जब इंदिरा गाँधी कांग्रेस की अध्यक्ष बनी थीं तो वो सिर्फ़ 42 साल की थीं. संजय गांधी ने जब अपना पहला चुनाव लड़ा था तो वो मात्र 30 साल के थे. राजीव गाँधी जब राजनीति में आए थे तो उन्होंने अपने जीवन के सिर्फ़ 36 वसंत देखे थे.
राहुल जब पहली बार 2004 में राजनीति में आए तो वो भारतीय राजनीति के मानकों के हिसाब से ‘बच्चे’ ही थे, हालाँकि उस समय उनकी उम्र 34 साल की हो चुकी थी. दिलचस्प बात ये है कि राजनीति में डेढ़ दशक से भी अधिक समय बिता देने और चालीस की उम्र पार कर जाने के बावजूद उन्हें ‘बच्चा’ ही समझा जाता रहा.
लेकिन, जब 2008 में एक इंटरव्यू में बीजेपी के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह ने राहुल को ‘बच्चा’ कह कर ख़ारिज करने की कोशिश की तो उन्होंने उसका अच्छा प्रतिवाद भी किया और कहा- “अगर मैं उनकी नज़र में ‘बच्चा’ हूँ तो आप इसे पसंद कीजिए या नापसंद , भारत की 70 फ़ीसदी आबादी भी ‘बच्चा’ है.”
भारतीय राजनीति में अभी भी युवा होने को नादानी से जोड़ कर देखा जाता है. लेकिन, भारतीय राजनीति पर पैनी नज़र रखने वाले पंडित मानेंगे कि राहुल गांधी उस ‘लेबल’ से अब बाहर निकल आए हैं और 2019 के लोकसभा चुनाव में शीर्ष पद के दावेदार हैं.
राहुल गाँधी का राजनीतिक बपतिस्मा अपनी दादी इंदिरा गाँधी को देखते-देखते हुआ. 19 जून, 1970 को राहुल के जन्म के कुछ दिनों बाद इंदिरा गाँधी ने अमरीका में रह रही अपनी दोस्त डोरोथी नॉर्मन को लिखा, “राहुल की झुर्रियाँ ख़त्म हो गईं हैं लेकिन उसकी ‘डबल चिन’ अब भी बरकरार है.”
इंदिरा गांधी की जीवनी लिखने वालीं कैथरीन फ़्रैंक लिखती हैं, “बचपन से ही प्रियंका और राहुल अक्सर सुबह उनके निवास के लॉन में होने वाले दर्शन दरबार में उनके साथ हुआ करते थे. इस दरबार में वो आम लोगों से मिलती थीं. रात में भी वो इन दोनों को अक्सर अपने ही शयन-कक्ष में सुलाती थीं.”
राहुल गांधी ने पहले दून स्कूल में पढ़ाई की और फिर इसके बाद दिल्ली के मशहूर सेंट स्टीफेंस कॉलेज में. इसके बाद वो अमरीका चले गए जहाँ उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के छात्र के रूप में दाख़िला लिया. सुरक्षा कारणों से उन्हें हार्वर्ड से हट कर विंटर पार्क, फ़्लोरिडा के एक कॉलेज में दाख़िला लेना पड़ा. वहाँ से उन्होंने 1994 में अंतरराष्ट्रीय संबंधों में डिग्री ली.
इसके बाद वो केंब्रिज विश्वविद्यालय के मशहूर ट्रिनिटी कॉलेज चले गए. वहाँ से उन्होंने 1995 में ‘डेवलपमेंट स्टडीज़’ में ‘एमफ़िल’ किया. इसके बाद वो लंदन में दुनिया में ‘ब्रैंड स्ट्रेटेजी’ की बड़ी कंपनी ‘मॉनीटर ग्रुप’ में नौकरी करने लगे. उन्होंने इस कंपनी में अपना नाम बदल कर तीन साल तक नौकरी की. जब तक वो वहाँ रहे उनके साथियों को इसकी भनक भी नहीं लग पाई कि वो इंदिरा गाँधी के पोते के साथ काम कर रहे हैं.
वर्ष 2002 में राहुल वापस भारत लौटे. उन्होंने कुछ लोगों के साथ मिल कर मुंबई में एक कंपनी शुरू की, ‘बैकॉप्स सर्विसेज़ लिमिटेड.’ वर्ष 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में दिए गए हलफ़नामे में उन्होंने साफ़ लिखा कि इस कंपनी में उनके 83 फ़ीसदी शेयर हैं.
2008 की गर्मियों में भारत के उस समय के सबसे बड़े बॉक्सिंग कोच और द्रोणाचार्य विजेता ओमप्रकाश भारद्वाज के पास भारतीय खेल प्राधिकरण की तरफ़ से एक फ़ोन आया. उनको बताया गया कि 10, जनपथ से एक साहब आपसे संपर्क करेंगे. कुछ देर बाद पी माधवन ने भारद्वाज को फ़ोन कर कहा कि राहुल गाँधी आपसे बॉक्सिंग सीखना चाहते हैं. भारद्वाज इसके लिए तुरंत राज़ी हो गए.
राहुल गांधी की जीवनी लिखने वाले जतिन गांधी बताते हैं, “जब फ़ीस की बात आई तो भारद्वाज ने सिर्फ़ ये मांग की कि उन्हें उनके घर से ‘पिक’ करा लिया जाए और ट्रेनिंग के बाद उन्हें वापस उनके घर छोड़ दिया जाए. भारद्वाज ने 12 तुग़लक लेन के लॉन पर राहुल गांधी को मुक्केबाज़ी की ट्रेनिंग दी. ये सिलसिला कई हफ़्तों तक चला, सप्ताह में तीन दिन.”
इस दौरान कई बार सोनिया, प्रियंका और उनके बच्चे माएरा और रेहान भी राहुल को ट्रेनिंग करते देखने आते थे. भारद्वाज याद करते हैं कि वो जब भी राहुल को ‘सर’ या ‘राहुल जी’ कह कर संबोधित करते थे, तो वो उन्हें हमेशा टोक कर कहते थे कि वो उन्हें सिर्फ़ राहुल कहें. वो उनके छात्र हैं.
भारद्वाज बताते हैं, “एक बार मुझे प्यास लगी और मैंने पानी पीने की इच्छा प्रकट की. हालांकि, वहाँ कई नौकर मौजूद थे, लेकिन राहुल खुद दौड़ कर मेरे लिए पानी लाए. ट्रेनिंग ख़त्म हो जाने के बाद वो हमेशा मुझे गेट तक छोड़ने जाते थे.”
बॉक्सिंग ही नहीं राहुल ने तैराकी, स्क्वॉश, पैराग्लाइडिंग और निशानेबाज़ी में भी महारत हासिल की. अब भी वो चाहे जितना व्यस्त हों, कसरत के लिए थोड़ा समय निकाल ही लेते हैं. अप्रैल, 2011 में मुंबई में खेले जा रहे विश्व कप मैच के दौरान राहुल अपने कुछ साथियों के साथ चौपाटी के न्यू यॉर्कर रेस्तराँ पहुंचे जहाँ उन्होंने पित्ज़ा, पास्ता और ‘मेक्सिकन टोस्टाडा’ का ऑर्डर किया.
रेस्तराँ के मैनेजर ने राहुल से खाने का बिल लेने से इनकार कर दिया लेकिन उन्होंने ज़ोर देकर 2223 रुपए का बिल चुकाया. अब भी राहुल दिल्ली की मशहूर ख़ान मार्केट में कभी-कभी कॉफ़ी पीने जाते हैं. आंध्र भवन की कैंटीन में भी उन्होंने कई बार दक्षिण भारतीय थाली का आनंद उठाया है.
मुंबई की अपनी एक दूसरी यात्रा के दौरान राहुल गाँधी ने अचानक सुरक्षा एजेंसियों और स्थानीय प्रशासन को धता बताते हुए वहाँ की मुंबई की ‘लाइफ़ लाइन’ कही जाने वाली लोकल ट्रेन से सफ़र करने का फ़ैसला लिया. उन्होंने बाकायदा प्लेटफ़ॉर्म पर ट्रेन का इंतज़ार किया.
रेलवे लाइन के बग़ल में और सामने के प्लेटफॉर्म पर खड़े हुए लोगों को ‘वेव’ किया. ट्रेन के अंदर भी उन्होंने एक दूसरे यात्री के साथ अपनी सीट ‘शेयर’ की, सामने की सीट पर बैठे लोगों से हाथ मिलाया और तमाम शोर के बीच एक मोबाइल कॉल भी ‘रिसीव’ किया. जब वो ट्रेन से उतरे तो उन्होंने वहाँ मौजूद मीडिया से एक शब्द बात नहीं की. बात यहीं पर ख़त्म नहीं हुई. वो एक एटीएम पर रुके और वहाँ से उन्होंने कुछ पैसे निकाले.
अभी 48 साल की उम्र तक राहुल गाँधी ने शादी नहीं की है. इस विषय पर बात करने से वो बचते रहे हैं. वर्ष 2004 में वृंदा गोपीनाथ से बात करते हुए उन्होंने पहली बार स्वीकार किया था कि उनकी महिला मित्र का नाम वेरोनीक है न कि ज्वानिता.
उन्होंने बताया, “वो स्पैनिश हैं न कि वेनेज़ुएला निवासी. वो वास्तुविद् हैं न कि किसी रेस्तराँ में वेटरेस. हालांकि, वो अगर वेटरेस भी होतीं, तो मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त भी हैं.”उसके बाद से उनकी ‘गर्ल फ़्रेंड’ के बारे में कयास तो लगते रहे हैं, लेकिन कोई बात खुल कर सामने नहीं आई है.
जब राहुल राजनीति में नए-नए आए तो वो बहुत मुखर नहीं थे, उन्हें अक्सर सोनिया गाँधी के पीछे खड़ा देखा जाता था. प्रियंका तो हाथ हिला कर अपने चाहने वालों को जवाब देती थीं, लेकिन राहुल का हाथ भी ऊपर नहीं उठता था. उनकी चुप्पी की वजह से ही इन अफ़वाहों को भी बल मिला कि उनमें कोई ‘स्पीच डिफ़ेक्ट’ है, हालांकि ये बात पूरी तरह से ग़लत थी.
धीरे धीरे उनके दक्षिणपंथी विरोधियों ने उनका पप्पू कहकर मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिया और शुरू में राहुल गाँधी ने इस छवि से बाहर आने के लिए अपनी तरफ़ से कोई कोशिश भी नहीं की. उस ज़माने में ही बॉलीवुड की एक फ़िल्म आई थी ‘और पप्पू पास हो गया.’ 2008 में ही एक और बॉलीवुड फ़िल्म का एक गाना बहुत मशहूर हुआ था ‘पप्पू कान्ट डांस…’
उसी साल दिल्ली विधानसभा के चुनाव के मौके पर चुनाव आयोग ने एक मुहिम चलाई थी ‘पप्पू कान्ट वोट.’ इनका मतलब ये था कि पप्पू एक ऐसा शख़्स है जो ज़रूरी काम करने के बजाए फ़ालतू की चीज़ें करता रहता है. उनके नेतृत्व में कांग्रेस बीजेपी से एक के बाद एक राज्य हारती चली जा रही थी. बीजेपी के हलकों में एक मज़ाक भी प्रचलित हो चला था, “हमारे तो तीन प्रचारक हैं, मोदी, अमित शाह और राहुल गाँधी.”
कांग्रेस में भी शुरू के दिनों में उनके पीठ पीछे मज़ाक किया जाता था कि आप जितने ‘झोलाछाप’ हों या आप के बाल जितने बिखरे हुए हों, राहुल गाँधी के करीब जाने की आपकी उतनी अधिक संभावना है. उस ज़माने में युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता अक्सर अपनी ‘रॉलेक्स’ घड़ी उतार कर और अपनी महँगी कार पास के पाँच सितारा होटल में पार्क कर ऑटो से राहुल गाँधी से मिलने जाते थे.
19 मार्च 2007 में उन्होंने देवबंद में एलान किया कि ‘अगर 1992 में नेहरू परिवार सत्ता में होता तो बाबरी मस्जिद को कभी नहीं गिराया जा सकता था.’ उस समय नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार केंद्र में सत्ता में थी.
राहुल ने आगे कहा, “मेरे पिता ने मेरी माँ से कहा था कि अगर कभी बाबरी मस्जिद को गिराने की बात आएगी, तो मैं उसके सामने खड़ा हो जाऊंगा. उन्हें बाबरी मस्जिद को गिराने से पहले मुझे मारना होगा.” उस समय के विश्लेषकों की नज़र में राहुल गाँधी का ये बयान राजनीतिक अपरिपक्वता का एक नमूना था.
लेकिन, पिछले दिनों एकाएक सब कुछ बदलने लगा. इसकी पहली झलक तब मिली जब वो अमरीका में बर्कले में कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय गए और उन्होंने भारत की राजनीति और विदेश नीति पर खुल कर बातें की. जब वो भारत लौटे तो उनकी चाल में उस तरह का आत्मविश्वास था जिसे लोगों ने पहले नहीं नोटिस किया था.
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भले ही उनकी पार्टी जीत नहीं पाई, लेकिन उन्होंने वहाँ बीजेपी की सरकार नहीं बनने दी. इसके बाद हिंदी पट्टी में तीन विधानसभाओं के चुनावों में उन्होंने वो कर दिखाया जिसकी कुछ समय पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान तीनों राज्यों में उन्होंने नरेंद्र मोदी के पूरा ज़ोर लगा देने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर किया और सहसा ये लगने लगा कि 2019 के चुनाव में मोदी को ‘वॉक- ओवर’ नहीं मिलेगा.
कहावत है कि जब आप धरातल पर चले जाते हैं तो आपके पास सिर्फ़ ऊपर आने का ही रास्ता बचा रहता है. पांच साल पहले राहुल गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस को अपने इतिहास की सबसे बड़ी हार मिली थी और पार्टी लोकसभा में मात्र 44 सीटें जीत पाई थी. ये संख्या इतनी कम थी कि उन्हें विपक्ष के नेता होने का दर्जा भी नहीं मिला था.
कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने अपने व्यक्तित्व मे आमूल परिवर्तन किए हैं. उन्हें अब मंदिर जाने, पहाड़ पर चढ़ने (कैलाश मानसरोवर) और अपनी जनेऊ दिखाने से कोई परहेज़ नहीं है. उन्होंने लोगों के सामने एक नरम हिंदुत्व का नमूना पेश किया है जो योगी आदित्यनाथ के आक्रामक हिंदुत्व से कहीं अलग है.
मशहूर पत्रकार राधिका रामासेशन एक दिलचस्प टिप्पणी करती हैं, राहुल गाँधीपहले हमें बताया जाता था कि बीजेपी कांग्रेस + गाय है. अब कांग्रेस, बीजेपी – गाय की तरह दिखती है.’
इस सब का असर ये हुआ है कि उन्होंने एक के बाद एक तीन राज्य कांग्रेस की झोली में डलवाए हैं, वो भी बीजेपी से सीधे मुकाबले में और उनके गढ़ में भी. इस जीत का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि 2014 के चुनाव में बीजेपी ने इन राज्यों में 65 में से 62 सीटें जीती थीं. उनकी अखिल भारतीय स्वीकार्यता भी पहले की तुलना में बढ़ी है.
डीएमके के स्टालिन, आरजेडी के तेजस्वी से ले कर एनसीपी के शरद पवार सभी उनके कसीदे पढ़ रहे हैं. उन्होंने एक ज़माने में कांग्रेस के धुर-विरोधी रहे चंद्रबाबू नायडू को भी साध लिया है.
राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस के प्रदर्शन में आए ग़ज़ब के परिवर्तन ने उन्हें भारत के चोटी के पद का गंभीर दावेदार बना दिया है. अब वो मज़ेदार जुमले गढ़ने लगे हैं, (विश्व थियेटर दिवस पर मैं मोदी को बधाई देता हूँ), उन्हें अब प्रेस कांफ़्रेंस संबोधित करने में कोई झिझक नहीं है.
वो दिन हवा हुए जब महत्वपूर्ण फ़ैसले लेने के समय वो अक्सर विदेश में छुट्टियाँ बिताते देखे जाते थे. उन्होंने लगातार कृषि संकट, ख़राब होती अर्थव्यवस्था, बेरोज़गारी और रफ़ाल समझौते पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखे हमले किए हैं.
लोकसभा बहस के दौरान टीवी कैमरों के सामने नरेंद्र मोदी को गले लगा कर ये संदेश दिया है कि वो अपने विरोधियों को दुश्मन की तरह नहीं देखते हैं. लेकिन इसके बावजूद उन्होंने मोदी की आर्थिक नीति का अब तक कोई ठोस विकल्प नहीं पेश किया है.
हाल में जीते तीन राज्यों में भी उनका तुरप का इक्का किसानों के कर्ज़े माफ़ करना था. उन्होंने हर गरीब किसान के खाते में हर साल 72,000 रुपए जमा कराने का वादा ज़रूर किया है, लेकिन उन्होंने ये बताने की ज़हमत नहीं की है कि वो ये पैसा कहाँ से लाएंगे.
राहुल की राजनीतिक परिपक्वता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि राजस्थान में सचिन पायलट को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के बावजूद, उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए अशोक गहलोत के दावे को नज़रअंदाज़ नहीं किया. मध्य प्रदेश में भी उन्होंने ज्योतिरादित्य सिंधिया को महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी लेकिन जब मुख्यमंत्री चुनने की बात आई तो उन्होंने पुरानी पीढ़ी के कमलनाथ को ही चुना.
जैसे ही कर्नाटक विधानसभा के नतीजे आए, उन्होंने कांग्रेस पार्टी के दूसरे नंबर पर आने के बावजूद जनता दल(एस) से गठबंधन कर बीजेपी को सरकार बनाने से रोका. जब राज्यपाल वाजूभाई वाला ने बीजेपी की सरकार बनवा दी तो उन्होंने अभिषेक मनु सिंघवी को चंडीगढ़ से बुलवा कर सुप्रीम कोर्ट में अपील करवाई जिसकी वजह से बीजेपी की सरकार को 48 घंटों के अंदर इस्तीफ़ा देना पड़ा.
राहुल अब तक कभी मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं रहे, हालांकि वो चाहते तो कभी भी मंत्री बन सकते थे. आरोप है कि उन्होंने अपने लोकसभा क्षेत्र में कोई बड़ा विकास कार्य नहीं कराया, जिससे इस तीसरे ‘टर्म’ के सांसद की एक अलग पहचान बनती. उन्हें जो भी पद मिला है वो उनकी विरासत की वजह से मिला है, उसके लिए उन्होंने मेहनत नहीं की है.
प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए उन्होंने भले ही अपनी टोपी फेंक दी हो, लेकिन उनके सहयोगी और विरोधी दोनों जानते हैं कि अभी उनकी परीक्षा नहीं हुई है, राजनीति में इसे बहुत बड़े गुण के रूप में नहीं देखा जाता.
‘ओपेन’ पत्रिका के संपादक एस प्रसन्नराजन ने एक बहुत दिलचस्प टिप्पणी की है, “राहुल की सबसे बड़ी दिक्कत है मोदी के ज़माने में गाँधी होना. ये किसी के लिए भी बहुत कठिन काम है.”
राहुल गाँधी जानते हैं कि मोदी के पाँच साल सत्ता में रहने के बावजूद उन को 2019 के चुनाव में हरा पाना टेढ़ी खीर होगा. लेकिन, वह तीन महीने पहले दिखा चुके हैं कि उनमें ऐसा करने की क्षमता है और उन्हें हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए.
(बीबीसी से साभार)