बंगाल-ओडिशा में नई राह तलाश रहे हैं बीजेपी

BJP is exploring new path in Bengal-Odisha

News Agency : एनडीए नेता निजी तौर पर बातचीत में मान रहे हैं कि बीजेपी बंगाल में ममता बनर्जी और ओडिशा में नवीन पटनायक को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पाई। संभवत: यह हताशा थी कि प्रधानमंत्री ने कहा कि ‘दीदी के forty विधायक उनके संपर्क में है…’एनडीए में शामिल एक राजनीतिक दल के नेता ने हाल ही में माना था कि इन दो राज्यों में बीजेपी से जितने अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद थी, वह वैसा करने में नाकाम होती नजर आ रही है।

बीजेपी को भरोसा था कि हिंदी पट्टी में जो भी नुकसान होगा, उसकी भरपाई इन दोनों राज्यों में बड़ी जीत हासिल कर पूरी कर ली जाएगा। हालांकि बीजेपी में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है जिन्हें लगता है कि वे ओडिशा में तो सारी सीटें और बंगाल में कम से कम twenty two सीटें जीत रहे हैं। लेकिन, अगर इन दोनों राज्यों में बीजेपी को कुछ हाथ नहीं लगा, तो फिर उसे लंबा इंतजार करना पड़ेगा।

गौरतलब है कि बंगाल में मुस्लिम बड़ी तादाद में हैं जबकि ओडिशा में मुस्लिमों की तादाद नगण्य. शायद हिंदुत्व का अधिक हिंदीकरण ही बीजेपी को पूर्वी और कर्नाटक के अलावा बाकी दक्षिण भारत में विस्तार करने से रोक रहा है। वैसे राम जन्मभूमि आंदोलन के दौर में बीजेपी के पास बंगाल और ओडिशा में अपने पैर जमाने का मौका था। यह वह समय था जब सोवियत संघ में वामपंथ दम तोड़ रहा था और चीन पूंजीवाद के रास्ते पर चल निकला था। कांग्रेस पार्टी इन दोनों ही राज्यों में कमजोर हो रही थी, ऐसे में किसी भी विपक्षी दल के उभरने का यह सही मौका था।

हालांकि बंगाल से भारतीय जनसंघ के एक-दो नेता निकले हैं, और ऐसे में भगवा विचारधारा के बंगाल में पनपने की संभावना भी थी। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया और ममता बनर्जी अकेले अपने दम पर उभर कर सामने आईं। इसी तरह ओडिशा में बीजू पटनायक की मृत्यु के बाद नवीन पटनायक ने उनकी जगह को अच्छे से न सिर्फ भरा बल्कि विरासत को संभाले भी रखा। यह विडंबना ही कही जा सकती है कि इन दोनों ही नेताओं ने अपनी राजनीति के शुरुआती दौर में बीजेपी की मदद ली। लेकिन समय आने पर दोनों ने ही बीजेपी से रिश्ता खत्म कर दिया।

ममता ने 2004 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी की हार के बाद यह कदम उठाया, तो नवीन पटनायक ने 2008 के ईसाई विरोध आंदोलन में बीजेपी कार्यकर्ताओं की भागीदारी पर यह कदम उठाया। 2014 के लोकसभा चुनाव में यही दोनों नेता थे जिन्होंने मोदी के तूफान को अपने राज्य में घुसने नहीं दिया था। हालांकि इस तूफान में बिहार को विकास के पथ पर ले जाने का दावा करने वाले नीतीश कुमार जैसे नेता तक उड़ गए थे। लेकिन इस बार बीजेपी नेताओं को काफी उम्मीद थी कि इन दो राज्यों में उनकी स्थिति बेहतर होगी। इसका कारण भी था। बीजेपी ने बंगाल में तृणमूल से मुकुल राय और ओडिशा में बीजेडी से जे पांडा को तोड़ लिया। इसके अलावा संघ के थिंकटैंक को लगता था कि दोनों ही राज्यों में सत्ता विरोधी नाराजगी का फायदा बीजेपी को मिलेगा। लेकिन माहौल बीजेपी के माकूल नहीं नजर आता।

हालांकि बीजेपी ने बंगाली वोटों के तुष्टिकरण के लिए नागरिकता संशोधन कानून का सहारा तक लिया। बीजेपी के शीर्ष नेताओं को लगता था कि केंद्र में मोदी के शासन और वाम मोर्चे के साथ ही कांग्रेस के कमजोर होने से भी उसे बंगाल में नंबर एक पार्टी के रूप में उभरने का मौका मिलेगा। इसके लिए केंद्र ने सीबीआई और दूसरी सरकारी मशीनरी का भी इस्तेमाल किया। लेकिन इसका उसे कोई खास फायदा होता दिख नहीं रहा। राजनीतिक पंडितों को लगता है कि निकट भविष्य में भी कम से कम इन दोनों राज्यों में तो बीजेपी को कुछ हात नहीं लगने वाला।

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