दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है

लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश देश की दिशा तय करता है। दिल्ली की सत्ता तक जाने वाला राजमार्ग यूपी से होकर ही गुजरता है। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं। इसलिए आने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी सभी पार्टियों का सबसे ज्यादा फोकस यूपी पर ही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से लेकर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा तक सभी यूपी के रण में कूदे हुए हैं। चार बार सूबे की मुख्यमंत्री रहीं मायावती ने भी इसी वजह से सभी गिले-शिकवे भुलाकर अखिलेश यादव से हाथ मिलाया है।सत्ता संग्राम में यूपी के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 30 साल बाद 2014 में जब भारतीय जनता पार्टी ने अकेले बहुमत जुटाया तो यूपी की 80 में से 71 सीटें उनकी झोली में थीं।  2009 में यूपी से 14 सीटें जीतने वाली कांग्रेस साल 2014 में दो सीटों पर सिमट गई थी। सिर्फ सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही अपनी सीट बचा पाए थे। 2009 में यूपी में 20 सीटें जीतने वाली मायावती 2014 में एक भी सीट नहीं बचा पाईं। जबकि समाजवादी पार्टी ने 2009 में जहां 23 सीटें जीती थी 2014 में पार्टी 5 सीटें ही निकाल पाई। आइए जानते हैं क्या हैं वो 5 कारण जो सिद्ध करते हैं कि यूपी, दिल्ली की सत्ता का न सिर्फ राजमार्ग है बल्कि देश की दिशा भी तय करता है।

देश में चुनावी लोकतंत्र का पहला महायज्ञ हुआ तो पंडित जवाहर लाल नेहरू यूपी से मैदान में उतरे। 1951 में इलाहाबाद ( अब प्रयागराज) की फूलपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़े। कांग्रेस को यूपी की 81 सीटें मिलीं। नेहरू 1957 और 1962 में भी यहीं से जीतकर प्रधानमंत्री बने। 1957 में देश में कांग्रेस को 371 सीटें मिलीं तो यूपी की 70 सीटें थीं। 1962 में देश ने कांग्रेस को 361 सीटें दीं तो यूपी ने 62। अगले चुनाव में कांग्रेस की सीटें देश में 283 पर सिमटीं तो यूपी में भी सीटें आधा सैकड़ा से नीचे 47 ही रह गईं।

राममनोहर लोहिया ने कांग्रेस के विकल्प की तलाश शुरू की तो केंद्र यूपी रहा। इंदिरा की अगुवाई में 1971 में कांग्रेस ने 352 सीट जीती, जिसमें यूपी की 73 थीं। आपातकाल के बाद 1977 में कांग्रेस की बुरी हार हुई। इंदिरा खुद रायबरेली से हारीं। यूपी  की सभी 85 सीट, भारतीय लोकदल ने जीतीं। मोरारजी सरकार ज्यादा चली नहीं। 1980 में यूपी ने कांग्रेस को 51 सीटें दीं और इंदिरा फिर पीएम बनीं। उनकी हत्या के बाद 1984 के चुनाव में कांग्रेस ने कुल 404 सीटें जीतीं, उसमें यूपी की 83 सीटें थीं।

1984 में दो सीटों पर सिमटी भाजपा को 1989 में 85 सीटें मिलीं, इनमें आठ  यूपी से थीं। वीपी सिंह भाजपा की मदद से पीएम बने। इसी दौर में राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ। रथ यात्रा के दौरान आडवाणी गिरफ्तार हुए तो वीपी सिंह सरकार गिर गई। राम लहर में 1991 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 120 सीटें जीतीं जिसमें 51 यूपी की थीं।

1996 में यूपी की 52 सीटों की बदौलत 161 सीटें जीतने वाले अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। सरकार 13 दिन में गिर गई तो कांग्रेस के समर्थन से देवगौड़ा, फिर गुजराल पीएम बने। दोनों को सपा का समर्थन रहा। 1998 में 181 सीटें जीतकर अटल दोबारा पीएम  बने तो यूपी ने 57 सीटें दीं। 1999 में भाजपा को यूपी से 29 और कुल 182 सीटें मिलीं।

2004 में फीलगुड और ‘भारत उदय’ नारा फेल कर जनता ने भाजपा को 139 पर समेटा तो यूपी में पार्टी को केवल दस सीटें मिलीं। यूपी की आठ सहित देश में 145 सीटें जीतने वाली कांग्रेस ने यूपीए सरकार बनाई तो यूपी से ही सपा के 35 व बसपा के 19 सांसदों ने समर्थन दिया। 2009 में यूपीए की वापसी हुई। कांग्रेस 202 सीटें जीतीं जिसमें 21 यूपी से थीं।

जाहिर है, हर चुनाव में हर पार्टी की जीत का दारोमदार यूपी पर रहता है। 2019 में भाजपा और कांग्रेस के अलावा सपा-बसपा गठबंधन भी प्रदेश में सीटों की इस लड़ाई को बेहद दिलचस्प बना रहा है। 

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