News Agency : नीतीश कुमार यूं तो साल 2000 में ही एक बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके थे, लेकिन पर्याप्त बहुमत न होने के कारण उनका कार्यकाल सिर्फ सात दिन का रहा। उसके बाद उन्होंने अब तक तीन बार जनादेश लेकर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और एक बार जनादेश वाले गठबंधन को तोड़कर नए गठबंधन के नेता के तौर पर।
one मार्च 1951 को बिहार के बख्तियारपुर में एक साधारण परिवार में जन्मे नीतीश कुमार के पिता का नाम रामलखन सिंह और माता का नाम परमेश्वरी देवी था। नीतीश कुमार के पिता भी राजनीतिक पृष्ठभूमि से थे और मशहूर गांधीवादी नेता अनुग्रह नारायण सिन्हा के काफी करीबी थे। नीतीश कुमार ने मैट्रिक तक की पढ़ाई गांव में पूरी करने के बाद बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री ली। नीतीश कुमार की राजनीति प्रख्यात समाजवादी नेता जय प्रकाश नारायण के प्रभाव में शुरू हुई।
उन्होंने 1974 में राजनीति में कदम रखा और जेपी आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। राम मनोहर लोहिया, जॉर्ज फर्नांडिस और वीपी सिंह जैसे नेताओं से इसी आंदोलन के दौरान उनका संपर्क हुआ। नीतीश कुमार की राजनीतिक शुरुआत यूं तो लगातार दो विधानसभा चुनाव हारने से हुई, लेकिन उसके बाद वो राजनीति की सीढ़ियां लगातार चढ़ते ही गए। 1985 में बिहार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद लोकदल पार्टी से लेकर जनता दल तक में उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों को संभाला। 1989 में उन्हें बिहार में जनता दल का प्रदेश सचिव चुना गया और उनको पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ने का मौका भी मिला।
इस चुनाव में उन्हें जीत भी मिली और सांसद के साथ केन्द्र में मंत्री बनने का मौका भी मिला। नीतीश कुमार पहली बार 1990 में केन्द्रीय मंत्रीमंडल में कृषि राज्य मंत्री बनाए गए। 1998-1999 में कुछ समय के लिए वे केन्द्रीय रेल एवं भूतल परिवहन मंत्री भी रहे। साल 2000 में वो पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनका कार्यकाल सिर्फ सात दिन तक चल पाया और सरकार गिर गई। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में उसी साल उन्हें फिर से रेल मंत्री बनाया गया। नवंबर 2005 में उन्होंने बिहार में राष्ट्रीय जनता दल की पंद्रह साल पुरानी सत्ता को उखाड़ फेंका और बीजेपी के साथ मिलकर गठबंधन की सरकार बनाई।
साल 2010 में बीजेपी गठबंधन के साथ ही एक बार फिर वो मुख्यमंत्री बने, लेकिन 2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद बीजेपी के साथ उनका गठबंधन टूट गया। 2014 में उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के खराब प्रदर्शन की वजह से मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया, जिसके बाद जीतनराम मांझी मुख्यमंत्री बने। लेकिन 2015 में नीतीश कुमार एक बार फिर मुख्यमंत्री बन गए।
2015 के चुनाव में नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी जनता दल यूनाइटेड का उन दलों के साथ गठबंधन किया, जिनसे वो पिछले twenty five साल से लड़ते चले आ रहे थे। इस महागठबंधन में लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस पार्टी शामिल थे, जबकि मुकाबला बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए से था। इस चुनाव में महागठबंधन को भारी जीत हासिल हुई और बीजेपी महज fifty eight सीटों पर सिमट गई। महागठबंधन को 178 सीटों पर जीत हासिल हुई। लेकिन twenty six जुलाई 2017 को नीतीश कुमार के राजनीतिक फैसले ने सभी को आश्चर्य में डाल दिया जब उन्होंने गठबंधन से अलग होने और तत्काल बाद बीजेपी के साथ गठबंधन करके सरकार बनाने का दावा किया।
महागठबंधन टूट गया, आरजेडी और कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गए और नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हो गए, लेकिन सुशासन बाबू के रूप में ख्याति अर्जित करने वाले नीतीश कुमार खुद के ऊपर एक अवसरवादी राजनीतिज्ञ का तमगा लगाने से नहीं रोक सके। ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार को इसका राजनीतिक नुकसान नहीं हुआ। बीजेपी के साथ गठबंधन में लोकसभा चुनाव में ज्यादा सीटें हासिल करने में वो जरूर कामयाब हुए हैं, लेकिन शरद यादव जैसे अपने करीबी और पुराने साथियों और शासन में बीजेपी की पर्याप्त दखलंदाजी की कीमत पर।
पिछले करीब दो दशक में बिहार का यह शायद पहला चुनाव होगा जिसमें नीतीश कुमार राजनीतिक रूप से बहुत प्रासंगिक नहीं दिख रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले तक जो नीतीश कुमार राजनीतिक हलकों में पीएम मैटीरियल के रूप में देखे जाते थे, आज बिहार के बाहर उनकी चर्चा तक नहीं हो रही है। साल 1994 में लालू यादव से राजनीतिक रिश्ता तोड़ने के बाद नीतीश कुमार की छवि एक विद्रोही नेता के तौर पर बनी थी। साल 2005 में एनडीए के साथ सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने न सिर्फ राज्य के प्रशासनिक ढांचे को दुरुस्त किया बल्कि विकास के एक नए अध्याय की शुरुआत की और इन्हीं सबके चलते जनता में उनकी छवि सुशासन बाबू के तौर पर बनी।
लेकिन आज स्थिति ये है कि बिहार के मुख्यमंत्री के बावजूद राजनीति में उनकी प्रासंगिकता की चर्चा तक नहीं हो रही है।बिहार की राजनीति को करीब से जानने वाले एक पत्रकार अजीत सिंह कहते हैं कि महागठबंधन से अलग होने का फैसला नीतीश कुमार की छवि के लिए घातक सिद्ध हुआ। उनके मुताबिक, “2015 में महागठबंध को जनादेश मिला था, नीतीश कुमार को नहीं। जनादेश का अपमान और लालू प्रसाद के साथ विश्वासघात करने के कारण राजनीति में नीतीश कुमार की साख बुरी तरह प्रभावित हुई है। वो मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन अपना राजनीतिक महत्व उन्होंने खो दिया है।
आज स्थिति यह है कि वो सिर्फ नाममात्र के मुख्यमंत्री रह गए हैं।”अजीत सिंह कहते हैं कि महागठबंधन से अलग होने के बाद नीतीश कुमार ने अगर दोबारा जनादेश लेने की कोशिश की होती और बीजेपी के साथ नहीं गए होते तो उन्होंने एक बड़ा राजनीतिक आदर्श देश के सामने रखा होता, लेकिन ऐसा न करके उन्होंने बड़ी ऐतिहासिक भूल की। उनके मुताबिक, “जनादेश का इससे बड़ा अपमान और कुछ हो नहीं सकता कि जिसके खिलाफ आपने जनादेश लिया हो, बाद में उसी के पाले में जाकर बैठ जाएं।”