कि वे अब राष्ट्रवाद और विकास की बात ज्यादा करने लगे हैं. हिंदुत्व अभियान में फिलर की तरह इस्तेमाल हो रहा है.”

अमित ढोलकिया ये भी कहते हैं, “एक विचारक के बनिस्बत मोदी एक व्यावहारिक नेता ज़्यादा हैं. उन्हें सत्ता पसंद है और यहां के लोग उन्हें पसंद करते हैं.”

नवंबर, 2016 की शाम अंबरीश नाग बिश्वास काम पर से घर लौट रहे थे. कोलकाता के पूर्वी हिस्से से वो अपने घर पहुंच पाते उससे पहले उनके मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी.

उनके एक दोस्त का फोन था जो बहुत घबराया हुआ लग रहा था. उसने तेज आवाज़ में कहा, “नरेंद्र मोदी टीवी पर हैं और वे हम लोगों से हमारा पैसा ले रहे हैं.” बिश्वास ने उनसे पूछा, “क्या मतलब है तुम्हारा?” तब उनके दोस्त ने थोड़ी सांस लेकर पूरी बात बताई.

प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की थी कि उनकी सरकार बड़े मूल्यों के नोट की वैधता ख़त्म करने जा रही है, अगले चार घंटे के बाद 500 और 1000 रुपये के नोट के चलन पर पाबंदी लग जाएगी.

500 और 1000 रुपये के नोटों का मूल्य भारतीय अर्थव्यवस्था में जितने नोट चलन में थे, उनमें 80 फीसदी से भी ज्यादा था.

मोदी ने ये भी बताया कि इस कठोर कदम का उद्देश्य भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है क्योंकि लोगों के पास अरबों रुपया जमा है जो घोषित नहीं है, अब उन्हें नए नोट लेने के लिए बैंकों में जमा करना होगा.

ये भी कहा गया कि इस कदम से जाली नोटों की समस्या से छुटकारा मिलेगा. साथ में भारतीय अर्थव्यवस्था की नकदी पर निर्भरता कम होगी.
उस रात बिश्वास को नींद नहीं आई.

एक डेयरी फर्म में काम करने वाले बिश्वास के पास अपातकालीन जरूरतों के लिए घर में 24 हजार रुपये रखे हुए थे. अब उन्हें बैंक जाकर अमान्य करार दिए गए इन नोटों को जमा कराना था और नए नोट लेने थे.

उनकी पत्नी रिंकू घरेलू महिला थीं और बेटी साबोरनी हाई स्कूल में पढ़ती थीं. अगली सुबह जब बिश्वास बैंक पहुंचे, तब बैंक बंद था. बैंक के बाहर भीड़ जमा थी और किसी को मालूम नहीं था कि कितने रुपये बदले जाएंगे.

बिश्वास पूरे दिन कतार में खड़े रहे लेकिन उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली. अगले दिन वे एक दूसरे बैंक में गए, जहां उनका खाता था लेकिन वहां और भी लंबी कतार थी.

लंबी कतार देखकर वे पहले वाले बैंक में ही आ गए. अचानक से उन्होंने हलचल सुनी. छड़ी और नकद और बैंक के कागज़ वाले प्लास्टिक बैग के साथ कतार में खड़े एक बुजुर्ग आदमी गिर गए थे.

चिलचिलाती धूप में घंटों खड़े होने और थकावट के चलते ऐसा हुआ था.
बिश्वास ने आगे बढ़कर उस आदमी को उठाया और कार में बिठाकर अस्पताल तक ले गए. दो घंटे बाद भी बुजुर्ग को होश नहीं आया.

बिश्वास बताते हैं, “मैं दो दिन काम पर नहीं जा पाया था, कतार में खड़े होने के बाद भी मैं अपने नोट नहीं बदलवा पाया था.” ऐसे में बिश्वास ने अपने बॉस को फोन करके एक और दिन की छुट्टी मांगी.

बिना खाए पिए, आठ घंटे तक कतार में रहने के बाद बिश्वास पैसा तो बैंक में जमा करा पाए लेकिन उन्हें वापस महज दो हजार रुपये ही मिल पाए. बैकों में तेजी से नकद ख़त्म हो रहा था.

बिश्वास बताते हैं, “ये विचित्र स्थिति थी. केवल हमारे जैसे लोग ही नकद के लिए कतारों में लगे थे. पैसे वाले प्रभावी लोग कहां थे, जिनके बारे में कहा जा रहा था कि काफी पैसा जमा कर रखा है.”

मोदी की घोषणा के बाद देश में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई. शहरों में हर तरफ घबराए लोग नजर आने लगे जो बैंकों में अपना पैसा जमा करा कर, कम मूल्य के नोटों में पैसे निकाल रहे थे.

बढ़ती मांग के सामने कैश मशीन खाली पड़ने लगे थे. ऐसी घटनाएं भी देखने को मिलीं जिसमें लोगों ने अवैध पैसों को जला दिया और लोग अस्पताल और अंतिम संस्कार तक का पैसा नहीं जुटा पाए.

एक आदमी तो कथित तौर पर दिल्ली के एक मोबाइल स्टोर में तीस लाख रुपये के नोट लेकर पहुंच गया और वह पूरे पैसे से आईफ़ोन का स्टॉक खरीदना चाहता था.

बिहार के नेता के बारे में खबर आई कि उन्होंने दो करोड़ रुपये खर्च करके सोने के आभूषण बनवा लिए. डेंगू के एक मरीज ने अपने अस्पताल का बिल सिक्कों के ढेर से चुकाया.

इन सबके चलते डिस्काउंट स्कैम भी सामने आया जब लोग ने अवैध करार दिए नोट को उससे कम मूल्य पर बदलने की पेशकश करते हुए नोटों को बदला.

इस दौरान बैंकों की लाइन में खड़े 100 से ज्यादा लोगों की हार्ट अटैक से मौत की खबर भी सामने आई. बिश्वास और उन जैसे ढेरों लोगों के सामने महीनों तक हालात ऐसे ही बने रहे.

बिश्वास बताते हैं, “दफ्तर में हमेशा झूठ बोलता था, ताकि बाहर निकलकर बैंक से अपने पैसे निकाल सकूं. काम खत्म होने के बाद, मैं कैश के लिए बाहर भी निकलता था.”

“बाइक लेकर ग्रामीण इलाकों तक में जाता था ताकि वहां के एटीएम में कैश मिल सके. नकद निकालने के लिए तो मैं दिन भर में 12-12 एटीएम मशीन के चक्कर लगा लेता था.”

“एक डेंटल कॉलेज में जाने के लिए मुझे गार्ड को रिश्वत तक देना पड़ा, क्योंकि मैंने सुना था कि वहां मौजूद एटीएम का कम इस्तेमाल होता है, लेकिन वहां भी एटीएम से कैश कत्म हो चुका था.”

मोदी ने अपनी अपील में लोगों से महज 50 दिन तक तकलीफ उठाने की बात कही थी. उन्होंने कहा था, “50 दिन, केवल 50 दिन मुझे दे दीजिए. मैं वादा करता हूं कि 30 दिसंबर के बाद आपको वो भारत दिखाउंगा जिसकी आप कल्पना किया करते हैं.”

साल 2017 के आने के बाद भी बैंकों के पास इतना कैश नहीं पहुंच पा रहा था कि लोगों की मांग को पूरा किया जा सके. स्थिति सामान्य होने में महीनों लग गए.

एक साल बाद विश्लेषकों ने बताया कि मोदी का नोटबंदी का दांव पूरी तरह से नाकाम रहा. इसने भारत की नकदी पर चलने वाली अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को काफी नुक़सान पहुंचाया.

छोटी छोटी फैक्ट्रियां बंद हो गईं, गरीब मजदूरों का रोजगार छिन गया. एक विश्लेषक ने बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था में नोटबंदी के फैसले को ‘रेसिंग कार के टायर को पंक्चर करने’ जैसा उदाहरण बताया.

मोदी के एक आर्थिक सलाहकार के मुताबिक़ नोटबंदी का फैसला बड़े पैमाने पर खतरनाक मौद्रिक झटका था.

अमरीका स्थित नेशनल ब्यूरो ऑफ़ इकॉनमिक रिसर्च के मुताबिक 2016 के अंतिम तिमाही में भारत की आर्थिक विकास दर में कम से कम दो फीसदी की कमी हुई थी.

भारतीय रिजर्व बैंक ने खुद माना कि नोटबंदी के बाद 99 प्रतिशत से ज्यादा नोट बैंकों में लौट आए हैं. इसका मतलब यही है कि या तो बहुत ज्यादा अघोषित संपत्ति लोगों के पास नहीं थी या फिर लोगों ने अपने पैसे को सफेद करने का जरिया निकाल लिया. नोटबंदी के दौरान जाली नोट भी मामूली संख्या में ही पकड़ में आए.

अर्थव्यवस्था की सफ़ाई करने के लिए मोदी ने जो फैसला लिया, उसका फायदा कम दिखा और लोगों को तकलीफ़ ज्यादा हुई. इस फैसले के बाद मार्च, 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हुए.

कई लोगों ने माना कि ये नोटबंदी पर लोगों का फैसला होगा और बीजेपी को नुक़सान उठाना पड़ेगा. लेकिन ऐसा मानने वाले गलत साबित हुए. बीजेपी ने बीते 40 साल में अपनी सबसे जोरदार जीत हासिल की. बीजेपी के इस प्रदर्शन पर बहुत से लोगों को कोई अचरज भी नहीं हुआ.

उत्तर प्रदेश के युवा छात्र ने बताया, “ग़ैरबराबरी वाले और बंटे हुए समाज में, ग़रीब हमेशा तकलीफ़ उठाने के लिए तैयार हो जाएंगे अगर उन्हें इस बात का भरोसा दिलाया जाए कि अमीरों को नुक़सान होने वाला है. उन लोगों को ये समझने में काफी समय लग गया कि वे गलत थे.”

दूसरे शब्दों में कहें तो नोटबंदी एक तरह से भारत के आम लोगों के लिए परपीड़ा में आनंद लेने जैसा क्षण था. लेकिन कोलकाता में बिश्वास प्रधानमंत्री को माफ़ करने के मूड में नहीं हैं.

वे बताते हैं, “अपनी मेहनत से कमाए गए पैसे को लेने के लिए जो अपमान मुझे झेलना पड़ा है, उस पर यकीन करना मुश्किल है. ये सब हुआ है क्योंकि हमने मोदी पर भरोसा किया था.”

“जब उन्होंने कहा कि वे भ्रष्ट अमीरों को सबक सिखाना चाहते हैं तो हम लोगों ने उनपर यकीन किया. हमने मान लिया कि बेईमानों को सज़ा दिलाने के लिए आम लोगों को भी थोड़ी बहुत कुर्बानी देनी चाहिए.”

“लेकिन इसके बाद मेरा भरोसा मोदी पर नहीं रहा. उन्होंने लोगों से लगातार झूठ बोला है. ये प्रधानमंत्री पद के अनुकूल आचरण नहीं है.”

राजस्थान अंतरराष्ट्रीय पर्यटन का केंद्र है. भव्य किले, रंग बिरंगे बाजार, कलात्मक ढंग से सजे होटल और रेगिस्तान में ऊंट की सवारी यहां की खासियत हैं. लेकिन अब ये राज्य हिंदू राष्ट्रवाद के नैरेटिव में हिंसक गोरक्षकों का अड्डा बनता जा रहा है.

राजस्थान भारत में पर्यटन का एक महत्वपूर्ण केंद्र है

बहुसंख्यक हिंदू आबादी में बहुत से लोग गाय को पवित्र मानकर उसकी पूजा करते हैं. गायों के संरक्षण का क़ानून देश में 1870 से ही मौजूद है.

गोकशी के मुद्दे पर अतीत में भी धर्म के नाम पर दंगे, संसद में विरोध प्रदर्शन और यहां तक भूख हड़ताल देखने को मिले हैं.

साल 2014 में बीजेपी के सरकार आने के बाद गोरक्षकों के समूहों को काफी बढ़ावा मिला है. मोदी समर्थकों के लिए गाय किसी कुलचिन्ह की तरह है, जो उन्हें आपस में जोड़ती है.

गोकशी को लेकर कानून सख्त किए गए हैं और कड़ी सज़ा का प्रावधान किया गया है. राजस्थान में, गोकशी करने या गोकशी के लिए गाय ले जाने पर 10 साल तक की सज़ा का प्रावधान है.

भारत के उत्तर और पश्चिमी हिस्सों में गोरक्षकों के समूहों ने क़ानून को अपने हाथ में ले लिया है. वे हाइवे पर चेक प्वॉइंट बनाकर, वाहनों में चेकिंग कर रहे हैं.

इस दौरान ये लोग डेयरी किसान, मवेशियों का कारोबार करने वाले और मवेशी चराने वालों, जिनमें ज्यादातर मुसलमान हैं, के साथ हिंसक हो रहे हैं. गोरक्षा एक तरह उगाही करने का धंधा बन चुका है.

मानवाधिकारों पर नज़र रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ के मुताबिक़ साल 2015 के बाद कम से कम 44 लोग गोरक्षकों की हिंसा में मारे गए हैं, जिनमें 36 मुसलमान हैं. सैकड़ों अन्य लोग घायल भी हुए हैं.

मोदी ने ऐसे हमलों की निंदा करते हुए कहा कि गोरक्षा करने वाले लोग असामाजिक तत्व हैं. लेकिन प्रधानमंत्री के करीबी दूसरे नेताओं ने अलग संकेत दिए हैं.

एक मीट कारोबारी की मॉब लिंचिंग में दोषी करार दिए गए लोगों को माला पहनाते हुए मोदी सरकार के एक मंत्री नजर आए हैं. वहीं, आरएसएस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने कहा है कि अगर मुसलमान बीफ़ खाना बंद कर दें तो लिंचिंग रुक जाएगी.

पहलू खान की हत्या तब हुई थी जब वे अपनी गाय को अपने ही घर ले जा रहे थे. 55 साल के डेयरी किसान हरियाणा के नूंह जिले में अपनी पत्नी और पांच बच्चे के साथ रहते थे.

धूल धूसरित नूंह में बहुसंख्यक आबादी मुस्लिमों की है, जो खेती और दुग्ध उत्पादन के जरिए अपना जीवन यापन करते हैं.

अप्रैल, 2017 में पहलू एक किराये के ट्रक में अपने बेटों इरशाद और आरिफ़ के अलावा दो गांव वालों के साथ लौट रहे थे. वे पड़ोसी राज्य राजस्थान के मवेशी मेले से अपने परिवार के लिए गाय खरीद कर वापस आ रहे थे.

कुछ घंटे चलने और कुछ चेक प्वॉइंट पार करने के बाद उन्हें महसूस हुआ कि मोटरसाइकिल पर सवार छह लोग उनका पीछा कर रहे हैं. उन लोगों ने पहलू ख़ान के ट्रक को ओवरटेक कर लिया और उन्हें रोक दिया.

19 साल के आरिफ़ बताते हैं, “हमने उन्हें गाय की खरीद के पेपर दिखाए. उन्होंने पेपर फाड़कर फेंक दिया. उन लोगों ने बताया कि वे सब बजरंग दल के सदस्य हैं.”

आरिफ़ बताते हैं, “उन लोगों ने हमें गाड़ी से खींच लिया. उन्होंने सबसे ज्यादा मेरे पिता को पीटा. उनके हाथ में जो भी आया, लाठी, बेल्ट उससे पीटा. थोड़ी देर में भीड़ जमा हो गई और वो भी लिंचिंग में शामिल हो गई.”

भीड़ से ये आवाज़ आ रही थी, “ये मुसलमान हैं, मारो.” जब तक पुलिस आई और उसने भीड़ से इन्हें बचाया तब तक पहलू ख़ान अचेत हो चुके थे. भीड़ उनकी गायें, तीन फ़ोन और करीब 45 हजार रुपये छीन चुकी थी.

पुलिस पीड़ितों को अस्पताल ले गई. दो दिन बाद पहलू ख़ान की मौत हो गई. उनके दोनों बेटे जीवित हैं. उनके गांव वाले आज भी याद करते हैं कि पहलू ख़ान एक सच्चा और मेहनती इंसान था.

उनकी पत्नी जैबुना बताती हैं, “वे हमलोगों को बेहतर जीवन देने के लिए काफी मेहनत करते थे.”उनकी मौत के बाद परिवार को क़ानूनी खर्चा उठाने के लिए अपनी गायें बेचनी पड़ीं लेकिन उनके परिवार को आज तक कोई मुआवजा नहीं मिला है. आरिफ बताते हैं, “हम जैसे-तैसे गुजारा कर रहे हैं.”

मोदीराज में गाय को लेकर मॉब लिंचिंग के मामलों में क़ानून की स्थिति विचित्र हो गई है. पहलू ख़ान ने मौत से पहले बार-बार अचेत होने की स्थिति में अपने बयान में हमला करने वाले छह लोगों के नाम गिनाए थे.

पुलिस ने उन लोगों को गिरफ्तार करने से पहले पीड़ितों के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कर ली, पहलू ख़ान सहित उनके बेटों पर गाय की तस्करी का आरोप लगाया गया.

सितंबर महीने में इरशाद और आरिफ़, हमले के दो अन्य गवाहों के साथ मामले की सुनवाई के लिए कोर्ट जा रहे थे, तब उन्होंने देखा कि बिना नंबर वाली एक एसयूवी उनका पीछा कर रही है.

आरिफ़ कहते हैं, “उन्होंने पास आकर चिल्लाते हुए हमें लौट जाने को कहा. जब हमने इनकार किया तो गाड़ी पर सवार एक शख़्स ने हवाई फायर किया. हमने अपनी गाड़ी वापस मोड़ ली और घर लौट आए.”

उसके बाद से ये लोग कोर्ट की पेशी में शामिल होने नहीं पहुंचे हैं. दोनों भाईयों को कहना है कि वे तभी अदालत में हाजिर होंगे जब इस मामले की सुनवाई राजस्थान के बाहर होगी.

आरिफ़ ने बताया, “मैं काफी डरा हुआ हूं. हमने अपने अब्बू को खो दिया है. अब मैं मरना नहीं चाहता. मुझे न्याय की कोई उम्मीद नहीं है. मैं तो केवल ज़िंदा रहना चाहता हूं.”

हमले के पांच महीने के बाद राजस्थान पुलिस ने छह अभियुक्तों पर लगाए गए आरोप निरस्त कर दिए. बाद में इस मामले की स्वतंत्र जांच पर आधारित रिपोर्ट में ये बात सामने आई कि राज्य प्रशासन ने इस अपराध की गंभीरता को कम करने का काम किया था.बीते दिसंबर में कांग्रेस ने बीजेपी को हराकर राज्य की सत्ता हासिल कर ली. लेकिन इससे आरिफ़ के जीवन में क्या बदला?

आरिफ़ बताते हैं, “कुछ भी नहीं बदला, गोरक्षक अभी भी चेकप्वॉइंट पर चेकिंग कर रहे हैं और अपनी गायों के साथ बाहर निकलने को लेकर हमलोग अभी भी डरे हुए हैं.”

मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में एक जॉब फ़ेयर के दौरान नौकरी की आस में कतार में खड़ी लड़कियां, तस्वीर 7 फरवरी, 2019 की है

लखनऊ की पतली गलियों में बनी बिल्डिंग के एक अपार्टमेंट में तीन युवा महीनों से रोज़ाना दस घंटे की पढ़ाई कर रहे हैं. तीनों के तीनों नौकरी चाहते हैं. ये तीनों छोटे किसान के बेटे हैं.

अपने-अपने परिवार की पहली शिक्षित पीढ़ी. ये उस जमात में शामिल लोग हैं जो नौकरी की तलाश में बड़े शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. तीनों भारत की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के हैं.

तीनों के पास इंजीनियरिंग का डिप्लोमा है और तीनों बीते एक साल में दो दर्जन से ज्यादा नौकरियों के लिए आवेदन कर चुके हैं, उनकी परीक्षाओं में बैठ चुके हैं.

तीनों बसों और दूसरे दर्जे की रेल यात्रा करके परीक्षाएं देने जाते हैं. पैसे बचाने के लिए रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर ही सो जाते हैं. ये तीनों लाखों प्रतिस्पर्धियों के साथ कुछ हजार नौकरियों के लिए परीक्षाएं दे रहे हैं.

भारत के सबसे बड़े नियोक्ता रेलवे की कुल 63 हजार नौकरियों के लिए बीते साल दो करोड़ से ज्यादा लोगों ने आवेदन दिए थे.

तीनों भारतीय रेल में ड्राइवर, टेक्नीशियन, लाइनमैन, इंजीनियर, क्लर्क, प्रशासनिक स्टाफ़ और यहां तक कि पुलिस की नौकरी भी करना चाहते हैं. तीनों सरकारी कंपनियों और रेलवे की वैकेंसी के लिए फ़ॉर्म भर रहे हैं.

यहां इन्हें सरकारी नौकरी मिलेगी, जिसमें सम्मान और सुरक्षा दोनों ज़्यादा है. लेकिन भीड़ बहुत है और नौकरी के अवसर बेहद कम. ऐसे में तेजी से उम्मीदें चकनाचूर होती रहती हैं.

पहले ये तीनों इंजीनियर बनना चाहते थे, लेकिन अब जो भी सरकारी नौकरी मिले, उसके लिए तैयार हैं. नौकरी की गारंटी कोई नहीं दे सकता. इन तीनों में एक हैं करुणेश जायसवाल.

करुणेश एक एविएशन ऑयल कंपनी में अनुबंध पर इंजीनियर रह चुके हैं. बीते साल उन्हें 17 हजार रुपये महीने तक मिलते थे. लेकिन अनुबंध समाप्त होने और काम का अनुभव होने के बाद भी उन्हें दूसरी नौकरी नहीं मिली है.

22 साल के करुणेश बताते हैं, “मेरे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है. मुझे लगातार कोशिश करते रहना है. जब आप बेरोज़गार होते हैं तो आप अकेले नहीं होते हैं.”

पांच साल पहले नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी अभियान में युवाओं को बड़ी संख्या में नौकरी देने का भरोसा दिया था. लेकिन जब वे अपना कार्यकाल पूरा कर चुके हैं, तब भारत बेरोजगारी के भीषण संकट से गुजर रहा है.

सरकार की लीक हुई एक रिपोर्ट के मुताबिक बेरोज़गारी की दर बीते 45 साल में सर्वाधिक स्तर पर पहुंच चुकी है. थिंक टैंक ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ (सीएमआईई) के एक अध्ययन के मुताबिक़ फरवरी में भारत में नौकरी तलाशने वाले युवाओं की संख्या 3 करोड़ से ज्यादा थी.

बीते कुछ दशकों में आर्थिक विकास के बावजूद नौकरियों की संख्या नहीं बढ़ी है. तेजी से बढ़ रहे सेक्टरों जैसे टेलीकॉम, बैंकिंग और फाइनेंस में इतनी नौकरियां नहीं हैं कि वे भारत के मानव संसाधन को काम दे सकें.

एक और बात है, भारतीयों की शिक्षा भी आधी-अधूरी होती है और लोग कुशल नहीं होते हैं. मोदी के शासनकाल में निजी निवेश की रफ्तार कम हुई है, विकास की दर डगमगा चुकी है. इस वजह से भी नौकरियां कम हुई हैं.

भारत के 80 प्रतिशत से ज्यादा मानव संसाधन को कम वेतन और कम सुविधाओं के साथ असंगठित क्षेत्र में काम करना पड़ रहा है. 10 प्रतिशत से भी कम लोग औपचारिक अर्थव्यवस्था में सारी सुविधाओं के साथ काम कर रहे हैं.ऐसे में अचरज नहीं होना चाहिए कि नौकरी हासिल करने का संघर्ष कितनी बड़ा है.

दो रूम के साधारण से फ्लैट में करुणेश जायसवाल, रामसागर गुप्ता और मिथिलेश यादव एक साथ रहते हैं. तीनों पांच बजे सुबह उठ जाते हैं. कुछ नाश्ता वैगरह लेकर ये तीनों अपने बेड पर जम जाते हैं, पढ़ने के लिए.

कमरे की सफेद दीवार पर भारत का नक्शा टंगा हुआ है. कमरे में इंजीनियरिंग, गणित, अंग्रेजी ग्रामर और सामान्य ज्ञान की तमाम किताबें बिखरी नजर आती हैं.

कई बार गांव से उनके माता पिता का फोन भी आता है और वे पूछते हैं कि नौकरी मिली या नहीं.

रामसागर गुप्ता कहते हैं, “वे फोन कॉल्स सबसे मुश्किल होते हैं. मैं उन्हें सच बताने के दौरान बेहद दुखी हो जाता हूं. लेकिन वे हमेशा मेरा मनोबल बढ़ाते हैं. परिवार के चलते ही हमलोग लगे हुए हैं.”

रामसागर गुप्ता को उम्मीद है कि एक दिन मोदी युवाओं को नौकरी देंगे. उन्होंने उम्मीद का दामन अभी छोड़ा नहीं है. वे कहते हैं, “कम से कम वे युवाओं के सपने और आकांक्षाओं की बात तो करते हैं. वे खुद काफी मेहनत करते हैं. हमें अभी भी उनसे ढेरों उम्मीद है.”

हालांकि रामसागर गुप्ता की राय से उनके साथी सहमत नहीं दिखते. एक पूछते भी हैं, “मोदी ने जिन फैक्ट्रियों को बनाने की बात कही थी, वे फैक्ट्रियां कहां हैं?”

मिथिलेश यादव बताते हैं कि उनके एक चाचा ने 10 साल की कोशिशों के बाद पुलिस की नौकरी हासिल की थी. चाचा 27 साल की उम्र में पुलिस में शामिल हुए थे.

वे कहते हैं, “एक दिन मुझे भी शायद नौकरी मिल जाएगी. लेकिन इसके लिए काफी धैर्य भी रखना होगा.”

साल 2019 में मोदी ने अपना चुनावी अभियान मेरठ से शुरू किया है.मेरठ के एक सरकारी मैदान में फूलों से लदे स्टेज और सामने हजारों की भीड़ देखकर, मोदी के भाषण में चिरपरिचत उत्साह कुछ ही मिनटों में नजर आने लगा.

मोदी ने कहा, “भारत के 130 करोड़ लोगों ने अपना मन बना लिया है. भारत में एक बार फिर मोदी सरकार बनेगी.”

मोदी स्वभाविक रूप से एक आत्मविश्वासी राजनेता हैं. हालांकि उनके शक्तिशाली सहयोगी अमित शाह एक बार फिर समझदारी से अपने सहयोगी चुन चुके हैं. पर मोदी ने साल 2019 के चुनाव को अपने कामकाज पर जनादेश बताया है.

वे खुद चुनाव अभियानों से कभी नहीं थकते. बीजेपी के मुताबिक़ 2014 में उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान 25 राज्यों में लोगों से संपर्क करने के लिए तीन लाख किलोमीटर से ज्यादा की यात्रा की थी.

इस बार भी कुछ ऐसा ही होगा, इसकी संभावना ज्यादा है, मोदी ने कम से कम 150 चुनावी सभाओं को संबोधित करने का लक्ष्य रखा है.

मोदी अवसर का लाभ उठाने वाले नेता भी हैं, लिहाजा वे चालाकी से राष्ट्रवाद, आरोप प्रत्यारोप की राजनीति और लोकलुभावन शैली सबका मिश्रण कर रहे हैं.

वे एक तरह की बाइनरी क्रिएट कर रहे हैं, जिसमें उनके समर्थक राष्ट्रवादी हैं और उनके आलोचक, विरोधी एंटी नेशनल्स हैं.

मोदी खुद देश की सुरक्षा करने वाले चौकीदार बताते हैं जबकि कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष को सुविधाभोगी और भ्रष्ट करार देते हैं. कई बार ऐसा भी जाहिर होता है कि वे अपने अभियान में हर चीज़ के लिए मौजूदा नीति को छोड़कर पूर्ववर्ती सरकारों को कोसने लगते हैं.

बहरहाल, 2019 का चुनाव एक सघन और कठोर अभियान साबित होने वाला है. भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस 2014 में सबसे बुरी स्थिति में पहुंच जाने के बाद एक बार नए सिरे से राहुल गांधी के नेतृत्व में भरोसेमंद विपक्ष के तौर पर उभरने के लिए संघर्ष कर रही है.

इसके अलावा बीजेपी को कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों से खतरा हो सकता है जो कुछ राज्यों में बेहद शक्तिशाली बनकर उभरे हैं. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर अरविंद पनगढ़िया मोदी सरकार के थिंकटैंक नीति आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे हैं. उनका मानना है कि आलोचक चाहे जो कहें, मोदी सरकार को दूसरा कार्यकाल मिलेगा.

वे कहते हैं, “मोदी अभी भी लोगों में काफी लोकप्रिय हैं और लोगों से संवाद करने के लिए उनके काफी ऊर्जा और क्षमता है. वे आम भारतीयों को ये समझाने में कामयाब रहे हैं कि वे ईमानदार हैं, कड़ी मेहनत करने वाले हैं और निर्णायक फैसले ले सकते हैं.”

बावजूद इन सबके, भारतीय चुनाव नतीजों के बारे में अनुमान लगाना किसी दुष्टता से कम नहीं क्योंकि यहां के चुनाव आइडिया और विजन के नाम पर नहीं लड़े जाते हैं.

कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भारत दूसरी बार एक पार्टी के दबदबे वाली व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है. इस बार ये पार्टी बीजेपी है. पहले कांग्रेस भी ऐसा कर चुकी है, जिसने चार दशक से भी ज्यादा समय तक देश पर शासन किया था. लेकिन एक बात स्पष्ट है. 2019 में ये साबित हो जाएगा कि मोदी का जलवा कायम रहता है या नहीं.

बीबीसी से साभार

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