News Agency : बिहार में महागठबंधन की महापराजय की सबसे बड़ी वजह आत्ममुग्धता है। सौदे की सियासत, आरक्षण पर प्रलाप और आंतरिक घमासान ने भी लालू घराने की पार्टी राजद, मांझी की हम, कुशवाहाकी रालोसपा और पप्पू घराने की जाप को हार के द्वार पर ढकेल दिया। महागठबंधन के तथाकथित महानायकों को समय रहते अपने कमजोर मोर्चों को दुरुस्त करना चाहिए था।भाजपा-जदयू-लोजपा की चाल के मुताबिक राजद, कांग्रेस, रालोसपा, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) और, वीआइपी को भी पैतरे बदलने और जीत की रणनीति बनानी चाहिए थी। लेकिन सबने अपने-अपने मुगालते का महल खड़ा किया और सीट बंटवारे और प्रत्याशियों के चयन में भी जमकर सौदेबाजी हुई।लालू प्रसाद के जिस माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण के सहारे सहयोगी दलों के प्रत्याशी मैदान में अकड़ रहे थे। वह भी उन्हें नहीं मिला। दूसरी ओर नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की स्वाभाविक दोस्ती ने बिहार में महागठबंधन की बड़ी हार का प्लेटफॉर्म पहले ही तैयार कर दिया था, जिसे शरद यादव, उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी जैसे अनुभवी नेता भी नहीं समझ सके।बिहार के मतदाताओं में मुस्लिम-यादव की हिस्सेदारी लगभग thirty फीसद मानी जाती है। अब तक कहा जाता था कि यह समुदाय लालू के इशारे पर ही वोट करते हैं। इस मुगालते में सबसे ज्यादा लालू के राजनीतिक उत्तराधिकारी ही थे। तेजस्वी ने कुछ महत्वाकांक्षी जातीय क्षत्रपों को जोड़कर मान लिया कि उन्होंने वोटों का पहाड़ खड़ा कर लिया है और जीत उनकी होगी।मुस्लिम-यादव के साथ मांझी, मल्लाह और कुशवाहा वोटर्स के वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर हुए या नहीं किसी को नहीं पता। लेकिन तेजस्वी यादव की यह आत्ममुग्धता सहयोगी दलों के शीर्ष नेताओं के मस्तिष्क तक जरूर ट्रांसफर हो गई। इसी मुगालते ने राजद-कांग्रेस की दोस्ती में दरार डाली।गरीब सवर्णों के आरक्षण को जहां राष्ट्रीय स्तर पर सभीदलों ने अपने-अपने तरीके से स्वागत किया। वहीं, बिहार के विपक्षी दलों ने इसका प्रखर विरोध किया। इसकी कमान तेजस्वी ने संभाली। राज्यसभा में राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनोज कुमार झा ने झुनझुना बजाकर जिस तरीके से सवर्ण आरक्षण का विरोध किया, वह लोगों को नागवार लगा।यहां तक कि राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने इसे मुद्दा बनाने से मना किया। किंतु उन्हें अनसुना कर तेजस्वी अपनी सभी चुनावी सभाओं में सवर्ण आरक्षण का विरोध करते रहे। आरक्षण के बहाने जनमत को भड़काने-बहलाने के पीछे जात-पात की राजनीति थी, जिसे पूरी तरह नकार दिया गया।
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