क्या सोनिया गांधी आम चुनाव में एक बार फ़िर मजबूती से सामने आएंगी, जिस तरह साल 2004 में उन्होंने एनडीए को अपने दम पर सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था ऐसा की कमाल दिखा पाएंगी.
जानकारों का मानना है कि एयर स्ट्राइक के बावजूद संभव है कि एनडीए साल 2019 में बहुमत जुटाने में कामयाब ना हो. मौजूदा हालात में कांग्रेस की हालत बहुत बेहतर तो नहीं हैं लेकिन तमाम क्षेत्रीय दल तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल, टीडीपी, आरजेडी जैसी पार्टियां बीजेपी के खिलाफ़ राज्य में मुहिम छेड़े हुए हैं.
लेकिन विपक्षी गठबंधन की सबसे बड़ी समस्या है कि उनके पास नेतृत्व के लिए चेहरों का अभाव है. कांग्रेस की सबसे बड़ी असफ़लता ये रही कि वह आम आदमी पार्टी को अपने साथ शामिल नहीं कर सकी.
कांग्रेस नरेंद्र मोदी की सरकार को सत्ता से बाहर तो करना चाहती है लेकिन सीटों के बंटवारे को लेकर अब भी ठहरी हुई है. सोनिया गांधी इकलौती ऐसी शख्सियत हैं जो राहुल गांधी और अहमद पटेल को बलिदान देने के लिए कहने का माद्दा रखती हैं.
एक ओर एयर स्ट्राइक के बाद नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने अपने सहयोगियों को जोड़े रखा, अनुप्रिया पटेल की नाराज़गी दूर की. वहीं दूसरी ओर कांग्रेस दिल्ली में और उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के साथ गठबंधन करने में नाकाम रही. अभी भी सपा और बसपा इस इंतजार में हैं कि प्रियंका गांधी या ज्योतिरादित्य सिंधिया में से कोई सीटों के बंटवारे के लिए बातचीत की पहल करे.
अब ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि इस चुनाव में सोनिया गांधी एक बार फिर बड़ी भूमिका निभा सकती हैं.राहुल गांधी और उनकी टीम इस वक्त अपने सहयोगियों को जुटा पाने में नाकाम साबित हो रही है. एक मां के तौर पर वह ये शायद जानती हैं कि राहुल की अपनी सीमाएं क्या हैं और परेशानियां क्या हैं. लेकिन वह अपने राजनीतिक अनुभव का इस्तेमाल इस वक्त करने में हिचकिचा रही हैं.
कुछ वक्त पहले तक माना जा रहा था कि सोनिया गांधी इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगी, लेकिन गांधी परिवार के लिए राजनीति छोड़ना कभी आसान नहीं रहा.
1950 में इंदिरा गांधी अपने पति फ़िरोज गांधी की मौत के बाद पिता जवाहर लाल नेहरू का घर छोड़कर विदेश में शिफ्ट होना चाहती थीं. लेकिन हालात ने उन्हें साल 1959 में सक्रिय राजनीति में आने पर मजबूर कर दिया. पिता की मौत के बाद और अपनी मौत तक वो राजनीति में ही रहीं.
इसके बाद राजीव गांधी राजनीति में आए. सोनिया कभी नहीं चाहती थीं कि राजीव गांधी राजनीति में कदम रखें. राजीव गांधी की मौत के बाद 1998 में नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी ने कांग्रेस को एक संगठन के तौर पर कमज़ोर किया. जिसके बाद सोनिया ने कांग्रेस को संभाला. एक ‘विदेशी बहू’ से लेकर एक प्रखर नेता तक का सफ़र सोनिया गांधी ने भारत में तय किया है. सोनिया ने गठबंधन और सहयोगियों के दौर को बखूबी समझा और कांग्रेस को दोबारा जीवित किया.
ऐसा ही एक वाकया है जब मुलायम सिंह यादव और सोनिया गांधी सहित कई नेताओं को खाने पर बुलाया था. इस दौरान सोनिया हिल्सा मछली खा रही थीं, इस पर मुलायम सिंह यादव ने कहा, “हिल्सा है, कांटा है चुभ जाएगा.” इसके जवाब में सोनिया गांधी ने कहा, “मैं कांटों से जूझना जानती हूं.”
सोनिया गांधी लोगों को बांधे रखने की कला खूब समझती है. उन्होंने डीएमके को यूपीए में जोड़ा. डीएमके में कई पूर्व कांग्रेस नेता थे, साथ ही इस पार्टी पर चरमपंथी संगठन एलटीटीई के साथ नरमी बरतने का भी आरोप लगता रहा.
इन सबके वाबजूद 2004 से लेकर 2014 तक डीएमके, यूपीए गठबंधन का हिस्सा रहा. यहां तक कि एनसीपी को भी उन्होंने गठबंधन में शामिल किया. सोनिया गांधी का सहयोगियों को संभाले रखने का तरीका वाजपेयी और पीवी नरसिम्हा रॉव से भी बेहतर था.
साल 2007 में नीदरलैंड की यूनिवर्सिटी में “लीविंग पॉलिटक्स: भारत ने मुझे क्या सिखाया” मुद्दे पर बोलते हुए कहा था कि कई घटनाओं ने मुझे सिखाया, मेरी राजनीति की समझ विकसित की. लेकिन मुझे दो बातें साफ़ तौर पर याद हैं.
पहला तो, 1971 का संकट जिसने इंदिरा जी को एक स्टेटमैन के तौर पर स्थापित किया. दूसरा, एक राजनेता के तौर पर उनका भारत को आगे ले जाने का दृढ़ संकल्प. उन्होंने कई मुश्किल फ़ैसले लिए जिसने भारत को सफल और बेहतर देश बनाया.
भारत को लेकर मेरी समझ अलग तरह से विकसित हुई. मेरी सास की मौत के बाद हमारी दुनिया में उथल-पुथल मच गई और ऐसा होना स्वभाविक है जब आप अपने करीबी को खोते हैं तो ये होता है.
इंदिरा जी और उनके पिता के बीच चिट्ठियों की बातचीत को मैंने एडिट किया और काफी कुछ वहां से जाना. जब वह युवा थीं तो नेहरू जी कई बार जेल गए और इस दौरान दोनों के बीच पत्र व्यवहार होता. सोनिया ने कहा था कि दोनों के बीच हुई इस बातचीत ने ही मुझे स्वतंत्रता के दौर के भारत से रूबरू कराया.
अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी के बारे में विस्तार से बात करते हुए एक बार सोनिया गांधी ने कहा था कि प्रधानमंत्री की बहू के तौर पर उनका जीवन राजनीति की उथलपुथल से भरा रहा.
उन्होंने कहा था, “पीछे मुड़ कर देखूं तो मैं कह सकती हूं कि मेरे लिए राजनीति की दुनिया का रास्ता मेरी निजी ज़िंदगी से ही हो कर गुज़रा था – मैं उन लोगों के बेहद करीब थी जिनके लिए विचारधारा से जुड़े सवाल और धारणाएं बेहद अहम थीं और उनके लिए राजनीति और प्रशासन से जुड़ी बातें रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा थीं.”
उन्होंने कहा कि राजनीति से जुड़े परिवार में रहने के कई और पहुलु भी होते हैं जिनका असर एक युवा बहू पर पड़ता है. “मैंने सीखा कि सार्वजनिक जीवन में कैसे सहज होना है, मुझे लोगों की नज़रें निजी ज़िदंगी में घुसती हुई लगती थीं और मुझे इससे निपटना मुश्किल लगता था. मैंने अपनी स्वच्छंदता और स्पष्ट और तीखी बात करने की आदत को भी रोकना सीखना पड़ा. सबसे अधिक मुझे ये भी सीखना पड़ा कि कोई आपको अपशब्द कहे तो भी आपको शांत रहना है. मैंने अपने परिवार के दूसरे लोगों की तरह ये सब सीखा.”
अपने वक्तव्य में सोनिया ने कहा था, “जो भारत से बेहतर तरीके से परिचित हैं वो सभी जानते हैं कि हमें लोग मुखर कहते हैं. जैसा कि नोबल विजेता और जानेमाने लेखक अमार्त्य सेन ने अपनी किताब ‘द ऑर्ग्यूमेन्टेटिव इंडियन’ में कहा था मौत की सच्चाई के चेहरे पर किसी भारतीय को जो बात विचलित करती है वो ये है कि वो इसके बाद कभी पलट कर तर्क नहीं कर पाएगा.”
“इसके कोई आश्चर्य नहीं है कि तर्क और उग्र विवाद भारत में सार्वजनिक जीवन की विशेषता हैं. राजनीति का शोर हमारे गणतंत्र के संगीत की तरह है.”
साल 2016 में जब सोनिया गांधी 70 साल की हुईं तो उन्होंने फ़ैसला किया कि वो आख़िरकार राजनीति को गुडबाय कह देंगी.
लेकिन केंद्र के राजनीतिक पटल पर मोदी के आने, अपनी दावेदारी को और पुख्ता करने और एक और बार मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनने की संभावनाओं के बीच फिर से “दोबारा सोनिया गांधी” जैसी आवाज़ें अब सुनाई दे रही हैं.
वास्तव में इससे दो बातें साफ़ दिखती हैं- पहला ये कि एक मां के तौर पर वो राहुल गांधी को सफल होता हुआ देखना चाहती हैं, दूसरा ये आकलन कि सोनिया गांधी का नाम एक बार फिर डीएमके, आरजेडी, तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी, समाजवादी पार्टी, बसपा, वामपंथी पार्टियों और अन्य पार्टियों को एक मंच पर लाकर महागठबंधन बनाने में मदद कर सकता है.
ममता बैनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, एमके स्टालिन, तेजस्वी यादव और शरद पवार के बीच में अहंकारों के टकराव की संभावना एक बड़ी हक़ीक़त है.
सोनिया गांधी को लोग उतने सम्मान से नहीं देखते हैं जितना सम्मान से वो 1975-77 में जयप्रकाश नारायण या 1989, 1996 ओर 2004 में वीपी सिंह और हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे नेताओं को देखते थे, ना ही सोनिया गांधी की स्वीकार्यता ही उस तरह है लेकिन फिर भी उनमें इतना दम है कि वो आपस में लड़ने वाली दो पार्टियों को एक साथ ले आएं.
एक बार फिर ये समझना ज़रूरी है कि सोनिया और राहुल गांधी दोनों ही शक्ति का उपयोग करने वालों में से नहीं हैं, वो खुद को शक्ति के केंद्र के रूप में देखते हैं. साल 2004-2014 में सोनिया गांधी ने ये दिखा दिया कि वो बिना प्रधानमंत्री के पद पर बैठे भी सबसे अधिक शक्तिशाली और सबसे अहम हो सकती हैं.
जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तब भी राहुल गांधी ने इस पद से दूर रहना पसंद किया और अब 49 साल की उम्र में भी प्रधानमंत्री के पद के लिए दावेदारी दिखाने की कोई जल्दी नहीं है. और शायद यही सोनिया गांधी के लिए ट्रंप कार्ड साबित हो.
रशीद किदवई,
(बीबीसी से साभार)