News Agency : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत तमाम बीजेपी नेता ऐसे ही बार-बार नहीं कह रहे हैं कि यह सोचकर निश्चिंत होना उचित नहीं है कि बीजेपी जीत रही है, इसलिए वोटरों को अधिक-से-अधिक संख्या में पार्टी के पक्ष में वोटिंग करनी चाहिए। यह बताता है कि बीजेपी खास तौर से कई ऐसी सीटों को लेकर डरी हुई है जहां वह पिछली बार प्रतिद्वंद्वी वोटों के बिखराव के कारण या बहुत कम अंतर से जीती थी। जैसे, लद्दाख लोकसभा सीट। यहां बीजेपी सिर्फ thirty six मतों के अंतर से 2014 में जीती थी।
पिछली बार जीते थुपस्तान छेवांग ने बीजेपी ही छोड़ दी है। इसलिए इस सीट को लेकर बीजेपी खुद भी मुतमईन नहीं हो सकती। वहीं उत्तर प्रदेश में पांचवां चरण भी बीजेपी के लिए मुश्किल भरा ही है। इसी फेज में दो सीटें- अमेठी और रायबरेली भी हैं। इन पर बीजेपी पिछली बार के लहर में भी नहीं जीती थी। अमेठी से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और रायबरेली से यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी इस दफा भी उम्मीदवार हैं।
रायबरेली में कांग्रेस ने sixty three प्रतिशत से अधिक मत लेकर जीत दर्ज की थी। इसी तरह पिछली बार अमेठी में राहुल गांधी ने forty six फीसदी से भी अधिक वोट लेकर चुनाव जीता था। इन दोनों सीटों पर इस बार एसपी, बीएसपी और आरएलडी ने अपना प्रत्याशी नहीं दिया है। इसलिए यहां तो बीजेपी की दाल गलने वाली नहीं है। वैसे, जिस तरह अमेठी-रायबरेली में अन्य दलों ने उम्मीदवार नहीं दिए हैं, उसी तरह कांग्रेस ने भी अजित सिंह के खिलाफ मुजफ्फरनगर, जयंत चौधरी के खिलाफ बागपत, अक्षय यादव के खिलाफ फिरोजाबाद, मुलायम सिंह यादव के खिलाफ मैनपुरी, डिंपल यादव के खिलाफ कन्नौज और अखिलेश यादव के खिलाफ आजमगढ़ में उम्मीदवार नहीं दिए हैं।
यह संकेत है कि चुनाव बाद कांग्रेस और एसपी-बीएसपी-आरएलडी गठबंधन की राजनीति क्या करवट लेने जा रही है। पांचवें चरण में अन्य सीटें ऐसी हैं जिन पर पिछली बार बीजेपी सेकुलर दलों में बिखराव के कारण कम वोट पाने के बावजूद जीत गई थी। इस बार एसपी-बीएसपी-आरएलडी गठबंधन के कारण वह परेशान है। अब जैसे, धौरहरा सीट पर बीजेपी को thirty four फीसदी से भी काम वोट मिले थे, फिर भी वह चुनाव जीत गई थी। पिछले चुनाव में एसपी-बीएसपी के मतों को जोड़ दें, तो यह forty four प्रतिशत से भी अधिक है।
इसी तरह, सीतापुर में भी बीजेपी को forty फीसदी वोट मिले थे, जबकि एसपी-बीएसपी का संयुक्त मत प्रतिशत fifty फीसदी से भी अधिक है। मोहनलालगंज में भी बीजेपी को forty one प्रतिशत से कम वोट मिले थे। यहां एसपा-बीएसपी को मिले मतों को जोड़ दें तो यह fifty फीसदी बैठता है। बांदा में भी बीजेपी महज forty फीसदी मत लेकर जीत गई थी। जबकि एसपी- बीएसपी का संयुक्त मत प्रतिशत पिछली बार forty eight प्रतिशत से भी अधिक था। वैसे, बीजेपी ने इस गठबंधन के डर से यहां के निवृत्तमान सांसद भैरों मिश्रा का टिकट काटकर इस बार आर के सिंह पटेल को उम्मीदवार बनाया है। फतेहपुर में बीजेपी ने 2014 में साध्वी निरंजन ज्योति को अपना उम्मीदवार बनाया था। उन्हें forty five प्रतिशत मत मिले थे। पिछली बार मिले एसपी-बीएसपी के मतों को जोड़ दें, तो यह बीजेपी के बराबर ही होता है।
निरंजन ज्योति संघ के मूल एजेंडे- हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद की ध्वजवाहक हैं।बीजेपी ने कौशांबी सीट पिछली बार thirty seven प्रतिशत से भी कम मत लाकर जीत ली थी। यहां एसपी-बीएसपी के मतों को जोड़ दें, तो यह लगभग fifty four फीसदी बनता है। ऐसा सेकुलर दलों के वोट विभाजन की वजह से हुआ। बाराबंकी और फैजाबाद में भी ऐसा ही था। बहराइच में बीजेपी ने 2014 में सावित्री बाई फुले को उम्मीदवार बनाया था। इस बार वह कांग्रेस से यहां उम्मीदवार हैं। पिछले चुनाव में कैसरगंज से बीजेपी के बृजभूषण शरण सिंह forty फीसदी मत लेकर जीत गए थे। उनकी छवि बाहुबली वाली है।
मगर इसी सीट पर एसपी-बीएसपी के मतों को जोड़ दें, तो यह लगभग forty eight प्रतिशत बनती है। पिछली बार गोंडा सीट पर एसपी-बीएसपी का संयुक्त वोट प्रतिशत thirty five से अधिक था। यहां बीजेपी गठबंधन से मतों का अंतर सिर्फ half-dozen प्रतिशत का है। अगर बीजेपी का थोड़ा वोट भी कम हुआ, तो बीजेपी इस बार इस सीट पर हार सकती है। वैसे भी, लोकसभा चुनाव के पिछले चार चरणों में उत्तर प्रदेश में एसपी-बीएसपी-आरएलडी गठबंधन बीजेपी पर भारी पड़ा था इसलिए अगले चरणों में भी वह बीजेपी को परेशान किए रहेगा।