News Agency : कई ऑटो-टैक्सी वाले मिलेंगे जो कहेंगे कि, “रांची में तो कई मुद्दा है ही नहीं। पक्की सड़कें हैं सब तरफ, गरीबों को मकान मिले हैं, नौकरी मिली है, पानी मिला है। उन्हें तो यही सब चाहिए। यह सब बीजेपी सरकार ने ही किया है।” ये सब सुनकर आप सोचते हैं कि क्या वाकई ऐसा है?बिहार में तो लोग अपनी राजनीतिक राय खुलकर सामने रखते हैं, लेकिन झारखंड में ऐसा क्यों नहीं दिखता? दरअसल यहां शहरी और देहाती फर्क साफ नजर आता है। लोगों को डर है कि अगर वे बीजेपी के खिलाफ बोलेंगे तो उनपर हमला हो सकता है, किसी झूठे मुकदमे में फंसाए जा सकते हैं। साथ ही कुछ भ्रष्टाचार, जमीन अधिग्रहण, किराएदारी कानून और तमाम दूसरे खामोश मुद्दे भी हैं।
झारखंड की हालत को रांची के पत्रकार देवेंद्र अच्छे से समझाते हैं। वे कहते हैं, “भूख, भय और भ्रष्टाचार ही मुख्य मुद्दे हैं। शहरों में लोगों के पास नौकरी हो सकती है, लेकिन गांवों में महिला-पुरुष दोनों की कोई आमदनी है ही नहीं। वे काम की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं। कई जिलों में खेती भी ठप्प पड़ी है। तमाम दावों और वादों के बावजूद सरकार सिंचाई नेटवर्क बनाने में नाकाम रही है। अब काम नहीं होगा, खेती नहीं होगी, तो गरीब क्या करेगा। बच्चों को कैसे पालेगा।
सरकारी राशन भी बहुत लोगों को नहीं मिलता। बहुत लोगों के पास आधार नहीं है, जिनके पास है तो बायोमेट्रिक काम नहीं करता।”देवेंद्र ने आगे बताया कि पानी की जबरदस्त कमी से पूरा राज्य जूझ रहा है। यहां तक कि शहरों में भी कभी-कभार ही पानी मिल रहा है। देवेंद्र बताते हैं कि, “पानी जमा करने की कोई व्यवस्था है नहीं। सरकार ने जल भंडारण की कुछ इकाइयां बनाई थी, लेकिन उनका निर्माण इतना घटिया था कि वे भरभराकर गिर पड़ीं।” देवेंद्र के मुताबिक झारखंड में शिक्षा व्यवस्था की हालत भी खस्ता है। लंबे समय से शिक्षक अपनी मांगों के लिए आंदोलन कर रहे हैं।
गौरतलब है कि झारखंड के सभी twenty four जिले किसी न किसी तरह नक्सल समस्या से भी ग्रस्त हैं। एक और चुनाव विश्लेषक बताते हैं कि, “अगर गांव वाले नक्सलियों की मदद नहीं करेंगे तो गांव में रह नहीं पाएंगे, और अगर उनकी मदद करें तो पुलिस परेशान करती है।“ वे बताते हैं कि हाल ही में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने ऐलान किया कि 2023 तक झारखंड से नक्सल समस्या को खत्म कर दिया जाएगा, लेकिन इसका उलटा असर हुआ है और राज्य में नक्सलियों की तादाद बढ़ रही है।शहरों का चुनावी माहौल तो बीजेपी के पक्ष में दिखता है, लेकिन जैसे ही आप शहर से बाहर निकलते हैं, तस्वीर बदल जाती है। दरअसल लोगों में गुस्सा है।
एक पूर्व पत्रकार अशोक वर्मा बताते हैं कि, “शहरों में यूपी, बिहार, बंगाल और कई और जगहों से आए हुए लोग रह रहे हैं, जिनमें से ज्यादातर को हालात जस के तस रहने में ही ठीक लगता है। इनमें से कई बीजेपी समर्थक को बेहद आक्रामक भी है, ऐसे में लोग चुनावों को लेकर अपनी राय सामने वाले को देखकर ही देते हैं।”लेकिन, रांची के एक छोटे से होटल में काम करने वाले सुशील का नजरिया अलग है। वह सवाल पूछता है, “जमीन के अधिकार की बात क्यों नहीं हो रही है, आदिवासियों का जिक्र क्यों नहीं हो रहा है।
मॉब लिंचिंग के बारे में कोई बात क्यों नहीं कर रहा?”एक बात से ज्यादातर लोग सहमत दिखते हैं। उनका मानना है कि झारखंड में मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार के खिलाफ एक अंदरूनी लहर सी है। मानवाधिकार कार्यकर्ता फैसल अनुराग बताते हैं कि, “सरकारी कर्मचारियों में सरकार को लेकर गुस्सा है। ये सब मोदी समर्थक हुआ करते थे, लेकिन बीएसएनल की हालत के बाद इन्हें भी चिंता सताने लगी है। बैंक कर्मचारी, सेल के कर्मचारी, सबके मन में आशंका है कि कहीं उनकी हालत भी बीएसएनएल जैसी न हो जाए।”इसके अलावा झारखंड के आदिवासियों, कुम्हार, कहार, बढ़ई, लोहार, धनुक आदि ओबीसी के छोटे तबकों में भी गुस्सा है।
सत्ता दल के खिलाफ मुस्लिमों और ईसाइयों की नाराजगी तो जगजाहिर है। झारखंड में बीते सालों में कम से कम seventeen मॉब लिंचिंग की घटनाएं हुई है, जिनमें eleven लोगों की जान गई। इनमें से nine मुसलमान थे और दो आदिवासी। ऐसे में संभावना है कि यह सारे समुदाय बीजेपी के खिलाफ ही वोट देंगे।एक और बात झारखंड में सामने आती है, वह है कि हर दल में नेतृत्व की समस्या है। एनडीए को सिर्फ मोदी के चेहरे का सहारा है, क्योंकि राज्य का रघुबरदास सरकार को लेकर लोगों में नाराजगी खुलकर सामने आने लगी है।