बिहार में कांग्रेस की महत्वाकांक्षा राजद को असहज और आशंकित कर रही है। लालू प्रसाद के सत्ता में आने के बाद कांग्रेस बिहार में धीरे-धीरे हाशिए पर चली गई थी। अब फिर तिनका-तिनका जोड़कर बड़ा महल बनाने की कोशिश तेज है।
उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी वाड्रा के सक्रिय हो जाने के बाद बिहार में कांग्रेस उत्साह में है। दूसरे दलों के बड़े नेताओं को जोड़ा जा रहा। अब तक तारिक अनवर, कीर्ति आजाद, उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह, लवली आनंद व बिजेंद्र चौधरी समेत दर्जनभर प्रभावी नेताओं को अपना बना लिया गया है। अभी कई लाइन में भी हैं।
बदलते दौर में कांग्रेस को बाहुबलियों से भी परहेज नहीं। यही कारण है कि निर्दलीय विधायक अनंत सिंह अबकी टिकट की लाइन में सबसे आगे हैं। महागठबंधन में सीट बंटवारे में उलझन के पीछे की सबसे बड़ी वजह कांग्रेस की आकांक्षा को माना-बताया जा रहा है।
राज्य में कांग्रेस अब वह नहीं है, जो 2015 के पहले थी। गतिविधियां बढ़ी हैं। कद बढ़ा है। विधायकों की संख्या भी चार से बढ़कर 27 हो गई है। ऐसा अकारण नहीं हुआ है, बल्कि प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल और प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा की टीम ने दिल्ली को बताया- समझाया है कि बिहार में कांग्रेस को क्या करना है और क्या नहीं।
अभी तक दूसरे दलों में जगह बना चुके कांग्रेसियों को दोबारा जोड़ने के मकसद से जिलों में आमंत्रण यात्राएं निकालीं गईं, जिसके सकारात्मक नतीजे आए। लोग साथ आने लगे। कांग्रेस की बात करने लगे। भाजपा, जदयू और राजद की तरह कांग्रेस को भी सियासत का असरदार खिलाड़ी मान लिया गया।
सिलसिला जारी है। राज्यसभा चुनाव में वर्षों बाद खाता खुला। उच्च सदन में अखिलेश प्रसाद सिंह की इंट्री हुई। गुजरात से आकर शक्ति सिंह गोहिल ने भी कांग्रेस में जान फूंकी। संजीवनी का असर बढ़ते ही महागठबंधन केसहयोगी दलों की परेशानी बढ़ गई है, जिसकी असली परीक्षा विधानसभा चुनाव के दौरान हो सकती है।
1990 में सत्ता से बेदखल होने के बाद भी बिहार के चुनावों में कांग्रेस की मजबूत मौजूदगी होती थी। पतन का दौर 2000 के विधानसभा चुनाव के बाद से शुरू हुआ। राजनीतिक विश्लेषक इसे नैतिकता से भी जोड़कर देखते हैं, क्योंकि तब सत्तारूढ़ राजद के खिलाफ चुनाव लड़ने के बावजूद कांग्रेस के निर्वाचित नेताओं के दबाव में तत्कालीन प्रदेश प्रभारी अजीत जोगी ने लालू प्रसाद के साथ चलने का फैसला किया था, जबकि उसे विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला था।
राजद को चुनाव में अपने बूते सरकार बनाने का आंकड़ा नहीं मिल पाया था। लालू ने राबड़ी के नेतृत्व में दोबारा सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के जीतकर आए सभी 23 विधायकों को मंत्री बना दिया और विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी भी सौंप दी। कांग्रेस ने इसे अपनी जीत माना, किंतु सच्चाई यह है कि हाशिये पर जाने का सिलसिला यहीं से शुरू हो गया।
उत्थान-पतन का सफर लोकसभा चुनाव
वर्ष सीटें वोट
1952 45 4,573,058
1957 41 4,450,208
1962 39 4,365,148
1967 34 4,749,813
1971 39 5,967,512
1977 00 4.781,142
1980 30 7,377,583
1984 48 12,970,432
1989 04 8,659,832
1991 01 7,007,304
1996 02 4.446,053
1998 05 2,717,204
1999 04 3,142,603
2004 03 1,315,935
2009 02 2,550,785
2014 02 3,021,065