इस सप्ताह की शुरुआत में नरेंद्र मोदी सरकार ने अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल के जरिए सुप्रीम कोर्ट को बताया कि रफाल सौदे से संबंधित महत्वपूर्ण दस्तावेज़ रक्षा मंत्रालय से चोरी हो गए हैं. इसके साथ ही अटॉर्नी जनरल ने चेताते हुए कहा कि इन दस्तावेज़ों का उपयोग और प्रकाशन गोपनीयता के कानून के तहत दंडनीय अपराध है.
इसके बाद अटॉर्नी जनरल ने शुक्रवार को दावा किया कि रफाल दस्तावेज रक्षा मंत्रालय से चुराए नहीं गए और अदालत में उनकी बात का मतलब यह था कि याचिकाकर्ताओं ने आवेदन में उन ‘मूल कागजात की फोटोकॉपियों’ का इस्तेमाल किया, जिसे सरकार ने गोपनीय माना है.
हालांकि उनका गोपनीयता कानून के तहत जांच करने की बात कहना द हिंदू जैसे समाचार संगठन के लिए एक चेतावनी की तरह था, जिन्होंने रफाल सौदे पर बातचीत और मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया पर सिलसिलेवार कई लेख प्रकाशित किए हैं.
द हिंदू के चेयरमैन और वरिष्ठ पत्रकार एन. राम ने इस सौदे की जांच में इन गोपनीय दस्तावेज़ों की भूमिका और इस तरह की खोजी पत्रकारिता पर सरकार के दबाव पर बातचीत की. इस बातचीत के संपादित अंश.
अटॉर्नी जनरल का कहना है कि आपने जो दस्तावेज़ प्रकाशित किए, वे असल में रक्षा मंत्रालय से चुराए गए थे, जो ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट (गोपनीयता कानून) के तहत दंडनीय अपराध है और सरकार इसकी विस्तृत जांच चाहती है.
हमने किसी से दस्तावेज़ चुराए नहीं हैं. हमने न ही इन दस्तावेज़ों के लिए किसी तरह का भुगतान किया है. हम भारतीय संविधान की धारा 19 (1) (ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के तहत पूरी तरह से संरक्षित हैं.
हम सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा 8 (ए) (1) के तहत भी संरक्षित हैं. यह कोई पहली बार नहीं है कि दस्तावेज़ लीक हुए हैं.प्रशांत भूषण कोयल ब्लॉक आवंटन जैसे मामले में खुद ऐसा कर चुके हैं. अदालतों ने इन मामलों को देखा है और इन्हें स्वीकार किया है, इसलिए ये चोरी किए गए नहीं हैं.
मैं एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के बयान का भी संज्ञान लेना चाहता हूं, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अटॉर्नी जनरल के बयानों की निंदा की है और मीडिया विशेष रूप से द हिंदू पर कार्रवाई करने की धमकी दी है.
उन्होंने बाद में स्पष्टीकरण दिया कि वे इस सूचना को प्रकाशित करने वाले पत्रकारों और वकीलों के खिलाफ़ किसी तरह की जांच या अभियोजन पर विचार नहीं कर रहे हैं. इसलिए अगर यह सच है और इसकी पुष्टि हो चुकी है तो यह अच्छा है.
हम इसे लेकर चिंतित नहीं है क्योंकि हम पूरी तरह से सुरक्षित हैं और हमने सही काम किया है. इसे जनहित में प्रकाशित किया गया. इस मामले को और इस सूचना को दबा दिया गया था.
आप कह सकते हैं कि यह सूचना खुद जगजाहिर होना चाहती थीं (हंसते हुए) क्योंकि यह सूचना विमानों की कीमत, समानांतर बातचीत और भारतीय वार्ताकार टीम के बीच असंतोष पर आधारित थी, जो भ्रष्टाचार विरोधी धाराएं हटाने, कमीशन एजेंट की उपस्थिति, सौदे, प्रभाव और कंपनियों के बहीखातों तक पहुंच न बनने देने को लेकर थी.
याद रखिए कि ये मांगें फ्रांस सरकार के लिए नहीं की गई. ये दासो एविएशन और एमबीडीए फ्रांस जैसे कमर्शियल सप्लायर को लेकर की गयीं. आखिर कोई क्यों सामान्य तौर पर लगने वाली भ्रष्टाचार रोधी धाराओं से बचेगा, जिसका उल्लंघन होने पर जुर्माने का प्रावधान है. और फिर पांचवे आर्टिकल में बैंक गारंटी के बारे में बताया गया है.
लेकिन उनका कहना है कि यह जनहित के खिलाफ है. वे कहते हैं कि इससे देश की सुरक्षा के साथ समझौता हुआ है. आपको लगता है कि इस स्तर पर इस मुद्दे को उठाकर और इसे सुर्खियों में लाकर उन्होंने अपना काम कर दिया है? वे मुख्य तौर पर लोगों तक यह बात पहुंचाना चाहते हैं कि वे ऐसा करने में सक्षम हैं, वे पत्रकारों को डरा-धमका सकते हैं.
हां, यह अच्छी बात है और मुझे लगता है कि यही मुद्दा था कि एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने बयान दिया. इस स्पष्टीकरण के बावजूद उन्होंने कहा कि वे सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अटॉर्नी जनरल के बयानों की निंदा करते हैं और संदेश भेजकर यही तर्क देना चाहते हैं कि स्वतंत्रता और विशेष रूप से खोज़ी पत्रकारिता को लेकर हतोत्साहित कर देने वाला माहौल है. इसलिए मैं इस पर आपसे सहमत हूं.
लेकिन दूसरी तरफ हमें इससे लड़ना पड़ेगा. लोगों को डरना नहीं चाहिए क्योंकि मीडिया के मौजूदा तंत्र में एक डर का माहौल है और मुझे नहीं लगता कि इस तरह का माहौल पहले कभी रहा होगा.हमें इस तरह के दमन को देखने के लिए आपातकाल के दौर को याद करना पड़ेगा. मैं उस (आपातकाल) दौर को हाल के समय से तुलना नहीं कर रहा हूं. उस समय डर का माहौल बनाने के लिए किसी तरह के प्रयास नहीं किए गए.
मैं यह भी कहना चाहूंगा कि कुछ बड़े मीडिया संस्थानों ने प्रोपगैंडा की भूमिका निभाने के लिए इसे खुद ही अपने पर थोप लिया है.यह मुझे ब्रिटेन के पत्रकारों के बारे में हम्बर्ट वुल्फ़ की कुछ प्रसिद्ध पक्तियां याद दिलाता है, जो इस तरह हैः
You cannot hope
to bribe or twist,
thank God! the
British journalist.
But, seeing what
the man will do
unbribed, there’s
no occasion to.
(आप किसी ब्रिटिश पत्रकार को रिश्वत देने या उसे बात को घुमाने की सोच भी नहीं सकते, लेकिन यह देखते हुए कि वह बिना किसी घूस के क्या कर रहा है, ऐसा करने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती.)
मुझे लगता है कि ये पंक्तियां हमारी मुख्यधारा की मीडिया के कई धड़ों पर फिट बैठती है, विशेष रूप से टेलीविजन चैनलों पर, सभी चैनल नहीं लेकिन कई सरकार के लिए इन मुद्दों पर प्रोपगैंडा भूमिका निभा रहे हैं.
आखिरी सवाल रफाल पर हो रही राजनीति को लेकर है. पुलवामा और पाकिस्तान में एयर स्ट्राइक के बाद ऐसा लगा कि सरकार को लग रहा था कि रफाल लंबे समय तक कोई मुद्दा नहीं रहेगा लेकिन अब उनकी बेचैनी दिखाती है कि सरकार को अब भी यह लगता है कि यह महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दा है जो मई में उनके भाग्य का फैसला करेगा.
हां, मुझे लगता है कि पुलवामा आतंकी हमले और बालाकोट में उठाए गए कदम के बाद भाजपा को लगा कि वह कुछ हद तक इस नैरेटिव पर नियंत्रण कर सकती है, जो शायद हिंदी भाषी क्षेत्रों में काम भी किया क्योंकि वहां ये अति राष्ट्रवादी, कट्टर देशभक्त, जो कि ‘सबक सिखाना चाहिए… हमें मालूम है क्या करना है’ जैसी बातों में भरोसा रखते हैं. तो उन्हें लगा कि इससे स्थितियां उनके माकूल रहेंगी, जो शायद कुछ हद तक रहीं भी.
मेरी समझ यह है कि चुनाव में भ्रष्टाचार कभी भी शीर्ष मुद्दा नहीं रहा. फिर चाहे वह बोफोर्स हो या 2जी स्पेक्ट्रम. यह कभी भी शीर्ष मुद्दा नहीं रहा. शीर्ष मुद्दे कई ओपिनियन पोल में दिखाई देते हैं. आमतौर पर इसमें बेरोजगारी, रोजगार की कमी, बढ़ती मुद्रास्फीति के दौरान कृषि संकट, महंगाई जैसे मुद्दे ही छाए रहते हैं.
भ्रष्टाचार तीसरे या चौथे नंबर पर आता है. अगर भ्रष्टाचार के किसी प्रमुख मामले- किसी स्कैंडल पर फोकस होता है तो यह चिंगारी का काम करता है. यह इस मुद्दे को उठाने के लिए विपक्ष को भावनात्मक ताकत देता है और मुझे लगता है कि इस मामले में यह फिट बैठता है.
मैं कहना चाहूंगा कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस मुद्दे का पूरा फ़ायदा उठाया है. वह आक्रामक तरीके से बार-बार इस मुद्दे को उठा रहे हैं.मुझे लगता है कि इसका यकीनन प्रभाव पड़ेगा क्योंकि देश में अभी भी कांग्रेस की अहमियत बरकरार है और कुछ मायनों में कांग्रेस में फिर से जान फूंकने का काम कर रहा है.
इसलिए मुझे लगता है कि वे इस मुद्दे को लगातार उठाए रखने को लेकर प्रतिबद्ध है और स्वतंत्र मीडिया को भी यह काम बखूबी करना चाहिए. मैं विशेष रूप से द कारवां, स्क्रॉल जैसे स्वतंत्र मीडिया संस्थानों की भूमिका को सराहता हूं. मुझे लगता है कि ये बेहतरीन काम कर रहे हैं. इस मामले में द हिंदू आगे खड़ा हुआ है- उसी तरह जैसे बोफोर्स के समय हुआ था.
लेकिन मैं इसे किसी एक मीडिया संस्थान के काम के रूप में नहीं देखता हूं. एक तरफ प्रतिस्पर्धा है लेकिन साथ में सामूहिक प्रयास भी हैं. जो दूसरों के पास है, आपको उससे भी मदद मिलती है.
मुझे लगता है कि आपको सूचना के लिए और भी संस्थानों को श्रेय देना चाहिए. उदाहरण के लिए मैंने जानकारियां (नोट्स) लीं- थोड़ी जानकारियां लिए वे नोट्स- जिन्हें प्रशांत भूषण और अन्य द्वारा दायर याचिका के संबंध में सुप्रीम कोर्ट में पक्षकारों के साथ साझा किया गया.
मुझे लगता है कि पूरा टेक्स्ट था. भले ही वह कटा-छंटा था, लेकिन उसमें दिलचस्प जानकारियां थीं. इसी तरह द कारवां के पास विमानों की कीमत को लेकर जानकारियां थीं. मैंने एमके वेणु के लेख, सिद्धार्थ वरदराजन के संपादकीय जैसे लेख भी देखे। मुझे लगता है कि हमें एक तरफ प्रतिस्पर्धा करने की जरूरत है तो दूसरी तरफ साथ मिलकर काम करने की.
मुझे लगता है कि इसी तरह की पत्रकारिता होती है. आपने ऐसा द न्यूयॉर्क टाइम्स और द वाशिंगटन पोस्ट को करते देखा होगा- उनकी खोजी पत्रकारिता के शिखर पर जब वे पेंटागन पेपर्स के बारे में बात कर रहे थे.
उसके बाद वाटरगेट, विकिलीक्स, जिसमें अन्यों के साथ द हिंदू की भी भूमिका थी. मैं यही तर्क यहां उन मीडिया संस्थानों को देना चाहता हूं, जो बहुत ही मुश्किल और भ्रष्ट मीडिया तंत्र में भी स्वतंत्र हैं. इस भूमिका को निभा सकते हैं और इसे आगामी लोकसभा चुनाव समेत निकट भविष्य में निभाया जाना चाहिए.
(द वायर से साभार)