पंकज कुमार श्रीवास्तव
कांग्रेस भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है। गई।आज़ादी से लेकर 2019 तक, 17 आम चुनावों में से, कांग्रेस ने 6 में पूर्ण बहुमत जीता है और 4 में सत्तारूढ़ गठबंधन का नेतृत्व किया; अतः, कुल 49 वर्षों तक वह केंद्र सरकार का हिस्सा रही।कांग्रेस ने देश को सात प्रधानमंत्री दिए हैं-जवाहरलाल नेहरू,लाल बहादुर शास्त्री,इंदिरा गांधी,राजीव गांधी,पीवी नरसिंहराव और डॉ मनमोहन सिंह।मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह,विश्वनाथ प्रताप सिंह,चंद्रशेखर, एचडी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल जैसे लोगों ने गैर कांग्रेसी सरकारों का नेतृत्व भले किया हो, लेकिन इन लोगों की व्यक्तिगत राजनीतिक पृष्ठभूमि कांग्रेस में ही रही है।अब तक,सिर्फ अटल बिहारी बाजपेयी और नरेंद्र मोदी को उनकी शिक्षण, प्रशिक्षण और राजनैतिक दीक्षा के दृष्टिकोण से पूर्णतः गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री कहा जा सकता है।2014के आम चुनाव में, कांग्रेस ने आज़ादी से अब तक का सबसे ख़राब आम चुनावी प्रदर्शन किया और 543 सदस्यीय लोक सभा में केवल 44 सीट जीती।
इसकी स्थापना 28दिसम्बर,1885 को महज 72 व्यक्तियों द्वारा हुई व इसकी स्थापना में,ए ओ ह्यूम(एक सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारी),दादा भाई नौरोजी और दिनशा वाचा ने अहम भूमिका निभाई।कलकत्ता के व्योमेश चन्द्र बनर्जी को अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।अपने शुरुआती दिनों में काँग्रेस का दृष्टिकोण एक कुलीन वर्ग की संस्था का था।इसके शुरुआती सदस्य मुख्य रूप से बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी से लिये गये थे।
परन्तु 1915में गाँधी जी के भारत आगमन के साथ काँग्रेस में बहुत बड़ा बदलाव आया।चम्पारण,खेड़ा, बारदोली,नमक सत्याग्रह में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जन समर्थन से अपनी पहली सफलता मिली। 1919में जालियाँवाला बाग हत्याकांड के पश्चात गांधीजी जी काँग्रेस के महासचिव बने। उनके मार्गदर्शन में काँग्रेस कुलीन वर्गीय संस्था से बदलकर एक जनसमुदाय संस्था बन गयी।तत्पश्चात्,राष्ट्रीय नेताओं की एक नयी पीढ़ी सामने आयी जिसमें सरदार वल्लभभाई पटेल,जवाहरलाल नेहरू,डॉ राजेन्द्र प्रसाद,महादेव देसाई एवं सुभाष चंद्र बोस आदि शामिल थे।अपने 1.5 करोड़ से अधिक सदस्यों और 7करोड़ से अधिक प्रतिभागियों के साथ,ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरोध में एक केंद्रीय भागीदार बनी।
कांग्रेस परस्पर विचार-विमर्श खुली चर्चा जीवन्त बहस और सार्थक संवाद को समर्पित जीवन्त, जाग्रत संस्था रही है।कांग्रेस के भीतर पहला बड़ा वैचारिक द्वंद तब उभरा जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने एलान किया-स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।लाला लाजपत राय,बाल गंगाधर तिलक बिपिन चंद्र पाल की तिकड़ी,जिसे लाल-बाल-पाल की संज्ञा भी दी गई, कांग्रेस के भीतर गरम दल का प्रतिनिधित्व करती थी और दादाभाई नौरोजी,गोपालकृष्ण गोखले,फिरोजशाह मेहता जैसे लोग नरम दल का प्रतिनिधित्व करते थे।
कांग्रेस के भीतर दूसरा द्वन्द्व तब उभरा,जब चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू जैसे लोगों ने 1जनवरी, 1923 को स्वराज पार्टी की स्थापना कर ली लेकिन 1935 आते-आते स्वराज पार्टी का विलय कांग्रेस में ही हो गया।
कांग्रेस का एक बड़ा तबका ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में कांग्रेस से अलग होकर आजाद हिंद फौज और फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से नई राजनीतिक पार्टी की स्थापना की।
कांग्रेस के भीतर समाजवादियों ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी नामक एक फोरम खड़ा कर लिया था।1947में आजादी मिल जाने के बाद कांग्रेस के भीतर इस बात के लिए दबाव बढ़ा कि या तो सोशलिस्ट अपने फोरम को विघटित करें या फिर कांग्रेस से बाहर जाएं।ऐसी परिस्थिति में,आजादी के तुरंत बाद कांग्रेस का एक और विभाजन हुआ।
1967 में इंदिराजी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पार्टी का नेतृत्व एक बुजुर्ग सिंडिकेट के पास हुआ करता था और इंदिराजी के आसपास प्रगतिशील गुट ने घेरेबंदी कर ली थी।इस जमावड़े को इंदिराजी की किचन कैबिनेट की संज्ञा दी गई।आखिरकार,1969 में कांग्रेस का एक और बड़ा विभाजन हुआ और इंदिरा जी के नेतृत्ववाले कांग्रेस को नई कांग्रेस कहा गया पुरानी कांग्रेस ने खुद को संगठन कांग्रेस कहा।1977 में संगठन कांग्रेस का विलय जनता पार्टी में हुआ।
1977 में जेपी आंदोलन के दबाव में कांग्रेस पहली बार केंद्र सरकार से सत्ताच्युत हुई।1978में इंदिराजी ने कांग्रेस का एक और विभाजन किया और इंदिराजी के नेतृत्ववाले कांग्रेस को सीधा-सीधा इंदिरा कांग्रेस कहा गया।1978 का कांग्रेस विभाजन राजनीतिक गतिशीलता का विभाजन विभाजन था।इंदिराजी के नेतृत्व में जो लोग अलग हुए वह अब अपनी अलग राजनीतिक पहचान रखते ही नहीं थे और पार्टी की एकमात्र गतिशील नेता इंदिराजी थी।इंदिराजी के अतिरिक्त जो लोग भी पार्टी में थे वह इंदिराजी के चारों ओर गणेश परिक्रमा कर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकते थे।
1984में इंदिरा जी की हत्या और 1991 में राहुल राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस में गतिशील नेतृत्व का अभाव हो गया और एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर कांग्रेस का निरंतर क्षरण होने लगा।
मार्च 1998 में सोनिया गांधी ने एक नई पहल की और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को धकिया कर राष्ट्रीय अध्यक्ष बन बैठी।लगभग 6साल के राजनीतिक संघर्ष के बाद 2004में कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार जरूर बनी, लेकिन एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार की जागीर बन कर रह गई।लगभग 19वर्षों तक कांग्रेस अध्यक्ष रहने के बाद सोनिया गांधी ने पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ा भी,तो पार्टी अध्यक्ष उनके पुत्र राहुल गांधी रहे।2019 के आमचुनाव में करारी हार के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ दिया।लेकिन,पार्टी में जो संस्कृति विकसित हो गई है उसके आधार पर किसी दूसरे पार्टी सदस्य को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया ही नहीं जा सकता।वैसी स्थिति में अगस्त,2019 से सोनिया गांधी घोषित तौर पर पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष हैं।लेकिन,व्यवहारिक तौर पर वह पूर्णरूपेण अध्यक्ष ही हैं।पार्टी के महासचिव की जवाबदेही सोनिया गांधी की पुत्री प्रियंका गांधी वाड्रा निभा रही हैं।पिछले 8 सालों में पार्टी ने 72 में से 65 चुनाव हारे हैं,लेकिन कोई भी पार्टी के भीतर सोनिया गांधी अथवा राहुल गांधी के खिलाफ कुछ भी बोल पाने की स्थिति में नहीं है।पार्टी चुके हुए पेशेवर राजनीतिज्ञों का गिरोह होकर रह गई है,जिसमें नए कल्पनाशील,जूझारू, राजनीतिक रूप से सजग,सचेत और परिपक्व लोगों का प्रवेश कठिन है।कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व को अपनी 136 साल की विरासत के आलोक में राजनीतिक पहल के प्रति संकल्प का अभाव दीखता है।
दूसरी तरफ,केंद्र सरकार,नरेंद्र मोदी और भाजपा के विरुद्ध जबरदस्त जनाक्रोश है।देश में एक बड़ी जमात साहित्यकारों,पत्रकारों,बुद्धि जीवियों और राजनीतिक रूप से सजग-सचेत लोगों का है जो भाजपा के विरुद्ध जनाक्रोश की अभिव्यक्ति वोटों में तब्दील होते देखना चाहते हैं।लेकिन,राष्ट्रीय स्तर के सबल,सक्षम,गतिशील राजनैतिक संगठन के अभाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा का विकल्प उभरता नहीं दिखता।इस बोद्धिक बिरादरी को 136साल पुरानी कांग्रेस के राजनीतिक विरासत की स्पष्ट समझ है,वह कांग्रेस को सबल, सक्षम विकसित होते देखना भी चाहते हैं,लेकिन समझते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार मोदी के विकल्प खड़ा करने की कोशिश करने से रहा।
लेकिन,नरेंद्र मोदी और भाजपा के विरुद्ध जनाक्रोश कांग्रेस नेतृत्व और देश भर में फैले बुद्धिजीवियों को ऐतिहासिक जवाबदेही निभाने के लिए बाध्य करेगा ही…।