जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव के नतीजों की तारीख़ यानी 23 मई नज़दीक आ रही है, वैसे-वैसे राजनीतिक दल रणनीतियां बनाने में जुट गए हैं. इसकी वजह ये भी है कि बहुत से लोगों का अनुमान है कि इस चुनाव में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा.
ऐसे में छोटी पार्टियां को लग रहा है कि ऐसा हुआ तो नतीजे आने के बाद जो हालात पैदा होंगे, उनमें उनकी भूमिका अहम हो सकती है.जिन नेताओं को लग रहा है कि 23 मई के बाद सरकार बनाने में उनकी अहम भूमिका होगी ,उनमें तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) प्रमुख और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) भी एक हैं.
हालांकि उनके अपने राज्य तेलंगाना में लोकसभा की कुल 543 में से सिर्फ़ 19 सीटें हैं लेकिन केसीआर दक्षिण भारतीयों दलों को साथ लेकर एक मोर्चा बनाने की कोशिशों में लगे हैं.अगर दक्षिण भारतीय पार्टियों का ऐसा कोई मोर्चा बनता है तो वो अगले पांच सालों तक दिल्ली की केंद्र सरकार से दक्षिणी राज्यों के लिए बेहतर डील कर सकते हैं.
केसीआर मानते हैं कि दक्षिण भारतीय राज्यों को केंद्र सरकारों से लगातार अनदेखी का सामना करना पड़ा है. इसके उलट दिल्ली (केंद्र सरकार) पर उत्तर भारत, ख़ासकर उत्तर प्रदेश का दबाव ज़्यादा रहता है.केसीआर ये भी मानते हैं कि इस स्थिति को सिर्फ़ ‘दक्षिण मोर्चा’ ही बदल सकता है. कयास लगाए जा रहे हैं कि केसीआर तेलंगाना की अधिकतर सीटें जीतने में सफल रह सकते हैं.
इसी सोच के तहत केसीआर ने दूसरे दक्षिण भारतीय राज्यों के मुख्यमंत्रियों और नेताओं से मुलाक़ातों का सिलसिला शुरू कर दिया है. सबसे पहले उन्होंने केरल के मुख्यमंत्री पिनारई विजयन से मुलाक़ात की.
केरल के मुख्यमंत्री से मिलने में तो केसीआर को कोई दिक़्क़त नहीं आई लेकिन तमिलनाडु में डीएमके प्रमुख एमके स्टालिन ने शुरू-शुरू में उनसे मिलने में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.कई बार मिलने के लिए समय मांगने के बाद आख़िरकार स्टालिन ने केसीआर से मुलाक़ात तो कर ली लेकिन शायद उन्होंने केसीआर की फ़ेडरल फ़्रंट की योजना पर अपनी रज़ामंदी नहीं दी.
बताया जा रहा है कि स्टालिन ने उलटा केसीआर को ही कांग्रेस के साथ मिलकर मोर्चा बनाने की सलाह दे दी. इसके बाद केसीआर को अहसास हुआ कि उनकी बातों से दूसरी पार्टियों में ये संदेश जा रहा है कि वो ऐसे मोर्चे के गठन पर विचार कर रहे हैं जो केंद्र में बीजेपी की सरकार बनाने में मदद करेगा.
ऐसी धारणा भी बन रही है कि चुनाव के नतीजों के बाद बीजेपी अपने दम पर सरकार बनाने के लिए शायद पर्याप्त सीटें नहीं जुटा पाएगी.अपनी ‘बीजेपी समर्थक’ वाली छवि तोड़ने के लिए अब केसीआर ने ये कहना शुरू कर दिया है कि अगर ज़रूरत पड़ी तो वो कांग्रेस से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं.
कांग्रेस ने भी चुनाव के बाद ज़रूरत पड़ने पर केसीआर के नेतृत्व वाली टीआरएस से समर्थन मांगने के लिए संदेशा भेजवा दिया है.राजनीतिक विश्लेषकों का ये भी मानना है कि केसीआर को दिल्ली में अहम भूमिका जैसे कि उप प्रधानमंत्री या कुछ बड़े मंत्रालयों का ऑफ़र मिलता है तो वो इनकार नहीं कर सकेंगे.
अगर ऐसा होता है तो तेलंगाना की बागडोर केसीआर अपने बेटे केटी राम राव (केटीआर) को दे देंगे. केटीआर अभी पार्टी के अध्यक्ष भी हैं.हालांकि ऐसा भी नहीं है कि केसीआर इस तरह से सक्रिय होने वाले अकेले दक्षिण भारतीय नेता हैं.
आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) प्रमुख चंद्रबाबू नायडू भी ऐसी ही योजनाएं लेकर काफ़ी महीने पहले से सक्रिय हैं.उन्होंने अचानक ही एनडीए से अलग होने का फ़ैसला लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को परेशान कर दिया था. बीजेपी के लिए उनका ये फ़ैसला इसलिए भी परेशानी का सबब बना क्योंकि आंध्र प्रदेश में बीजेपी की मौजूदगी न के बराबर है.
विश्वसनीय सूत्रों के मुताबिक़ उस वक़्त पीएम मोदी ने चंद्रबाबू नायडू के प्रभाव को कम करने के लिए केसीआर और वाईएसआर कांग्रेस प्रमुख जगन रेड्डी से मदद मांगी थी.बीजेपी के लिए जगन रेड्डी का समर्थन हासिल करना उतना मुश्किल नहीं था क्योंकि उनकी वाईएसआर कांग्रेस आंध्र प्रदेश के सत्ता-संघर्ष में टीडीपी के सीधे ख़िलाफ़ खड़ी है.
टीडीपी के एनडीए से बाहर होने के बाद वाईएसआर कांग्रेस के लिए एनडीए को समर्थन देना स्वाभाविक था.ऐसा इसलिए भी क्योंकि जगन रेड्डी पर सीबीआई के कई मामले चल रहे हैं और ऐसे में उन्हें केंद्र की मोदी सरकार की मदद की ज़रूरत थी. मोदी ने जब जगन से मदद मांगी तो उस वक़्त ऐसा लग रहा था कि मोदी का सत्ता में दोबारा आना लगभग तय है.
केसीआर को मनाना भी ज़्यादा मुश्किल नहीं था क्योंकि चंद्रबाबू नायडू से उनकी पुरानी राजनीतिक दुश्मनी रही है.यहां ये जानना दिलचस्प होगा कि केसीआर कभी टीडीपी के अहम सदस्य थे. 1999 में वो मंत्री बनना चाहते थे लेकिन उन्हें विधानसभा का डिप्टी स्पीकर बना दिया गया. इससे नाराज़ होकर केसीआर ने टीडीपी छोड़ दी और उन्होंने अपनी अलग पार्टी (टीआरएस) बनाते हुए अलग तेलंगाना राज्य की मांग शुरू कर दी.
चंद्रबाबू नायडू के एनडीए छोड़ने के बाद ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था कि वो कांग्रेस के क़रीब जाएंगे. चंद्रबाबू नायडू के लिए ये इसलिए भी आसान था क्योंकि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की मौजूदगी ना के बराबर है. इसलिए दोनों पार्टियों के बीच हितों का कोई टकराव नहीं है.
इतना ही नहीं, नायडू को ये भी बताया गया कि राहुल गांधी ख़ुद प्रधानमंत्री बनने के इच्छुक नहीं हैं. यूपीए की सरकार बनने की स्थिति में राहुल गांधी यूपीए अध्यक्ष बनकर संतुष्ट रहेंगे, और नायडू जैसे किसी और को प्रधानमंत्री बनने देंगे. नायडू से ये भी कहा गया कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री का पद उन जैसे किसी शख़्स के लिए छोड़ना चाहते हैं.
इसके बाद चंद्रबाबू नायडू ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी और तमिलनाडु में एमके स्टालिन से मुलाक़ात करके एक दक्षिणी मोर्चे का प्रस्ताव रखा. बताया जा रहा है कि दोनों ने ही चंद्रबाबू नायडू के इस सुझाव को पसंद किया है.
लेकिन ये अनुमान भी है कि इस लोकसभा चुनाव में चंद्रबाबू नायडू के लिए नतीजे बहुत संतोषजनक नहीं होंगे क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टीआरएस और वाईआरसीपी के ज़रिए उन्हें रोकने की पूरी कोशिश की है.
सूत्रों के अनुसार चंद्रबाबू नायडू ने पहले तो इन अनुमानों को गंभीरता से नहीं लिया लेकिन जैसे ही चुनावों के दिन क़रीब आने लगे नायडू इन चुनावी सर्वेक्षणों पर ग़ौर करने लगे.
विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि इन सब का नतीजा ये हुआ कि वो टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस की दूरियां कम करने की कोशिश करने लगे और बहुत हद तक इसमें सफल भी हुए हैं.
हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस के बीच अब भी फ़ासला है और वाईएस कांग्रेस ज़्यादा बेहतर नतीजे पाने की स्थिति में है.नतीजे चाहें जो हों, चंद्रबाबू नायडू अब किसी भी तरह की स्थिति के लिए तैयार हैं. हाल ही में उन्होंने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से भी मुलाक़ात की है और शायद अब ममता प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी पसंद हैं.
प्रधानमंत्री पद के लिए ममता बनर्जी को अपनी पसंद बनाने के पीछे चंद्रबाबू नायडू का तर्क ये है कि ममता बनर्जी वैचारिक तौर पर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी विरोधी हैं.चंद्रबाबू नायडू को लग रहा है कि उनकी प्रधानमंत्री बनने की गुंजाइश तो अब ना के बराबर है तो ऐसी स्थिति में वो अपने ससुर एनटी रामा राव की तरह दिल्ली की राजनीति में अपने लिए कोई जगह तलाश रहे हैं.
एनटीआर ने 1989 में वीपी सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई थी और यही कारण था कि विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी की हार के बावजूद वो नेशनल फ़्रंट यानी राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के चेयरमैन चुन लिए गए थे.
(बीबीसी से साभार)