नई दिल्ली। पिछले एक सप्ताह से दो दल सबसे ज्यादा चर्चा में हैं- तेलुगु देसम पार्टी (टीडीपी) और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस)। ये दो ऐसे दल हैं जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर जमीनी धमक नहीं है फिर भी इनकी अतिसक्रियता किसी भी दल से अधिक है, जो चौंका सकती है। कभी राजग का हिस्सा रहे टीडीपी नेता और आंध्रप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू विपक्षी दलों के नेताओं को एकजुट करने और राजग के खिलाफ संप्रग को खड़ा करने की कवायद में पसीना बहा रहे हैं। तो आंध्रप्रदेश से अलग हुए तेलंगाना के मुख्यमंत्री और टीआरएस नेता के. चंद्रशेखर राव एक तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश में लगे हैं।
सवाल लाजिमी है कि आखिर ये दो नेता ही क्यों सक्रिय हैं। मोर्चा बनाने की छटपटाहट इन्हें ही क्यों है, जबकि विपक्ष में अपेक्षाकृत बड़े दलों के नेता पीछे खड़े हैं? दरअसल, अब इस चुनाव में इन्हें अपने अस्तित्व को भी बचाए रखना है और केंद्र की सत्ता में दबदबा बढ़ाकर अपनी महत्वाकांक्षा को भी पूरी करने की चाहत है।
लोकसभा चुनाव घोषणा के बाद से लेकर अब तक चंद्रबाबू विपक्ष में कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, बसपा, सपा जैसे दलों के नेताओं के घर जाकर दो से तीन बार मिल चुके हैं। यह समझाने की कोशिश करते रहे हैं कि राजग के खिलाफ एकजुट होना जरूरी है। लेकिन अब तक बर्फ पूरी तरह नहीं पिघल पाई है। कारण कई हैं- एक तो वह इन दलों को इसके लिए राजी नहीं कर सकते हैं कि विपक्षी गुट का नेता किसी और को मान लें। दूसरा कारण यह कि उन्होंने खुद कभी भी दोस्ती में हिस्सेदारी को निभाया नहीं है। और तीसरा कारण यह है कि फिलहाल उनके पास वह राजनीतिक ताकत नहीं है जो मध्यस्थता के लिए जरूरी होती है।
तेलंगाना में कांग्रेस से गठजोड़ कर टीआरएस के खिलाफ लड़े चंद्रबाबू ने अपने राज्य आंध्र प्रदेश में कांग्रेस से हाथ छुड़ा लिया था। वह अपनी जमीन में हिस्सेदारी के लिए तैयार नहीं थे। सच्चाई तो यह है कि चुनाव से महज सात आठ महीने पहले राजग से अलग होने के पीछे भी एक बड़ा कारण यही था कि वह आंध्र में हिस्सेदारी के लिए तैयार नहीं थे। भाजपा से उनका मतभेद तभी शुरू हुआ था जब भाजपा ने वहां अपनी सदस्यता को तेज किया और कुछ महीने में आकार तीन चार गुना बढ़ा लिया था। इस बार विधानसभा के साथ साथ लोकसभा में भी आंध्रप्रदेश में उनकी ताकत पहले से कम होने की आशंका है। ऐसे में वह अपनी छवि और कद के कारण भले ही विपक्षी नेताओं से मिल रहे हों, उन्हें पूरा भरोसा नहीं दिला पा रहे हैं कि उनकी मध्यस्थता हर किसी को बाध्य कर सकती है। लिहाजा उनकी कवायद के बाद हो रही विपक्षी नेताओं की बैठक से सभी अहम दलों के शीर्ष नेता गायब होते हैं। आंध्र प्रदेश हो या फिर अपने गठन के पांच साल पूरे करने वाला तेलंगाना, इनके लिए जरूरी है कि केंद्र से इनके रिश्ते अच्छे रहें।
आंध्र के लिहाज से तो यह ज्यादा जरूरी है कि केंद्र में ऐसी सरकार हो जो सिर्फ हिस्सा ही न दे बल्कि मेहरबान हो। यह याद रखना चाहिए कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को समर्थन देने के एवज में उन्होंने राज्य को अतिरिक्त फंड के रूप में काफी कुछ वसूल किया था। ऐसे में चंद्रबाबू खुद के लिए दो भूमिका तलाश रहे हैं। 23 मई को आने वाले नतीजे के बाद अगर वह आंध्र की सत्ता में बने रहते हैं तो संप्रग सरकार उनके लिए मुफीद होगी। जबकि राज्य में उनकी प्रतिद्वंद्वी वाइएसआर कांग्रेस की भी नजर इस पर है कि केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार बने तो वह अपने लिए खास स्थान बनाए। चंद्रबाबू अगर बेदखल होते हैं तो केंद्र में अहम भूमिका की तलाश होगी।
वैसे भी जब विपक्ष में बिखराव है और इतिहास में एचडी देवेगौड़ा, आइके गुजराल के उदाहरण हैं तो महत्वाकांक्षा भी लाजिमी है। हालांकि मायावती और ममता बनर्जी जैसे नेताओं के रहते इस महत्वाकांक्षा के लिए बहुत आधार नहीं है। वहीं अगर राज्य के साथ साथ केंद्र में भी अगर चंद्रबाबू का दांव सही नहीं बैठता है तो उस परिस्थिति में भी उन्हें विपक्षी साथियों की दरकार होगी ताकि आवाज सुनी जा सके। शायद यही कारण है कि वह अतिसक्रिय हैं। पड़ोसी राज्य के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने भी थोड़ी पहल की है। उन्होंने भी ममता बनर्जी समेत कई नेताओं से मुलाकात की थी। हाल में उन्होंने संप्रग खेमे के द्रमुक नेता स्टालिन से भी मुलाकात की थी। किसी भी क्षेत्रीय दल की तरह उनकी भी चाहत है कि सरकार ऐसी हो जिसमें उनकी बैसाखी की जरूरत बनी रहे। स्पष्ट है कि पूरी कवायद खंडित जनादेश को ध्यान में रखते हुए हो रही है। अगर जनादेश स्पष्ट आता है तो सिर्फ अस्तित्व की लड़ाई बचेगी।