लाल सूरज नाथ शाहदेव:
ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जी के नेतृत्व में 1857 का झारखंड विद्रोह से ऐसा लगा जैसे अंग्रेजी हुकूमत पूरी तरह समाप्त हो गया।आज उनकी शहादत की 164 वीं वर्ष पर यह विशेष लेख।
अंग्रेज भारत मे ब्यापार करने की नीयत से आये थे लेकिन यहां कि धन संपदा और वैभव को देखते हुए उनकी नियत बदल गयी और वे यहां शाषन करने की योजना बना डाले। तत्कालीन भारतीय राजाओं की भूल और आपसी मदभेद के कारण अंग्रेज यहां लगभग 200 सालों तक भारतीयों पर शाषन करने में सफल हुए। उनके खिलाफ कई युद्ध हुए और विद्रोह भी हुआ। उसी में एक विद्रोह हुआ सैनिक विद्रोह 1857 में । इस विद्रोह में झारखंड भी पीछे नही रहा और ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जी के नेतृत्व में अंग्रजो के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। आज ही के दिन 16 अप्रैल 1858 को अमर शहीद ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जी की शहादत हुई थी। रांची के शहीद चौक स्थित कदम के पेड़ में उन्हें लटका कर फांसी दी गयी थी।
1857 के गदर के अमर शहीद ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जी का जन्म 12 अगस्त 1817 को बड़कागढ़ की राजधानी सतरंजी में हुआ था।इनके पिता का नाम रघुनाथ शाहदेव तथा माता का नाम वानेश्वरी कुँवर था। राजा एनी नाथ शाहदेव जी के द्वारा उदयपुर और कुंडा परगना को मिलाकर बड़कागढ़ राज्य की स्थापना की गयी थी।इन्ही की सातवी पीढ़ी में ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जी का जन्म हुआ था। जब ये मात्र 23 वर्ष के थे तब इनके पिता की मृत्यु 1840 में हो जाती है और राज्य का कार्य इन्हें संभालना पड़ा। इस समय विश्वनाथ शाहदेव जी ने अपनी राजधानी हटिया स्थित चिरनागढ़ में बनाया। इन्हें मालूम था कि ये नाम मात्र के राजा है सारी शक्तियां तो अग्रजो के पास है। अतः बचपन से ही इनके मन मे अग्रजो के खिलाफ घृणा का भाव भर गया था। इनका विवाह उड़ीसा के राज परिवार की राजकुमारी वानेश्वरी कुँवर के साथ हुआ था । 1853 में इनके मन मे अग्रजो के खिलाफ विद्रोह करने की इच्छा शक्ति पूरी तरह से परिपक्व हो चुकी थी। ये अपने सैन्य शक्ति को बढ़ाने लगे थे। इन्हें अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने का कोई बहाने की तलाश थी। इधर अंग्रेजों का हस्तक्षेप और अत्याचार लगातार बढ़ता ही जा रहा था। 1855 में इन्होंने सारी आशंकाओं को तोड़कर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया उन्होंने ब्रिटिश सरकार की आदेशों को मानने से इंकार कर दिया तथा स्वयं को एक स्वतंत्र राजा घोषित कर दिया था। इनकी ऐसी घोषणा से अंग्रेजी प्रशासन तिलमिला गई एवम उन्हें दंड देने के लिए तुरंत अंग्रेजों की एक फौज भेज दी गई। उस वक्त रामगढ़ बटालियन का मुख्यालय डोरंडा ही था ।वहां से सैनिक भेजकर इनके हटिया स्थित गढ़ पर हमला करवा दिया गया घमासान युद्ध हुआ। अंग्रेजों के काफी सैनिक मारे गए और अंग्रेजों को वहां से मुंह की खानी पड़ी और वापस लौट गए । इस लड़ाई में विश्वनाथ शाहदेव विजय हुए और वे काफी खुश थे। अंग्रेज इस घटना के बाद चुपचाप हो गए अभी दो वर्ष बीते भी नहीं थे कि हजारीबाग में 1857 के सिपाही विद्रोह का प्रभाव पड़ा और वहां के सैनिक छावनी में भी विद्रोह का बिगुल फूंक दिया गया। हजारीबाग छावनी में उस वक्त सातवीं और आठवीं बटालियन की पैदल सेना थी ।यह सूचना मिलते ही ग्राहम के नेतृत्व में रामगढ़ बटालियन का दो दस्ता बंदूकधारी और 30 घुंडसवार सेना विद्रोहियों से हथियार रखवाने के लिए भेजा गया। किंतु सैनिक वहां विद्रोह करने के बाद उनके सरकारी अधिकारियों को कुचलते हुए, कार्यालयों को तोड़ते हुए एवं आग लगाते हुए रांची की ओर चल पड़े थे। पिठोरिया के पास कुछ अंग्रेजों के भक्तों ने इन सैनिकों को रोकने का प्रयास किया तो यह लोहरदगा का मार्ग पकड़ लिए थे मजेदार बात यह हुई कि ग्राहम जिन सैनिकों को लेकर विद्रोहियों को दबाने निकला था उन सैनिकों को जब इस विद्रोह की सूचना मिली तो उनलोगों ने भी जमादार माधो सिंह के नेतृत्व में तत्काल ग्राहम के खिलाफ ही विद्रोह कर दिया था। यह 1 अगस्त 1857 का दिन था ग्राहम कि निजी संपत्ति को लोगों ने अपने कब्जे में ले लिया । आगे हजारीबाग ना जा कर पुनःये लोग तोपों के साथ रांची की ओर ही लौट गए थे। आगे चलकर इनका साथ दिया राजा टिकैत उमराव सिंह,तथा इनके दीवान शेख भिखारी । 2 अगस्त को 2 तोपों के साथ दोपहर 4:00 बजे में माधव सिंह एवं उनके साथी सैनिक तोपों से गोले छोड़ते हुए अंग्रेजों में भय पैदा करते हुए रांची में प्रवेश किए। अंग्रेज अधिकारी इतना भयभीत थे कि वे जल्द से जल्द सुरक्षित स्थान हज़ारीबाग़ बरही पहुंचना चाहते थे। उनलोगों को भारतीय सैनिकों पर भरोषा नही रहा था। अतः डाल्टन पत्र लिख कर यूरोपियन सैनिक की मांग किया था।
विद्रोही सबसे पहले रांची स्थित ई डाल्टन के आवास में गए लेकिन डाल्टन अपने अंग्रेज अधिकारियों के साथ एक घंटे पहले ही वे रांची छोड़ चुके थे वहां पर सिर्फ उनका नौकर मौजूद था। उसे उनलोगों ने कुछ नही किया। उसके बाद वे लोग कप्तान ओक एवं लेफ्टिनेंट मोनक्रिफ़स के घर गए एवम घरों में आग लगा दी।विद्रोहीयों ने बंदियों को छुड़ा लिया और चर्च में तोप से गोला छोड़ा और छतिग्रस्त किया। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जी को उन्हें इस विद्रोह का नेतृत्व करने के लिए कहा क्योंकि ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जी भी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह शुरू कर चुके थे उनकी बातें मान ली और इसे तत्काल स्वीकार कर लिया। रामगढ़ बटालियन के 600 विद्रोहियों का दल उस वक्त रांची में था फिर उनके साथ ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जी की सेना भी जुड़ गई और एक वक्त ऐसा लगा कि 1770 में स्थापित अंग्रेजी शासन का मानो 1857 में अंत हो गया था । डोरंडा में सभी यूरोपियन के घरों में आग लगा दी गई थी फाइलें जला दी गई थी कुएं में डाल दिए गए थे और एक प्रकार से अंग्रेजों को यहां से भागने के लिए विवश कर दिया गया था। रांची का विद्रोह सफल बनाकर अंग्रेजों को समूल नष्ट कर इन सैनिकों ने 11 सितंबर 1857 को शेरघाटी के लिए प्रस्थान किया। चतरा में मेजर इंग्लिश ने इन विद्रोहियों पर हमला कर दिया। यहां ये विद्रोही कमजोर पड़ गए और कुछ इनके विद्रोही पकड़े गए तो कुछ वहां से भागने में सफल रहे ।ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और पांडे गणपत राय भागकर लोहरदगा पहुंच गए तो माधव सिंह के बारे में कोई पता नहीं चला। राजा विश्वनाथ शाहदेव पांडे गणपत राय लोहरदग्ग पहुंचकर फिर से अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का प्रारंभ कर दिया था ।अंग्रेजों की परेशानी बढ़ने लगी थी और इन दोनों को पकड़ना उन लोगों ने अपना लक्ष्य बना लिया था । फिर कुछ अपने ही विश्वासघाती लोगों की मदद से अंग्रेज इनको पकड़ने में सफल हो जाते हैं। 16 अप्रैल 1858 को ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जी को आज के शहीद चौक के कदम के पेड़ पर इनको फांसी पर लटका दिया जाता है उसी के 5 दिनों के बाद यानी कि 21 अप्रैल 1858 को पांडे गणपत राय जी को भी फांसी दे दी जाती है ।
फांसी होने के बाद सरकार ने ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के 97 गांव को अपने कब्जे में कर लिया। उनके सतरंजी गढ़ एवं हटियागढ़ की किला को ध्वस्त कर दिया उनकी सारी चल अचल संपत्ति को ज़ब्त कर लिया गया।
ठाकुर साहब की धर्मपत्नी ठकुरानी बाणेश्वरी कुंवर की गोद में उस समय एकमात्र पुत्र जो 1 वर्ष का था ठाकुर कपिल नाथ शाहदेव को लेकर रानी खोरहा जंगल (गुमला जिला) अपने विश्वस्त जनों के साथ भाग गई। रानी को पता था कि अंग्रेजी सरकार उन्हें एवं उनके पुत्र को मारने के लिए तत्पर हो गई है।रानी( ठकुरानी )बाणेश्वरी कुंवर को खोरहा ग्राम में 12 वर्षों तक निर्वासित जीवन व्यतीत किया। इधर अंग्रेज परेशान से हो गए, उन्हें पता चला कि रानी बाणेश्वरी कुंवर कहीं छिप गई है, वे महल के मलवों में खोजने पर भी नहीं मिली। रानी के कुछ दासी चिरनागढ़ के समीप स्थित रानी चूआं में छलांग लगाकर चिर निद्रा में सो गई। इधर 12 वर्ष पूर्ण हो जाने के बाद ठकुरानी बाणेश्वरी कुवंर अपने पुत्र जो (हिंदू मिताक्षराी कानून के तहत वयस्क हो गया था) को आगे कर अंग्रेजों के समक्ष प्रकट हो गई और अंग्रेजी सरकार से बड़कागढ ईस्टेट को वापस करने की मांग की परंतु अंग्रेजी सरकार ने बड़कागढ़ ईस्टेट का संचालन के लिए एक कमिटी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया इन काउंसिल बना दी थी ,यह कहते हुए कि जिन जागींरदारों जमींनदारों के कोई बारिश नहीं होगा , वैसे जमीनदारी सीधे काउंसिल के तहत हो जाएगी, परंतु ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव का वारिस था इसलिए अंग्रेजों ने कहा कि कौंसिल बड़कागढ़ ईस्टेट का केयरटेकर के रूप में कार्य करता रहेगा ।अंग्रेजों ने व्यवस्था दिया कि बड़कागढ ईस्टेट से जो लगान सेक्रेटरी ऑफ ईस्टेट फोर इंडिया इन काउंसिल उगाही करती है, उसी में से जीविकोपार्जन के लिए ₹30 प्रति माह ठाकुरानी बाणेश्वरी कुवंर को दिया जाएगा और मौजा जगन्नाथपुर में मिट्टी का मकान ₹500 की लागत से निर्माण करा दी गई ।
164 वर्ष प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हो गया, 1880 ईस्वी में रानी को ₹30 और जगन्नाथपुर में मिट्टी का मकान बनवा दिया गया , इसी ठाकुर निवास बड़कागढ़ जगन्नाथपुर में इनके छठा पीढी अपने परिवार जनों के साथ निवास करते हैं ।आज भी अमर शहीद का परिवार सरकार से न्याय की उम्मीद में है।