पिछले तीन साल से देश में गहरा कृषि संकट पसरा हुआ है। रोजगार का संकट भी देश में पिछले 45 साल के चरम पर है। देश में स्वास्थ्य सेवा का हाल भी शिक्षा क्षेत्र जैसा है। जहां तक लैंगिक भेदभाव की बात है, तो ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ का भी जमीन पर कोई असर नहीं है।
हालांकि बीजेपी नहीं चाहती कि चुनावों के दौरान उसके कथित राष्ट्रवाद के अलावा कोई बात हो, लेकिन सच्चाई यह है कि आम लोग मुख्यतः पांच-छह मुद्दों पर बात कर रहे हैं। ये मुद्दे ऐसे हैं जिनसे जनता परेशान है, पर केंद्र सरकार ने इनके समाधान की दिशा में कोई काम नहीं किया। इन मुद्दों को ठीक से समझना जरूरी है।
पहला मुद्दाः कृषि संकट : –
लगभग पिछले तीन सालों से पूरे देश में गहरा कृषि संकट पसरा हुआ है। किसानों के अनेक आंदोलन भी हुए, लेकिन किसानों को अपनी समस्याओं का कोई मुकम्मल निदान नहीं मिला है। इसका मुख्य कारण है कि देश में कृषि विकास दर पिछले चार साल में औसत रूप से 1.9 फीसदी रही है। कृषि उत्पादन में भारी इजाफा हुआ, लेकिन कृषि उपज के बाजार भावों में भारी गिरावट आई। नतीजन अधिक उत्पादन भी किसानों के लिए गले की फांस बन गया।
मोदी सरकार ने सत्ता पर काबिज होते ही किसानों की आय को दोगुना करने का डंका पीटा था, लेकिन आज खेती में उत्पादन लागत निकालना बड़ी चुनौती बन गई है। मोदी सरकार ने जाते-जाते न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी का दावा किया। लेकिन इससे किसानों की आमदनी में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। सीमांत किसानों और खेतिहर मजदूरों की स्थिति सबसे ज्यादा दयनीय है।
देश में 67 फीसदी किसान सीमांत किसान हैं, जिनके पास एक हेक्टेयर या इससे कम जोत है। ऐसे 10 करोड़ किसान परिवारों की खेती से आमदनी बेहद कम है और खर्च ज्यादा। सरकारी आकलनों के मुताबिक सीमांत किसान खेती से औसतन 1308 रुपये मासिक कमाता है, जबकि उसका मासिक जीवन निर्वाह खर्च 5401 रुपये है। इस विशाल अंतर को पाटने के लिए वह अन्य काम करता है या सूदखोरों से जानलेवा ब्याज दरों पर कर्ज लेने को विवश है।
किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए गठित अशोक दलवई समिति का भी आकलन है कि सीमांत किसान खेती में घाटा झेलने को अभिशप्त हैं। केंद्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के अनुसार पांच एकड़ जोत वाले किसान (छोटे किसान) भी मासिक खर्चों से तकरीबन 28.5 फीसदी कम ही कमा पाते हैं। इसलिए किसानों की आत्महत्याओं की दर्दनाक घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। खेतिहर मजदूरों की आमदनी भी स्थिर सी है।
महंगाई के असर को हटा देने के बाद खेतिहर मजदूरी महज तीन फीसदी बढ़ी है, जो पिछले एक दशक में सबसे कम है। एनएसएसओ की आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार 2011-12 से 2017-18 के दरमियान खेत में काम करने वाले श्रम बल में 40 फीसदी की कमी आई है। करीब तीन करोड़ कृषि मजदूरों का काम छिन गया है। एक और सरकारी निर्णय से पूरी किसान बिरादरी को नुकसान हुआ है।
लगभग दो साल पहले पशु हाट में पशुओं के व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इससे मवेशियों के व्यापार में भारी गिरावट आई है। इसका किसानों की आमदनी और संपदा पर भी व्यापक प्रतिकूल असर पड़ा है। मवेशी व्यापार में कमी आने से गांवों में छुट्टा गोवंश के कारण नई समस्या पैदा हो गई है। इनसे खेती को बचाना अब किसानों के लिए बड़ा सिरदर्द बनता जा रहा है। इसका सबसे ज्यादा असर सीमांत किसानों और खेतिहर मजदूरों पर पड़ा है। किसानों की समस्याएं और असंतोष कभी चुनावों में निर्णायक मुद्दा नहीं बन पाता है, क्योंकि किसान एक दबाव समूह के रूप में संगठित होने की बजाए जातियों में बंटा हुआ।
दूसरा मुद्दाः रोजगार :
रोजगार का संकट 45 सालों के चरम पर है। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में रोजगार बड़ा मुद्दा बन कर उभरा है। रोजगार का संकट कितना गहरा है, इसे पिछले दो-तीन सालों में आई खबरों से लगाया जा सकता है। पिछले महीने खबर आई थी कि तमिलनाडु राज्य विधानसभा सचिवालय में 14 सफाईकर्मियों के लिए चार हजार से ज्यादा आवेदन आए, जिनमें अधिकांश आवेदनकर्ता एमबीए और इंजीनियर थे।
इससे पहले अगस्त 2018 में उत्तर प्रदेश पुलिस के टेलीकॉम विभाग में संदेशवाहक चपरासियों के 62 पदों के लिए तकरीबन 54 हजार स्नातकों, 28 हजार स्नातकोत्तरों और 3740 पीएचडी धारियों ने आवेदन किया था, जबकि इस पद के लिए पात्रता आठवीं पास थी।
अप्रैल 2018 में मुंबई पुलिस में हेडकांस्टेबल की भर्ती के लिए तकरीबन दो लाख आवेदन आए थे। इनमें बड़ी तादाद डॉक्टरों, वकीलों और इंजीनियरों की थी। इसी तरह तमिलनाडु पब्लिक कमीशन ने गांव स्तर पर 9500 लिपिकों की रिक्तियां निकाली थीं। इसके लिए आए 20 लाख आवेदनों में आठ लाख स्नातक, ढाई लाख स्नातकोत्तर और 23 हजार एमफिल किए हुए बेरोजगारों के आवेदन थे। 2015 में उत्तर प्रदेश विधानसभा सचिवालय की 368 चपरासियों के पदों के लिए 23 लाख उम्मीदवारों ने आवेदन किया, जिनमें 2.22 लाख इंजीनियर थे।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर सस्टेनबल एम्पावरमेंट के अध्ययन पत्र के अनुसार पढ़े-लिखों में बेरोजगारी दर औसत बेरोजगारी दर से तीन गुना ज्यादा है। देश के श्रम बाजार में 5.50 करोड़ स्नातक रोजगार के लिए प्रयासरत हैं, जिनमें 90 लाख के पास किसी तरह का रोजगार नहीं है। सीएमईआई के अनुसार सितंबर-दिसंबर 2018 के दरमियान उच्च शिक्षा प्राप्त श्रम योग्य बल में बेरोजगारी दर 13.2 फीसदी थी।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 25 सालों में पहली बार पुरुष श्रमिक बल में गिरावट दर्ज हुई। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 2017-18 में पुरुष श्रमिक बल 20.10 करोड़ रह गया, जो 2011-12 में 21.40 करोड़ था। इस रिपोर्ट में राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन के हवाले से बताया गया कि बेरोजगारी दर पिछले 45 सालों के सर्वोच्च पर है। सेंटर फॉर मानिटरिंग द इंडियन इकनॉमी के अनुसार 2018 से ही 1.10 करोड़ रोजगार कम हुए। 15-29 आयु वर्ग में बेरोजगारों की संख्या 2011-12 में 1.10 करोड़ थी जो 2017-18 में बढ़कर 3.10 करोड़ हो गई यानी 6 साल में 2 करोड़ बढ़ोतरी। पर दुखद बात यह है कि जातीय अस्मिता और धार्मिक उन्माद के बीच चुनावों में यह कोई कारगर मुद्दा नहीं रह गया।
तीसरा मुद्दाः महंगी शिक्षा :
उदारीकरण के बाद सार्वजनिक शिक्षा की भूमिका बहुत सीमित हो गई है। निजी शिक्षा संस्थाओं का प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक वर्चस्व कायम हो गया है। जिसका नतीजा है कि आज शिक्षा बहुत महंगी हो गई है। लेकिन चुनाव में महंगी शिक्षा कोई मुद्दा नहीं है। क्योंकि नेताओं के भी शिक्षा संस्थान कम नहीं हैं। सच यह है कि नेताओं ने ही उच्च निजी संस्थाएं खोलने की शुरुआत 90 के दशक में कर दी थी।
एनएसएसओ की एक रिपोर्ट के अनुसार 2008-14 के दरमियान शिक्षा 175 फीसदी महंगी हो गई। इसके बाद भी शिक्षा महंगाई बेलगाम है। व्यापारिक संगठन एसोचैम के मुताबिक अधिकांश अभिभावक अपनी आय का आधा हिस्सा बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर देते हैं। 12वीं तक आज अभिभावकों के 15-20 लाख रुपये बच्चों की पढ़ाई पर खर्च हो जाते हैं। 90 फीसदी अभिभावक बिना कर्ज के अपने बच्चों को इंजीनियरिंग और मेडिकल की शिक्षा दिलवाने में असमर्थ हैं।
चौथा मुद्दाः बेलगाम इलाज :
देश की कुल स्वास्थ्य सेवाओं में सरकारी हिस्सा महज 20 फीसदी है। सरकारी स्वास्थ्य तंत्र मूलतः उप स्वास्थ्य केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर आश्रित हैं। इसमें करीब एक लाख स्वास्थ्य कर्मियों की रिक्तियां खाली हैं। डॉक्टर अनुपस्थित रहते हैं। चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में 24 लाख लोग अकाल मर जाते हैं। इसकी मुख्य वजह स्वास्थ्य बजट में कमी, जो सकल घरेलू उत्पाद का 1.4 है। विश्व में यह औसत छह फीसदी है।
स्वास्थ्य पर केंद्र सरकार प्रति व्यक्ति सालाना 1112 रुपये खर्च करती है यानी 93 रुपये महीना या तीन रुपये रोजाना। इसलिए जेब से इलाज करने का खर्च बहुत ज्यादा है। 70 फीसदी स्वास्थ्य खर्च लोग अपनी जेब से खर्च करते हैं। इलाज के खर्च के कारण प्रति वर्ष सात फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे आ जाती है। लेकिन चुनावों में स्वास्थ्य सेवाओं की लचर हालत और महंगे इलाज का जिक्र करना भी कोई नेता मुनासिब नहीं समझता है।
पांचवा मुद्दाः लैंगिक भेदभाव :
मतदान में महिलाएं उत्साह से हिस्सा लेती हैं, लेकिन दलों को कोई परवाह नहीं है। भेदभाव और असमान व्यवहार में आशाजनक सुधार नहीं आया है। 2001 में 0-6 आयुवर्ग से प्रति हजार बच्चियों की संख्या 927 थी, जो 2011 में घटकर 919 रह गई। नीति आयोग खुद मानता है कि मालिकाना हक में उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
बेहद दुखद तथ्य है कि एसिड अटैक भी महिलाओं पर ज्यादा होते हैं। 72 फीसदी एसिड अटैक महिलाओं पर ही होते हैं। 15-49 आयु वर्ग में 70 फीसदी शादीशुदा महिलाएं घरेलू हिंसा या यौन शोषण की शिकार हैं। पिछले दशक में 80 लाख बच्चियों की भ्रूण हत्या हो चुकी है। ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ का कोई असर जमीन पर नहीं दिखाई देता है। देश में बाल विवाह अपराध है, फिर भी 27 फीसदी बाल विवाह होते हैं।
समान काम के लिए भी महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले औसतन 27 फीसदी कम भुगतान किया जाता है। महिलाओं की साक्षरता दर पुरुषों के मुकाबले 30 फीसदी कम है। ग्लोबल जेंडर सूचकांक की 149 देशों की सूची में भारत 108वें स्थान पर है। राजनीतिक दलों का रवैया महिला आरक्षण बिल से समझा जा सकता है, जो अरसे से संसद में अटका पड़ा है। लेकिन यह लैंगिक भेदभाव चुनावों में दूर-दूर तक कोई मुद्दा नहीं है। क्या आपने किसी नेता के भाषण में इसका जिक्र सुना है?
(राजेश रपरिया)