अलोक कुमार
१२ जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देवघर आ रहे हैं। देवघर बाबा बैद्यनाथ की विश्व प्रसिद्ध नगरी है। इसे लेकर बड़ा उत्साह है। प्रधानमंत्री देवघर में चार घंटे पूजापाठ और जनसभा के लिए ठहरेंगे। इस मौके पर वह बनकर तैयार देवघर विमानपतनम और अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान (एम्स) अस्पताल की सौगात झारखंड को भेंट करेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री के झारखंड दौरे से पहले एक बार राज्य के राजनीतिक हालात का जायजा लेना भी जरूरी है। इस समय राज्य में झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार है जिसमें कांग्रेस भी शामिल है। भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में है। विपक्ष के पास सरकार की अकर्मण्यता के तमाम आंकड़े हैं। ताजा रिपोर्ट के मुताबिक मुकदमों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार 2022-2023 में आवंटित बजट का अब तक महज नौ प्रतिशत हिस्सा ही खर्च कर पाई है। पहली तिमाही में ज्यादातर विभागों ने योजना और गैर योजना मद में निराशाजनक प्रदर्शन किया है। इसलिए सियासी भविष्य और बड़े बदलाव के लिए भाजपा प्रधानमंत्री के दौरे को हाईजैक करने की तैयारी में है। विधायक दल नेता बाबूलाल मरांडी संथाल परगना में घर घर घूमकर लोगों को प्रधानमंत्री के आव भगत में देवघर पहुंचने का न्यौता दे रहे हैं। राजनीतिक संकट की आहट से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सतर्क हैं। वो पहले ही दिल्ली जाकर गृहमंत्री अमित शाह से मिल आए हैं। इसके साथ ही वो देवघर आकर खुद प्रधानमंत्री के आगमन और बाबा दरबार में भक्तों के पहुंचने की तैयारियों का जायजा ले रहे हैं। प्रधानमंत्री के दौरे को लेकर भाजपा की अति सक्रियता के बावजूद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पास अब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री सी चंद्रशेखर राव जैसा न तो हौसला है और न ही अब विरोध का वह साहस बचा है कि वह राज्य में आ रहे प्रधानमंत्री के स्वागत के लिए खुद के बजाय किसी मंत्री को भेजकर प्रोटोकॉल की खानापूर्ति कर लें। वो दिन कुछ और थे जब कांग्रेस की शह पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के दौरान प्रधानमंत्री से यह कहकर विरोध दर्ज करा दिया था कि वह एकपक्षीय संवाद करते हैं। उनका आशय था कि सीएम पीएम कांफ्रेंस में बाकियों को बोलने का मौका देने के बजाय खुद की सुनाते रहते हैं। झारखंड की यूपीए सरकार 2019 में महाराष्ट्र की उद्धव सरकार की तर्ज पर ही बनी थी। सत्ता को भाजपा से दूर ले जाने के लिए गैर भाजपा दल मिले और सरकार बना ली। लेकिन ढाई साल से हेमंत सोरेन की बड़ी सफलता है यही है कि अब गिरी तब गिरी के अटकलों के बीच वह अपनी सरकार बचाए हुए हैं। झारखंड सरकार की स्थिति भी महाराष्ट्र जैसी ही बन गयी है भले ही दोनों के बीच दो हज़ार किलोमीटर फासला है। इस समय दोनों राज्यों में सियासी रूप से कई बड़ी समानताएं साफ दिख रही हैं। पहली समानता यह है कि दोनों ही राज्य वंशवाद की एक समान राजनीति में डूबे हैं। वहां बाल ठाकरे का परिवार स्वयं को महाराष्ट्र का स्वाभाविक राजनीतिक परिवार समझता है तो यहां शिबू सोरेन का परिवार झारखंड की राजनीति पर अपना स्वाभाविक अधिकार मानता है। दोनों ही परिवारों में लगभग एक जैसे पारिवारिक झगड़े झमेले भी है। परिवार में जो बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी बनना चाहते थे वो नहीं बन पाये जो बने उन्हें परिवार में ही कोई उत्तराधिकारी मानने को तैयार नहीं है। इसलिए दोनों ही दल भले ही अपने अपने राज्य में राजनीतिक विरासत संभालने का दावा करते हों लेकिन नेतृत्व का संकट दोनों जगह है। असल में झारखंड में शिबू सोरेन की पार्टी सीधे भाजपा के साथ जाती है तो राज्य की मुस्लिम आबादी और सक्रिय ईसाई मिशनरियों के नाराज होने का खतरा है जो इस समय उनके साथ हैं। ऐसे हालत में राज्य में कांग्रेस के मत प्रतिशत में बड़े उछाल की गुंजाइश पैदा हो जाएगी। लेकिन दूसरी ओर हेमंत सोरेन की व्यक्तिगत मजबूरियां ऐसी हो गयी हैं कि वो भाजपा के साथ जाने में अपनी भलाई देख रहे हैं। लिहाजा, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के लिए एक तरफ कुंआ तो दूसरी तरफ खाई की नौबत बन गयी है। पार्टी बचाने जाएं तो खुद खत्म होने का खतरा है और खुद को बचाये तो पार्टी के डूबने का संकट। देवघर में प्रधानमंत्री के दौरे को लेकर भाजपा नेता इसलिए भी उत्साहित हैं क्योंकि इस दौरे के बाद राज्य में बडे राजनीतिक उलटफेर का पूरा अंदेशा है। भाजपा नेताओं की माने तो चंद दिनों में यूपीए सरकार का औंधे मुंह गिरना तय है। अब यह मुख्यमंत्री की निजी काबिलियत पर है कि महाराष्ट्र की महाअघाडी सरकार गिरने के बाद वह और कितने दिनों तक कांग्रेस के साथ वाली सरकार को चला सकते हैं। क्योंकि अदालत में लंबित मुकदमे के मुताबिक हेमंत सरकार के भ्रष्टाचार का एक सिरा महाराष्ट्र के सुरेश नागरे आदि उन व्यक्तियों से जुड़ा है जिन्होंने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को 2013 से मुंबई के एक होटल में हुए बलात्कार के मामले में फंसा रखा था। इसे लेकर कहा जाता रहा कि झारखंड के हेमंत सोरेन की जान महाराष्ट्र के महाआघाडी सरकार में फंसी थी। क्योंकि दोनों ही राज्यों में कांग्रेस पार्टी प्रमुख घटक रही इसलिए हेमंत सोरेन निश्चिंत थे। अब महाराष्ट्र में कांग्रेस सरकार से बाहर हो गयी है तो हेमंत सोरेन की चिंता भी बढ गयी है। हेमंत सोरेन का एक धर्मसंकट राष्ट्रपति का चुनाव भी है। भाजपा ने एक आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मु को अपना उम्मीदवार बनाया है जबकि विपक्ष की ओर से यशवंत सिन्हा उम्मीदवार हैं। दोनों का किसी न किसी रूप में झारखंड से जुड़ाव है। ऐसे में हेमंत सोरेन के लिए तय कर पाना मुश्किल है कि राष्ट्रपति चुनाव में वो किसके साथ जाएं। अभी वो कांग्रेस के साथ यूपीए गठबंधन में है इसलिए उनके लिए जरूरी है कि वो यशवंत सिन्हा का समर्थन करें। लेकिन अगर वो ऐसा करते हैं तो राज्य में उनकी आदिवासी छवि को धक्का लगेगा। चाहकर भी वो अपने 30 विधायकों और 2 सांसदों को आदिवासी उम्मीदवार के खिलाफ मतदान के लिए नहीं कह सकते। कुर्सी बचाने के लिए अगर वो ऐसा करते हैं तो झारखंड मुक्ति मोर्चा में वंशवाद के खिलाफ भी वैसा ही बगावत का बिगुल बज सकता है जैसा महाराष्ट्र में बजा है। फिलहाल भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे मुख्यमंत्री पर कई निजी आक्षेप भी हैं। इन सबसे बचने के लिए भाजपा की शरण में चले जाना हेमंत सोरेन के लिए एक बेहतर विकल्प बन सकता है। पर सवाल यह है क्या भाजपा उनको मुख्यमंत्री की हैसियत में अपना पाएगी? या फिर भाजपा और झामुमो की सरकार से बतौर उपमुख्यमंत्री अपना राजनीतिक कैरियर शुरु करनेवाले हेमंत सोरेन राज्य में दो बार मुख्यमंत्री रहने के बाद एक बार फिर उपमुख्यमंत्री बनना पसंद करेंगे?(एक व्लाक से साभार )