ज़ुबैर अहमद
यूक्रेन में लड़ाई अभी शुरुआती दौर में है लेकिन पश्चिमी देशों को डर है कि यह महीनों और वर्षों तक खिंच सकती है.
यूक्रेन पर रूसी हमले की तुलना या तो 1979 के सोवियत संघ के अफ़ग़ानिस्तान पर हमले से की जा रही है या फिर 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिका के नेतृत्व वाले आक्रमण से.सोवियत संघ को 10 साल के अंदर शिकस्त खाकर लौटना पड़ा था और दूसरे मामले में अमेरिका को 20 साल बाद कुछ हासिल किए बग़ैर लौटना पड़ा था. दोनों मामलों में हार आक्रमण करने वाले देश की हुई थी.तो क्या रूसी हमले के बाद यूक्रेन की हालत अफ़ग़ानिस्तान जैसी हो सकती है, अमेरिकी हमले के बाद वाला अफ़ग़ानिस्तान या फिर सोवियत हमले के बाद वाला.
अमेरिका में कुछ प्रभावशाली शख़्सियतें ये चाहती हैं कि यूक्रेन में रूस को उसी तरह के दलदल में फंसाया जाए जिस तरह से अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ को फंसाया गया था जिसके बाद हमलावर फौज की भारी शिकस्त हुई थी और 10 साल बाद उन्हें अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर वापस जाना पड़ा था.
उनका तर्क है कि अमेरिका और नेटो उसी तरह से वॉलंटियर्स और ग़ैर-सरकारी एक्टर्स को हथियार और ट्रेनिंग देंगे जिस तरह से इन देशों ने अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत यूनियन से लड़ने के लिए मुजाहिदीन को तैयार किया था, यहाँ भी ऐसा ही होगा.
अमेरिका की भूतपूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा, “याद रखें, 1980 में रूसियों ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया था. रूसियों के लिए इसका अंत अच्छा नहीं था… सच यह है कि एक बहुत ही प्रेरित, अच्छी तरह से फंडेड और सशस्त्र विद्रोह ने मूल रूप से रूसियों को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकाल दिया.”
सोवियत सैनिकों ने 24 दिसंबर 1979 को अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण किया था और 10 साल तक वहां रहने के बाद 1989 में उन्हें हार के बाद अपने देश भागना पड़ा था. अफ़ग़ानिस्तान में अपनी मर्ज़ी का शासन लागू करने में विफल होने के बाद सोवियत संघ ने 1988 में अमेरिका, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और सोवियत सैनिकों की वापसी 15 फ़रवरी, 1989 को पूरी हुई.
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने हालिया ‘स्टेट ऑफ़ द यूनियन’ संबोधन में इसी पॉलिसी को अपनाने की तरफ़ इशारा भी किया था. उस भाषण में उन्होंने कहा था कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को यूक्रेन पर हमला करने के बदले एक लंबे अरसे तक क़ीमत चुकानी पड़ेगी.
शिकागो में रहने वाले लेखक ब्रैंको मार्सेटिक ने जो बाइडन पर पर एक चर्चित किताब लिखी है, वे कहते हैं कि फ़िलहाल वाशिंगटन में कई तरह की आवाज़ें सुनाई दे रही हैं. उनमें से एक ये है कि रूस को यूक्रेन के दलदल में फँसाया जाए.
वो कहते हैं, “मेरे विचार में दोनों तरफ़ के राजनेताओं (रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी) और बाइडन के प्रशासन में अधिकारियों के बीच राय अलग-अलग है. लेकिन ये (रूस को यूक्रेन में फंसा कर रखना) निश्चित रूप से कुछ लोगों के लिए पसंदीदा विकल्प है. हम जानते हैं कि बाइडन प्रशासन कम-से-कम पिछले दिसंबर से इस तरह के परिणाम के लिए स्पष्ट रूप से योजना बना रहा है.”
अचल मल्होत्रा कहते हैं, “इस बार अमेरिका और उसके नेटो सहयोगी देशों ने ये साफ़ तौर पर तय कर लिया है कि वो इस लड़ाई में सीधे तौर पर शामिल नहीं होंगे. मेरी समझ में इनकी कोशिश ये रहेगी कि रूस को उलझाकर रखा जाए. यूक्रेन की अखंडता पर आक्रमण हुआ है, इसे देखते हुए रूस पर कई तरह के सख्त प्रतिबंध लगाए जाएँ, उनका अंतिम लक्ष्य ये है कि आर्थिक और सैन्य रूप से रूस को कमज़ोर किया जाए.”
अचल मल्होत्रा कहते हैं, “अगर आप पश्चिमी देशों को देखें तो पुतिन को एक विलेन की तरह से पेश किया जा रहा है. इसके अलावा रूस को कूटनीतिक रूप से अलग-थलग किया जा रहा है. दूसरी तरफ़ उनकी कोशिश ये है कि यूक्रेन के अंदर जारी प्रतिरोध को राजनयिक, नैतिक, राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य सहायता करके ज़िंदा रखें. अगर इसका कोई हल नहीं निकला तो ये युद्ध सालों तक चल सकता है और यूक्रेन एक स्थायी युद्ध क्षेत्र बन सकता है.”
मौजूदा संकट 2014 से ही चला आ रहा है जब रूस ने यूक्रेन से जुड़े इसके पूर्वी हिस्से क्राइमिया पर हमला करके क़ब्ज़ा कर लिया था. नेटो और अमेरिका से यूक्रेन की सैनिक मदद उसी समय शुरू हो गई थी.
स्कॉट रिटर अमेरिका में रूसी मामलों के एक विशेषज्ञ हैं और अमेरिकी मरीन फोर्स के कमांडर रह चुके हैं. वो बग़दाद में एक हथियार निरीक्षक भी रह चुके हैं. उनके अनुसार अमेरिका और नेटो 2015 से ही यूक्रेन की सेना को प्रशिक्षित कर रहे हैं.
एक ट्वीट में उन्होंने कहा कि अमेरिका और नेटो के सैनिक 2015 से नेटो के यवोरिव सुविधा केंद्र में डोनबास (पूर्वी यूक्रेन) में लड़ाई के लिए हर साल यूक्रेन की सेना के पांच बटालियन को ट्रेन करने का काम कर रहे हैं. इसका मतलब ये हुआ कि आठ साल में यूक्रेन की 40 बटालियन को ट्रेनिंग दी जा चुकी है.”
पश्चिमी देशों के सैकड़ों वालंटियर्स यूक्रेन में रूसी सेना से लड़ने के लिए वहां पहुँच रहे हैं, उन्हें हथियारों की आपूर्ति भी की जा रही है. यूक्रेन के आम नागरिकों को भी शहरी युद्ध में सशस्त्र और प्रशिक्षित किया जा रहा है.
शिकागो में अमेरिकी विश्लेषक ब्रैंको मार्सेटिक के मुताबिक़ यूक्रेन में सक्रिय नियो-नाज़ी और विदेश से आ रहे रंगभेद समर्थकों के हाथों में हथियार देना ख़तरे से खाली नहीं. वे कहते हैं, “पश्चिमी देशों के समर्थन वाले यूक्रेन में प्रतिरोध करने वाले बलों से ख़तरा अमेरिका को बना रहेगा इससे इनकार नहीं किया जा सकता”.
उनका कहना है कि यूक्रेन में जारी प्रतिरोध को हथियार और ट्रेनिंग देना उसी तरह से देखा जाना चाहिए जिस तरह से अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका ने मुजाहिदीन को दिया था. उन्हें इस बात का ख़तरा है कि अपने हाथों में हथियार उठाने वाले रंगभेद समर्थक गोरे लोग अमेरिका वापस आकर हिंसक न हो जाएँ.
वो आगे कहते हैं, “अल्ट्रा-नेशनलिस्ट और अन्य सुदूर दक्षिणपंथी चरमपंथियों की यूक्रेन में लंबे समय से एक ख़तरनाक और प्रभावशाली उपस्थिति रही है और जिस तेज़ी और आसानी से पश्चिमी देशों के हथियार यूक्रेन में आ रहे हैं इसमें कोई संदेह नहीं कि वो उनके हाथों में आएंगे, वास्तव में, हम जानते हैं कि उनके पास ये हथियार पहले से ही हैं.”
ब्रैंको मार्सेटिक के मुताबिक़, अब इनमें से कई पश्चिमी चरमपंथी अपनी हिंसक गतिविधियों के लिए वास्तविक दुनिया का अनुभव प्राप्त करने के लिए यूक्रेन की यात्रा भी कर रहे हैं. “चिंता की बात यह है कि हम इन सबका अंजाम उस वक़्त ही जान पाएंगे जब तक कि बहुत देरी हो चुकी होगी.”
जिस तरह अचानक पश्चिमी देशों के सैनिकों ने अफ़ग़ानिस्तान छोड़ा उससे अमेरिका की काफ़ी बदनामी हुई और कहा गया कि अमेरिका और नेटो की अफ़ग़ानिस्तान में शिकस्त हुई है.
अचल मल्होत्रा कहते हैं कि राष्ट्रपति बाइडन के लिए यूक्रेन एक बड़ी चुनौती है. इस साल नवंबर में अमेरिकी कांग्रेस का चुनाव है. बाइडन को अमेरिका के अंदर ये दिखाना है कि अमेरिका अब भी वर्ल्ड लीडर है और वो रूस का यूक्रेन में डटकर मुक़ाबला कर रहा है. अगर यूक्रेन में रूस की जीत हुई तो अमेरिका की छवि को काफी बड़ा नुकसान हो सकता है.
अचल मल्होत्रा कहते हैं, “ऐसा हो सकता है. रूस अफ़ग़ानिस्तान में ऐसी स्थिति झेल चुका है. अमेरिका भी अफ़ग़ानिस्तान में नाकामी देख चुका है. अमेरिका वियतनाम में शिकस्त खा चुका है. ये इस बात पर निर्भर करेगा कि अमेरिका और उसके साथी देश यूक्रेन में प्रतिरोध को कब तक मज़बूती से चला पाएँगे.”
इस समय युद्ध के साथ-साथ रूस और यूक्रेन ने बातचीत के ज़रिए मसले का हल निकालने की कोशिश जारी रखी है. लेकिन संकेत ऐस मिल रहे हैं कि रूस केवल अपनी शर्तों पर ही यूक्रेन से वापस जाएगा.
उसकी शर्तों में जो बातें शामिल हैं इसमें ख़ास ये हैं: यूक्रेन नेटो में शामिल न हो, यूक्रेन की सेना हथियार डाल दे और यूक्रेन क्राइमिया को मान्यता दे.
राष्ट्रपति पुतिन ये भी चाहते हैं कि यूक्रेन में उनके समर्थन वाली सरकार स्थापित हो. अगर यूक्रेन ने शर्तें मान लीं तो हार अमेरिका और नेटो की होगी.(बीबीसी से साभार )