राजनीति में वंशवाद पर चर्चा आए दिन होती रहती है। कहा जाता है, राजनेता के घर पर ही राजनेता जन्म लेता है। कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्हें विरासत में राजनीति मिली है, तो कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने लंबे संघर्ष के बाद राजनीति में जगह बनाई है। झारखंड में देखें तो कुछ अपवादों को छोड़कर वंशवाद की राजनीति को खाद पानी नहीं मिल पाया।
लंबे समय तक राजनीति में रहकर अपनी छाप छोड़नेवाले झारखंड के जनजातीय और गैरजनजातीय नेताओं के परिवार में राजनीति को आगे ले जाने वाली उनकी अगली पीढ़ी सामने नहीं आई। इनमें से कई नेता सांसद, विधायक और मंत्री भी बने। लेकिन इन नेताओं ने अपनी संतानों को चुनाव में टिकट दिलाने के लिए कोई सिफारिश नहीं की।
झारखंड आंदोलन से जुड़े कई नेताओं ने चुनावी राजनीति में लंबी पारी खेली। इनमें खूंटी के जयपाल सिंह मुंडा, एनई होरो और धनबाद के एके राय के नाम प्रमुख हैं। झारखंड आंदोलन के रास्ते संसद और विधानसभा तक पहुंचे।
इनके अलावा सुशील कुमार बागे, साइमन तिग्गा, सुशीला केरकेट्टा, बागुन सुंब्रई, ललित उरांव, कड़िया मुंडा, भुखला भगत, करमचंद भगत, थियोडोर बोदरा, पीके घोष और ननी गोपाल मित्रा जैसे नाम तत्कालीन दक्षिण बिहार (अभी झारखंड) में काफी चर्चित रहे हैं। इन नेताओं ने अपनी संतानों को राजनीतिक उत्तराधिकारी नहीं बनाया।
मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा और एनई होरो झारखंड आंदोलनकारी के साथ-साथ झारखंड पार्टी के संस्थापक थे। अपनी पार्टी को विधानसभा में भी लड़ाया। कई नेता विधायक बने। लेकिन इनमें इन दोनों नेताओं के बच्चों के नाम नहीं थे। झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापकों में धनबाद से कई बार सांसद रहे एके राय भी इसी श्रेणी में आते हैं।