News Agency : ये पहला ऐसा बजट भाषण है जिसमें से बजट निकल गया और सिर्फ भाषण ही भाषण रह गया. आर्थिक सुधारों की बात जरूर कही गई है.मेरी हमेशा से मान्यता रही है कि बजट तो संख्याओं का और राशियों का विषय है. इतनी आय होगी. वो किस-किस मद में कहां (खर्च की) जाएगी. कितना विकास के लिए खर्च होगा और कितना मेंटिनेंस के लिए खर्च होगा. तो कैसे निर्णय किया जाए कि ये (बजट) अर्थव्यवस्था को, खासकर खेती की व्यवस्था को, गतिशीलता देने का कुछ काम करेगा. अंतरिम बजट में घोषित किसान सम्मान निधि के छह हज़ार रुपये से जो बहुत गरीब किसान हैं, उन्हें कुछ तो सहारा मिलेगा. उससे खाद और बीज कुछ तो खरीदा जाएगा. लेकिन इससे कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं पड़ेगा. दरअसल, टैक्स इतने ज्यादा हैं. अभी मैंने अपना ट्रैक्टर मरम्मत कराया. ट्रैक्टर के टायर पर 28 प्रतिशत जीएसटी है. अभी 77 हज़ार रुपये ट्रैक्टर की मरम्मत में लगे. इसमें से 14 हज़ार आठ सौ रुपये तो सिर्फ टैक्स है.बजट में जिस ज़ीरो बजट खेती की बात हुई है उसे लेकर मैं मान सकता हूं कि उसमें उर्वरक नहीं लगेंगे और दवा भी नहीं लगेगी लेकिन मजदूरी और बीज भी नहीं लगेगा क्या? सिंचाई के लिए जो बिजली और पानी जैसी दूसरी व्यवस्था हैं, उनका खर्च नहीं लगेगा क्या?निराई, जुताई, कटाई और ट्रांसपोर्ट के खर्च तो लगेंगे. ज़ीरो बेस क्या होता है, ये समझ में नहीं आता है.केंद्र सरकार ने साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है. अब इस लक्ष्य को हासिल करने में तीन साल बचे हैं. तीन साल में अगर दोगुनी करनी है तो कम से कम 30 प्रतिशत या 28 प्रतिशत प्रतिवर्ष किसान की आमदनी बढ़नी चाहिए. पिछले दो वर्ष में तो इसका कोई लक्षण दिखाई नहीं दिया.आपने अगर छह हज़ार रुपये दे भी दिए तो किसान को अगर दो साल बाद अपनी ट्रैक्टर की मरम्मत करानी होगी तो उसे क्या मिलेगा?साल 2013 में 1121 धान का भाव मंडी में 4800 रुपये प्रति क्विंटल मिला था. 2017 में हो गया 2200. 2018 में बढ़कर 2700-2800 हुआ. इस साल 3200- 3300 रुपये में बिका है.मैं ये आंकड़ा इसलिए दे रहा हूं कि अभी 2013 के स्तर पर भी नहीं पहुंचे हैं. अगर दोगुना करना था तो आज की तारीख में या 2022 तक उसका भाव 9600 होना चाहिए था.अगर बदलाव लाना है तो ये हो सकता है कि खेती की ज़मीन की प्रति जोत की इकाई दोगुनी हो जाए. ये भारत में संभव नहीं है. वजह ये है कि ज़मीन खाली नहीं है. दूसरा उपाय ये है कि लागत उतनी ही रहे और जिन्स का दाम दोगुना कर दिया जाए. वो भी नहीं हुआ.यूरोपीय देशों में ये किया जाता है कि किसानों को सीधे नकद राशि दी जाती है. ये डायरेक्ट पेमेंट सिस्टम कहते हैं. ये मैंने स्विट्जरलैंड में देखा. वहां 9293 यूरो यानी करीब दो लाख 20 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर प्रति किसान बंधी हुई आय सरकार की तरफ से जाती है, अपने उत्पाद को वो बाज़ार में चाहे जिस मर्जी दाम से बेचें.उसके मुक़ाबले आप भारतीय किसान को दे रहे हैं छह हज़ार रुपये और उसे कह रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में वो यूरोप के या अमरीका के किसान से प्रतिस्पर्धा कर ले.जो अमीर लोग यानी हमारी अर्थव्यवस्था का कॉर्पोरेट सेक्टर है, उनकी तो लॉबी काम करती है. वो अंदर खाने अधिकारियों से भी मिलते हैं. अर्थशास्त्रियों से भी मिलते हैं और राजनीतिज्ञों से भी मिलते हैं. उनको तरह-तरह से लाभ भी पहुंचाते हैं.
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