प्रमोद भार्गव
भारत में अब लड़कियों के विवाह की न्यूनतम उम्र एक समान यानी लड़कों के बराबर 21 वर्ष होने जा रही है।यह विधेयक कानून बनने के बाद सभी धर्मों और वर्गों में लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु 21 वर्ष में बदल देगा। देशभर में इस निर्णय का स्वागत प्रगतिशील सोच के लोग कर रहे हैं,लेकिन संकीर्ण सोच के लोगों की भी कमी नहीं है।दरअसल यह नियम सभी धर्म के लोगों पर समान रूप से लागू होगा।इसलिए खासतौर से मुसलमान इसे संविधान के अनुच्छेद-25 में मिली धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन मान रहे हैं। विरोध भी इस हद तक कि लड़कियों के चरित्र पर सवाल खड़े करने लग गए।यह निहायत कुंठित सोच है।जबकि समाजवादी पार्टी के शफीकुर्रहमान बर्क जैसे सांसदो को आगे आकर ‘हिंदू सरंक्षता अधिनियम-1956′ और ‘सरंक्षक-प्रतिपाल्य अधिनियम-1980′ में बदलाव लाकर संतान की अवैधता से जुड़े कलंक को वैध ठहराए जाने की पहल करनी चाहिए थी,अविवाहित मातृत्व को वैधता मिले ?जिससे बाल विवाह पर अंकुश लगे और अनचाहे गर्भ में पलने वाले शिशु को भी सम्मान से जीने का विधान सम्मत अधिकार मिले।किंतु ऐसी कोई प्रगतिवादी फल करने की बजाय,उनका कहना है कि बाली उम्र बढ़ा देने से आवारगी बढ़ेगी।
भारत में एक जमाना था जब गर्भ में ही बच्चों की शादियां तय हो जाती थीं। बाल विवाह की इस कुरीति का आर्य समाज और राजा राममोहन राय ने जमकर विरोध किया। नतीजतन 1929 में शारदा एक्ट बना और लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष निर्धारित कर दी गई। 1978 में विवाह की उम्र बढाकर 18 वर्ष कर दी गई।कालांतर में ये दोनों ही क्रांतिकारी बदलाव अत्यंत लाभदायी सिद्ध हुए। कम उम्र शादी हो जाने के कारण पैदा होने वाले कुपोषित बच्चों की मृत्यु दर में भारी गिरावट आ गई।1921 की जनगणना के अनुसार बाल विवाह के चलते प्रत्येक नई पीढ़ी में 32 लाख माँएं पुर्ण शारीरिक विकास नहीं होने के कारण असमय मर जाया करती थीं, वे बच गईं।दर्ज की गई।आज़ादी के बाद परिवार नियोजन के प्रति आई जागरूकता ने बच्चों की जन्म दर भी कम कर दी।यानी जनसंख्या नियंत्रित होती चली गई।यह सही है कि इस सब के बावजूद 2005 तक हरेक पांचवीं बालिका की शादी नाबालिग अवस्था में भी होती रही।2015-16 में बाल विवाह घटकर करीब 24 प्रतिशत रह गए।
राष्ट्रीय परिवार कल्याण सर्वेक्षण के अनुसार अभी भी पश्चिम बंगाल में 48.1, बिहार में 43.4 और झारखंड में 36.1 % लड़कियां 18 साल की उम्र से पहले ब्याही जा रही हैं।फलतः15 से 18 वर्ष तक की उम्र में माँ बनने वाली बालिकाओं की संख्या भी बढ़ रही है।त्रिपुरा में 21.6,पश्चिम बंगाल में 16.4,आंध्रप्रदेश में 12.6,असम में 11.7 और बिहार में बाल विवाह करने वाली 11 प्रतिशत बालिकाएं माँ बनने को मजबूर हुई हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले वर्ष 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस पर दिए भाषण में घोषणा की थी कि सरकार बेटे व बेटी के विवाह की उम्र में एकरूपता लाएगी।इस परिप्रेक्ष्य में सरकार ने एक वर्ष पहले से जया जेटली की अध्यक्षता में आयोग गठित किया हुआ था ,जो इस मुद्दे पर विस्तृत अध्ययन कर रहा था कि लड़कियों के विवाह की आयु लड़कों के बराबर की जाए या नहीं। आयोग ने अनुशंसा की कि विवाह की आयु बढ़ाने से लड़कियां अधिक पढ़ पाएंगी, उनका स्वास्थ्य अधिक अच्छा होगा और रोजगार की दृष्टि से आत्मनिर्भर होने के लिए उन्हें बराबरी के मौके मिलेंगे।इस नाते भारत दुनिया को रास्ता दिखा रहा है, क्योंकि अब तक किसी अन्य देश में लड़कियों के विवाह की उम्र 21 नहीं है।चीन में 20 वर्ष तो अमेरिका-ब्रिटेन जैसे देशों में 18 वर्ष है। बेटियों को सशक्त करने के इस निर्णय का स्वागत होना चाहिए, विरोध नहीं।इसी कड़ी में अविवाहित मातृत्व या अवैध संतान को वैध ठहराने की सिफारिश राष्ट्रीय महिला आयोग भारत सरकार को कर चुका है, लेकिन इस प्रारूप ने अभी कानूनी शक्ल नहीं ली है।
समय और मूल्यों के परिवर्तन के इस दौर में समाज की सोच और समझ बदल रही है। अविवाहित मातृत्व और अवैध संतान का बढ़ता चलन एक चुनौती बन रहा है, इसलिए जरूरी हो जाता है कि वर्तमान ‘हिंदू सरंक्षता अधिनियम-1956′ और ‘सरंक्षक-प्रतिपाल्य अधिनियम-1980′ में बदलाव लाकर संतान की अवैधता से जुड़े कलंक को वैध ठहरा दिया जाए ? इससे कचरे व नालियों में पड़े उन नवजातों को वैधता मिलेगी जो कभी-कभी कुत्तों और सुअरों का ग्रास बन जाते हैं। साथ ही अविवाहित मातृत्व का संत्रास भोगने और कुल-कलंकनी का दंश झेलने वाली उस स्त्री के मातृत्व को भी स्वीकार्यता मिलेगी, जो शिशु को अपने लहू से नौ माह कोख में पालने-पोषने के बावजूद फेंकने को विवश हो जाती है। वैसे भी कोख तो धरती की तरह वह उर्वरा भूमि हैं, जिसमें बीज पड़ेगा तो अंकुहित होगा ही।
चाहे-अनचाहे अविवाहित रहते हुए कोई स्त्री मां बन जाती है, तब भी उसका मातृत्व कतई संदिग्ध नहीं माना जाना चाहिए। क्योंकि वह अंततः वह उसी शारीरिक प्रक्रिया से गुजरने के बाद माँ बनती है, जिस प्रक्रिया से विवाहित स्त्री पति के साथ अंतरंग संबंध स्थापित करके गुजरती है। गोया, संतान अवैध कैसे हुई ? फिर चाहे वह विवाह से पहले, विवाह के बाद या फिर लिव एवं रिलेशनशिप में पैदा हुई संतान हो ? संतान तो संतान है। इस लिहाज से सब संतानों में समता व एकरूपता है। अतएव सभी संतानें कानूनी रूप से समानता की अधिकारी हैं। कानूनी दृष्टि से एक बारगी अविवाहित मातृत्व के लिए स्त्री को दोषी ठहराया जा सकता है, लेकिन कोई भी शिशु पैदा होने से पहले अपने मां-बाप या उनसे जैविक रिश्ते का फैसला नहीं ले सकता ? तब उसे अवैध या वैध कैसे ठहराया जा सकता है ? इसी तर्क को महत्व देते हुए महिला आयोग ने हिंंदू सरंक्षता अधिनियम-1956 के अनुभाग-6 बी से ‘अवैध‘ शब्द विलोपित करने की मांग की है। इसकी जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि दुष्कर्म के चलते नाबालिग बालिकाएं भी अवैध संतानों को जन्म देने की दुविधा से गुजर रही हैं। ऐसे मामलों में कई मर्तबा 20 सप्ताह से ज्यादा के गर्भ को गिराने की अनुमति अदालत से लेनी पड़ती है। ऐसे में पीड़ित स्त्री के साथ उसके अभिभावकों को भी मानसिक प्रताड़ना झेलनी होती है।
संतान की वैधता संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भी अनिवार्य है। इसके मुताबिक देश में 4.5 प्रतिशत घरों का दायित्व एकल माताएं चला रही हैं। इन माताओं की संख्या 1.3 करोड़ है। आयोग ने इस मांग से भी दो कदम आगे बढ़कर नैसर्गिक सरंक्षक की परिभाषा बदलने की भी मांग की है। अब तक पिता को पहले क्रम में और माता को दूसरे क्रम में स्वाभाविक या जैविक सरंक्षक माना जाता है। इसमें बदलाव लाकर पिता अथवा माता करने का प्रस्ताव आयोग ने दिया है। यह तर्क परित्यक्ता, दुष्कर्म-पीड़िता या फिर स्वेच्छा से अविवाहित मातृत्व स्वीकारने वाली महिलाओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज की यह विडंबना है कि आज भी पिता से जुड़े अधिकारों को ही अहमियत दी जाती है। हालांकि उन्मुक्त होते समाज में अब वास्तव में जैविक पिता कौन है, इस मांग की कानूनी लड़ाई अदालतों में लड़ी जाने लगी है।
अवैध संतानों की परवरिश, सरंक्षण और जैविक पिता की संपत्ति पर अधिकार की दृष्टि से ये लड़ाइयां अदालत की दहलीज तक पहुंचने लगी हैं। यह लड़ाई देशव्यापी चर्चा में पहली बार तब आई थी, जब प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ नारायणदत्त तिवारी को उनके अवैध पुत्र रोहित शेखर ने अपना पिता घोषित करने का दावा सर्वोच्च न्यायालय में किया था। हालांकि अनेक यूरोपीय देशों में 12 वर्ष से बड़े बच्चों को स्वेच्छा से शारीरिक संबंध बनाने की कानूनी छूट है। तथाकथिक प्रगतिशील इसे भी भारत में लागू करने की मांग कर रहे हैं।प्रश्न उठता है कि जब विवाह की न्यूनतम उम्र 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष की जा रही है तो ऐसी अनैतिक मांगों का क्या औचित्य है?
अविवाहित मातृत्व या अवैध संतान की समस्या नई नहीं है। आदि-अनादि काल में यह समस्या स्त्रियों ने झेली है और उनसे पैदा संतान सामाजिक उपेक्षा का दंश व उलाहना भोगने को विवश रही हैं। महाभारत युग में इस संत्रास को पांडवों की माता कुंती और उनकी कोख से अवैध संतान के रूप में जन्मे कर्ण ने आजीवन भोगा। जबकि कर्ण देवता के रूप में पूजे जाने वाले सूर्य के पुत्र थे। सूर्य तो कुंती से सहवास का सुख भोगकर दृश्य से अंतरध्यान हो गए, लेकिन कुंती का आंचल आजीवन कर्ण को ढंकने के लिए तरसता रहा। हमें इसी प्रकृति की दूसरी कथा जबाला पुत्र और सत्यकाम के रूप में मिलती है। ‘छान्दोग्योपनिषद्‘ की इस कथा में जब सत्यकाम मां से अपने पिता का नाम व गौत्र जानने की जिज्ञासा प्रकट करता है तो जबाला कहती है, ‘मैं आश्रमों में ऋषियों की परिचर्या करती थी। उस दौरान कई पुरूष मेरे संपर्क में आते थे। इसलिए मैं नहीं जानती कि तुम किससे उत्पन्न हुए।‘ इस कथा की विलक्षण्ता यह है कि इसमें अवैध संतान का न कर्ण की तरह परित्याग है और न ही मां-बेटे को परस्पर अस्वीकार की चुनौती है। इसलिए अवैध संतान होने के पश्चात भी उन्हें किसी किस्म का संत्रास भोगना नहीं पड़ा। प्रसिद्ध फिल्म व टीवी अभिनेत्री नीना गुप्ता ने अविवाहित रहते हुए स्वेच्छा से मां बनने की चुनौती आज से लगभग 30 साल पहले स्वीकार की थी। इस दृष्टि से वे एक आदर्श मिसाल हैं।
इन उदाहरणों से यह संदेश मिलता है कि यदि संसद से इस प्रस्ताव को कानूनी रूप मिल जाता है तो समाज अवैध संतान के कोढ़ से मुक्त होता चला जाएगा। दरअसल वैदिक काल में शुरू हुई विवाह संस्था से पूर्व भारतवर्ष में यौन-शुचिता की अनिवार्यता नहीं थी। ऋषि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु ने जब अपनी मां को पर-पुरुष से संसर्ग बनाते देखा, तब पिता से शिकायत भी की पर उन्होंने कोई आपत्ति न जताते हुए, इसे सहजता से लिया। तत्पश्चात श्वेतकेतु ने वैवाहिक संस्था और सात-फेरों के जरिए सात वचनों की नींव रखी। तभी से स्त्री की यौनजन्य पवित्रता और विवाहित स्त्री से उत्पन्न संतानों को ही वैधता का दर्जा दिया जाने लगा। हालांकि श्वेतकेतु की बनाई इस संस्था की सीमाएं अब दरक रही हैं। इसी का परिणाम है कि अदालतों में तलाक के मामलों की संख्या निरंतर बढ़ रही है।
दरअसल जब तक स्त्रियां घरों की कौटुम्बिक व्यवस्था का हिस्सा होने के साथ, अशिक्षित थीं, तब तक वर्तमान नियमों की पालना को विवश थीं। तब अपवादस्वरूप कोई स्त्री देह की सीमा लांघती भी थी, तो दोनों पक्ष सामाजिक मान-मर्यादा का पालन करते थे। लेकिन अब स्त्री शिक्षा के लिए और फिर नौकरी के लिए अकेली संघर्ष कर रही है। परिवारों के छोटे और मध्यवर्गीय परिवार के ज्यादातर सदस्यों के नौकरीपेशा होने से अविवाहित स्त्री को पारिवारिक सदस्य का साथ असंभव हो गया है। ऐसे में पुरुष का साथ मिलने पर नाजुक पलों में तन का बहकना और अनचाहे मातृत्व को ग्रहण करना पड़ जाता है। कामेच्छा का पूर्ति स्त्री-पुरुष की एक नैसर्गिक जरूरत है और मातृत्व एक प्राकृतिक स्थिति। अंतर इतना है कि मातृत्व को प्रमाणिकता करने के शारीरिक लक्षण और तकनीकी उपाय भी हैं ,किंतु पितृत्व अछूता ही रहता है। अब नई समस्या मोबाइल तकनीक ने खड़ी कर दी है। इसने अस्वीकार संबंधों के साक्ष्यों को श्रव्य व दृश्य रूपों में सुरक्षित रखने के उपाय व उनका प्रसारण संभव कर दिया है। डीएनए टेस्ट से भी संतान के वास्तविक पिता की सच्चाई सामने आ जाती है। फलतः एकल मांओं और अवैध संतानों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। इन परिस्थितियों में अविवाहित मातृत्व से जन्मी संतान को वैधता दिया जाना वर्तमान सामाजिक परिस्थिति में जरूरी है। साफ है, विवाह की उम्र बढ़ेगी तो अविवाहित मातृत्व का संकट भी बढ़कर गहराएगा।
हमारे समाज में ऐसी सोच कम ही देखने को मिलती है, जो समाजिक रूप से लांछित एवं कानूनी रूप से अवैध स्थिति को वरदान में बदल दे। अभिशाप बनी जिंदगियों को सम्मान देने का यह काम गुजरात अंजार के डॉक्टर दंपति यामिनी-हितेष ने कर दिखाया है। कुंवारी माताओं और इनकी ममता के सरंक्षण-संवर्धन के लिए यह दंपति अपनी चिकित्सीय योगयता का उपयोग समाज के लिए एक यज्ञ मानकर कर रहे हैं। ये दंपत्ति अविवाहित रहते हुए मां बनीं सात लड़कियों के बच्चों को विधिवत गोद लेकर इनके पालक माता-पिता बन गए हैं। समाजिक उदारता के चलते विवाह से पहले देह की मर्यादाएं तो टूट रही हैं, लेकिन जब लड़की की मां बनने की स्थिति बन जाती है तो लड़की व उसके अभिभावकों पर पहाड़ टूट पड़ता है। चरित्र पर धब्बा एवं जिंदगी कलंक न बन जाए, इस डर से गर्भपात का रास्ता अपनाने के लिए परिजन मजबूर हो जाते हैं। डॉक्टर हितेष-यामिनी के पास जब अभिशाप झेल रहीं ऐसी लड़कियां गर्भपात कराने आती हैं तो वे गर्भस्थ शिशु को जन्म देने के लिए समझाते हैं। परिजन मान भी जाते हैं। यदि मां नवजात को स्वीकार न करे तो यह दंपति बच्चे को बिना किसी झिझक के दत्तक संतान के रूप में कानूनी प्रक्रिया संपन्न कर गोद ले लेते हैं।