बिहार में लोकसभा चुनाव की विशिष्टता इस बार यह है कि पांच साल बाद एक बार फिर बीजेपी ‘छोटे भाई’ के तौर पर मैदान में उतरने को मजबूर है। ऐसे में चुनाव जीतने के लिए प्रचार पर ध्यान केंद्रित करने के बजाए बीजेपी नेता और कार्यकर्ता गठबंधन के नए समीकरणों को ही समझने में उलझे हुए हैं। इस सबसे कार्यकर्ताओं में एक किस्म की व्याकुलता है और बहुत से तो सरगोशियों में बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व की बुद्धि पर ही सवाल उठा रहे हैं कि आखिर जेडीयू के सामने इतना झुकने का कारण क्या है।
बिहार में बीजेपी और जेडीयू, दोनों ही 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। राज्य की कुल 40 लोकसभा सीटों में से बाकी की 6 सीटें सहयोगी दलों के हिस्से में आई हैं। और हकीकत यह है कि गठबंधन की शर्तें हों, या फिर उम्मीदवारों का चयन, सबमें चल नीतीश कुमार की ही रही है।
बीजेपी ने 2014 के चुनाव में जेडीयू के बिना 30 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और 22 पर जीत हासिल की थी। लेकिन इस बार उसे सिर्फ 17 सीटों से संतोष करना पड़ा है। एक तरह से इसे माना जा रहा है कि बीजेपी ने नीतीश कुमार के सामने हथियार डालकर अपनी जीती हुई 5 सीटें बिना किसी बड़े कारण के कुर्बान कर दीं।
बिहार में जिन सीटों का राजनीतिक महत्व अधिक है, वो सारी सीटें जेडीयू ने हथिया ली हैं। आसान समझी जाने वाली सीटों को लेकर कोई खास रस्साकशी नहीं हुई। बाकी सीटें बीजेपी और राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के लिए छोड़ दी गईं।
दरअसल 2014 के बाद से बीजेपी कार्यकर्ता और समर्थकों के हौसले बुलंद रहे हैं और ऐसे में उन्हें दोयम दर्जे का रवैया झेलना पड़ रहा है, जिसे समझने में उन्हें दिकक्त हो रही है। इन कार्यकर्ताओं और समर्थकों का मानना है कि गठबंधन धर्म के नाम पर बीजेपी बड़ी कीमत चुका रही है। संघ परिवार से जुड़े लोगों और कार्यकर्ताओं में एक ही बात बार-बार सुनने को मिल रही है, “आखिर हर बार बीजेपी को ही क्यों कुर्बानी देना पड़ रही है?”
इस सवाल के पीछे उनके अपने तर्क भी हैं। 1990 के दशक के आखिरी वर्षों में बीजेपी ने लालू प्रसाद यादव का मुकाबला करने के लिए नीतीश कुमार को खुली छूट दे दी थी। नीतीश कुमार को पिछड़ों का बड़ा चेहरा माना जाता है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नीतीश कुमार हर बार बीजेपी को ब्लैकमेल करते रहे हैं, और सत्ता के लोभ में बीजेपी उनके सामने झुकती रही है।
उन दिनों जेडीयू समता पार्टी के रूप में जाना जाता था और उसके कार्यकर्ताओं का आधार बहुत थोड़ा सा था। यहां तक कि हर बूथ पर कार्यकर्ताओं की तैनाती के लिए भी उसे मशक्कत करना पड़ती थी। फिर भी बीजेपी ने उस दौर में हुए विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जेडीयू को ज्यादा सीटें दीं।लेकिन, 2014 के चुनावों से हालात और समीकरण दोनों बदल गए।
जेडीयू ने 2013 में एनडीए से अलग होने का ऐलान करते हुए बीजेपी से नाता तोड़ लिया और अलग चुनाव लड़ा। उस वक्त बीजेपी को पहली बार बिहार में बड़े भाई के रूप में सामने आने का मौका मिला। लेकिन कुछ समय बाद ही नीतीश कुमार की एनडीए में वापसी से बिहार में फिर से राजनीतिक समीकरण बदल गए। बीजेपी को सबसे पहले उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी की बलि देना पड़ी, क्योंकि नीतीश कुमार उपेंद्र कुशवाहा को पसंद नहीं करते। इसके बाद नीतीश ने सौदेबाज़ी कर बीजेपी के बराबर सीटें हासिल कर लीं।
नए राजनीतिक परिदृश्य से बीजेपी खेमे में असमंजस की स्थिति बन गई क्योंकि कई महत्वपूर्ण सीटें जेडीयू के खाते में चली गईं। विश्लेषक मानते हैं कि वर्चस्व के इस संघर्ष का असर 3 मार्च को पटना के गांधी मैदान में ही संकल्प रैली में देखने को मिला। इस रैली को पीएम मोदी ने संबोधित किया था। रैली को लेकर कोई खास उत्साह देखने को नहीं मिला और बहुत से बीजेपी कार्यकर्ताओं ने खुद को इससे दूर रखा। यहां तक कि पार्टी के तेजतर्रार नेता गिरिराज सिंह भी रहस्यमय तौर पर रैली से नदारद रहे।
इसके अलावा भी बीजेपी कार्यकर्ताओं को एक बात परेशान कर रही है, और वह यह है कि गठबंधन से वोटरों में यह संदेश गया है कि बिहार में बीजेपी को चुनाव जीतने के लिए बैसाखी की जरूरत है। यह इस बात की भी स्वीकारोक्ति है कि मोदी का जादू अब कहीं नहीं चल रहा, बिहार भी उससे अलग नहीं है।
और, इस सबसे बढ़कर यह बात भी बिहार के राजनीतिक माहौल में है कि अगर चुनाव नतीजे मनपसंद नहीं आए तो नीतीश कुमार मौका पड़ने पर एनडीए से फिर नाता तोड़ सकते हैं। नीतीश कुमार इस विकल्प को हमेशा से खुला रखते आए हैं।
यूं भी जेडीयू के नए नवेले उपाध्यक्ष और नीतीश कुमार के चहेते प्रशांक किशोर विरोधी खेमे से लगातार संपर्क बनाए ही रहते हैं। ध्यान यह भी रखना होगा कि 3 मार्च की संकल्प रैली के दिन वह पटना में थे, लेकिन रैली में नहीं गए थे।
(सुरुर अहमद)