संवाददाता द्वारा
रांची. अंडर-17 वीमेंस फीफा वर्ल्ड कप के लिए इंडिया कैंप में झारखंड की 7 बेटियों के चयन के बाद राजधानी रांची के ग्रामीण इलाकों में उत्साह का माहौल है. इस चयन ने ग्रामीण इलाकों में फुटबॉल खेल रही बेटियों में खुशी की एक लहर पैदा कर दी है. साथ ही देश के लिए खेलने की एक उम्मीद भी पैदा की है.
राजधानी रांची में आसमान से बरसती आग के बीच बेटियों की फुटबॉल में सफलता किसी ताजी हवा के झोंके की तरह आई है. झारखंड की सात बेटियों के फीफा वर्ल्ड कप के लिए इंडिया कैंप में चयन ने ग्रामीण इलाकों में एक अजीब सी बेचैनी पैदा कर दी है. इस बेचैनी में देश के लिए खेलने की ललक नजर आती है.
रांची के कांके प्रखंड के उलातू पंचायत में मिशन 50 के तहत बेटियों को प्रोफेशनल फुटबॉलर के तौर पर तैयार करने की कोशिश चल रही है. 8 से 16 साल तक की उम्र वाली यह बेटियां चरदी, चंदरा, कुम्हरिया और सोसो समेत आसपास के गांवों से है. मिशन 50 के तहत प्रशिक्षण ले रही इन बच्चियों में दो दिव्यानी कुमारी और विनीता कुमारी को बेहद प्रतिभाशाली बताया जा रहा है. कोच बबलू बताते हैं कि जल्द ही यह दोनों बच्चियां राष्ट्रीय टीम में शामिल नजर आएंगी.
महज 12 साल की विनीता कुमारी बताती है कि पिता बचपन में ही गुजर गए, जबकि मां मजदूरी करने रांची जाती है. ऐसे में उसका लक्ष्य है कि वह अपनी मां के सपनों को पूरा करे.
बेहद गरीब परिवार से आने वाली इन बेटियों का सपना देश के लिए खेलने के साथ-साथ फीफा वर्ल्ड कप खेलना है. चरदी गांव के ही तीन युवकों ने इन बच्चियों की तमाम जरूरतें और जिम्मेदारियों को उठाने का बीड़ा उठाया है. कोच बताते हैं कि मिशन फिफ्टी के तहत खेल रही इन बेटियों में कई देश के लिए खेलने का माद्दा रखती हैं. और जल्द ही राष्ट्रीय टीम में नजर आएंगी.
फुटबॉल खेलने वाली ये बेटियां जिस गांव से ताल्लुक रखती हैं वहां के तमाम घरों में हड़िया बनाने का काम होता है. पूरा गांव नशे में डूबा है, लेकिन बेटियों का नशा तो फुटबॉल ही है. रांची के कांके प्रखंड के उलातू पंचायत के आसपास बसे गांव नशे के लिए बदनाम माने जाते हैं. आमदनी का जरिया नहीं होने की वजह से गांव की ज्यादातर महिलाएं अपने घर में हड़िया बनाने का काम करती हैं. गांव के पुरुष राजधानी में मजदूरी करने के लिए जाते हैं. लेकिन परिवार की जिम्मेदारी इतनी ज्यादा है कि आमदनी बढ़ाने के लिए हड़िया बेचना उनकी मजबूरी बन जाती है. घर के ऐसे हालात से समझा जा सकता है कि बेटियां घर के किन हालात से निकलकर मैदान तक पहुंचती हैं. चरदी गांव में रहने वाली 12 साल की फुटबॉलर सुलेखा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.
हालांकि गांव में कई फुटबॉलर बेटियां ऐसी भी हैं, जिनके पिता नहीं हैं. लेकिन मां की इच्छाशक्ति और मजदूरी ने बेटियों के सपनों का भार उठा रखा है. कोच बताते हैं फुटबॉल खेलने वाली गांव की तमाम बेटियां उनकी जिम्मेदारी हैं