अंग्रेजी अख़बार द हिंदू में हाल ही में रफ़ाल को लेकर छपी एक रिपोर्ट को लेकर राजनीतिक गलियारों में हड़कंप मच गया है. वरिष्ठ पत्रकार एन. राम की इस रिपोर्ट में दस्तावेज़ों के हवाले से कहा गया है कि रफ़ाल सौदे के वक्त पीएमओ और फ़्रांस के बीच ‘समानांतर बातचीत’ को लेकर रक्षा मंत्रालय ने एतराज़ जताया था.
इसके बाद द हिंदू ने इस रक्षा डील पर एक और रिपोर्ट छापी जिसमें दावा किया गया कि रफ़ाल सौदे के समय कई नियमों का पूरी तरह से पालन नहीं किया गया.
बीबीसी तमिल संवाददाता मुरलीधरन कासी विश्वनाथन ने हिंदू समूह के प्रमुख रहे और इस रिपोर्ट के लेखक एन. राम से ख़ास बातचीत की:
सवाल- इस डील में क्या-क्या पेंच हैं?
जवाब- द हिंदू ने इस मुद्दे पर तीन लेख प्रकाशित किए हैं. हमने कुछ दस्तावेज़ों को पेश किया है. मैं आपको वो सब बताता हूं जो हमने अपनी पड़ताल में पाया.
पहली बात है- इन विमानों की क़ीमत. साल 2007 में इस विमान की खरीद की बातचीत शुरू की गई. साल 2012 में इस सौदे की बातचीत में गंभीरता आई. लेकिन साल 2016 में अचानक ये डील ही बदल गई और 126 की जगह 36 विमान खरीदने का फ़ैसला लिया गया.
इसके बाद, इस सौदे से एचएएल का नाम बाहर हो गया. प्रति विमान कीमत काफ़ी ज़्यादा हो गई. अब बात करते हैं इसकी कीमत बढ़ने के कारणों की.
इन विमानों को भारत के लिए कस्टमाइज़ करना था और इसमें कुल 13 स्पेसिफ़िकेशन होने थे. दसो एविएशन ने कहा कि इन विमानों को कस्टमाइज़ करने के लिए 1.4 बिलियन यूरो देने होंगे. इस कीमत को बातचीत के बाद कम करके 1.3 बिलियन यूरो कर दिया गया. जैसे ही 126 की जगह 36 विमान खरीदने का फ़ैसला लिया गया वैसे ही प्रति विमान की कीमत में भारी बढ़ोतरी हो गई.
एक विमान की कीमत में 41% का इज़ाफ़ा हुआ. कई लोगों ने संसद पर इसे लेकर सवाल उठाए लेकिन सरकार ने जवाब नहीं दिया.
सरकार ने कहा कि कीमत का ब्यौरा देने पर दूसरे देशों को भी इसका पता चल जाएगा. इसके अलावा हमने अपनी पड़ताल में पाया कि जिस वक्त रक्षा मंत्रालय और फ्रांस के बीच सौदे को लेकर बात चल रही थी, ठीक उसी वक्त प्रधानमंत्री दफ़्तर और फ़्रांस के बीच भी बातचीत जारी थी.
सेना के लिए गोला-बारूद और अन्य सामग्रियों की खरीद के संबंध में पहले से ही नियम हैं. खरीद से पहले एक विशेषज्ञ टीम का गठन किया जाता है और वह टीम निर्माता और सरकार दोनों के साथ बात करती है.
रक्षा मंत्रालय के दस्तावेज़ों में पता चलता है कि केंद्र सरकार भी उसी समय फ़्रांस से बात कर रही थी, जब विशेषज्ञों की टीम राफ़ाल जेट विमानों की खरीद के लिए दासो और एमबीडीए के साथ बातचीत कर रही थी. एमबीडीए कंपनी जेट के लिए हथियारों की आपूर्ति करने वाली कंपनी है.
‘समानांतर बात’ का यह मुद्दा निचले स्तर के अधिकारियों से लेकर रक्षा सचिव तक की ओर से उठाया गया था. उन्होंने कहा कि इस तरह की ‘समानांतर बातचीत’ से भारत और फ़्रांस के बीच बातचीत कमज़ोर होगी. उन्होंने ये भी कहा कि फ्रांस की कंपनी इस स्थिति का इस्तेमाल कर सकती है और वह भारत के ख़िलाफ़ जा सकती है. यह विशेष फ़ाइल पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को भेजी जा रही थी.
आमतौर पर पर्रिकर इस तरह के दस्तावेजों पर तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं लेकिन इस बार उन्होंने इस फ़ाइल को अपने तक ही सीमित रखा था. लंबे वक्त तक उन्हें ये समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करना चाहिए. कुछ वक़्त बाद तत्कालीन रक्षा मंत्री ने एक नोट लिखा, जिसमें कहा गया कि उत्तेजित ना हो और प्रधानमंत्री के सचिव से बात करके इस मुद्दे को सुलझा लिया जाए.
अगर पर्रिकर रक्षा सचिव के इन सवालों से सहमत ना होते तो इस पर प्रतिक्रिया ना देते. 2016 के सितंबर महीने में, रफ़ाल सौदे पर हस्ताक्षर करने से पहले कुछ अन्य चीजें भी हुईं. उन आठ नियमों की उपेक्षा की गई, जिन्हें गोला-बारूद खरीदते समय पालन करने की आवश्यकता होती है. इसमें रिश्वतखोरी के खिलाफ नियम भी शामिल है. सरकार ने ‘पेनल्टी फॉर अनड्यू इंफ्लूएंस’ नियम को भी हटा दिया.
ये नियम कहता है, ” कमिशन के नाम पर ली गई रिश्वत पर सज़ा होनी चाहिए. इसके अलावा वित्तीय स्थिरता से जुड़े नियमों में भी रियायतें दी गईं. ये सब कुछ बिलकुल आख़िरी वक्त में हुआ जब प्रधानमंत्री दफ़्तर ने मामले में हस्तक्षेप किया.”
दासो कंपनी कई वित्तीय संकट से गुज़र रही है. ऐसे में कंपनी को ‘संप्रभु गारंटी’ देनी ही चाहिए. इसका मतलब है कि फ़्रेंच सरकार कंपनी की ओर से गारंटी दे.
चूंकि कंपनी वित्तीय संकट का सामना कर रही थी, इसलिए भारत की तीन सदस्यीय विशेषज्ञ समिति ने संप्रभु गारंटी मांगी, लेकिन इन नियमों में ढील दी गई है.
नियमों में ये ढील संदेह पैदा करती है. हमने रक्षा मंत्रालय के वित्तीय सलाहकार सुधांशु मोहंती की लिखी रिपोर्ट भी जारी की. अचानक रक्षा मंत्रालय ने नियम बदल दिए और इस पर मोहंती से उनकी राय मांगी गई. उन्हें रिपोर्ट पढ़ने का पर्याप्त वक्त भी नहीं दिया गया.
जल्दी-जल्दी में रिपोर्ट पढ़कर मोहंती ने तीन बिंदुओं का सुझाव दिया. सबसे अहम सुझाव था कि वित्तीय संकट के कारण दासो एविएशन, एमडीपीए के लिए एस्क्रो अकाउंट खोले जाएं. एस्क्रो अकाउंट एक ऐसा अकाउंट होता जिसमें सौदे के मुताबिक विमान मिलने पर भारत सरकार किश्तों में कंपनी का भुगतान करती. लेकिन मोहंती के इस सुझाव को नहीं माना गया.
कुल मिलाकर इस समझौते में कई कमियां हैं. सबसे बड़ी चिंता का विषय ‘पेनल्टी फॉर अनड्यू इंफ्लूएंस’ नियम में ढील देना है.
प्रधानमंत्री फ्रांस गए और कहा कि बातचीत में सरकार 36 रफ़ाल विमान खरीदने की सहमति बना पायी है. ऐसा लग रहा था कि तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर इस बैठक का हिस्सा ही नहीं थे.
इस एलान के कुछ दिन पहले ही दासो के सीईओ एरिक ट्रैपियर ने कहा था कि वह एचएएल के साथ 94 फ़ीसदी तक बातचीत पूरी कर चुके हैं.
लेकिन सरकार ने एचएएल को सौदे से बाहर करने का एलान करके ‘मेक इन इंडिया’ को भी इससे खत्म कर दिया गया. ये सौदा ज़ाहिर तौर पर राष्ट्रीय हित को प्रभावित करने वाला है.
आमतौर पर इस तरह के सौदे में कहा जाता है कि 30 फ़ीसदी मैनुफ़ैक्चरिंग भारत में की जाए. लेकिन दासो इस डील में 50 फ़ीसदी तक लोकल उत्पादन पर सहमत था. लेकिन, एचएएल को सौदे से बाहर कर अनिल अंबानी की रिलायंस डिफ़ेंस को डील का हिस्सा बनाया गया. उस वक्त फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसुआं ओलांद कह चुके हैं कि ‘उनके पास कोई विकल्प नहीं था.’
हमें रिलायंस डिफेंस की वित्तीय स्थिति का पता नहीं है लेकिन यह स्पष्ट है कि अनिल अंबानी पहले से ही वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं.
सवालः आपने रक्षा अधिकारियों की चिट्ठी छापी लेकिन आपने मनोहर पार्रिकर की चिट्ठी क्यों नहीं छापी?
जवाब- उस दिन हमें मनोहर पर्रिकर के जवाब वाले दस्तावेज़ नहीं मिले थे इसलिए हमने उसे रिपोर्ट में नहीं शामिल किया. सरकार ने इस दस्तावेज़ को एक दिन बाद जारी किया. अब हम पर ये आरोप लगाया जा रहा है कि हमने वो क्यों नहीं छापा. हमने ऐसा कुछ भी नहीं किया था. अगर आप एक-एक करके जानकारियां जारी करेंगे तो हम उसे वैसे ही तो पहुंचाएँगे.
मनोहर पार्रिकर को भले इस डील के बारे में जानकारी ना हो लेकिन उन्हें नियमों में हो रहे बदलाव की जानकारी थी. उन्हें इससे जुड़े दस्तावेज़ 2015 दिसंबर में दिए गए.
सवाल- रक्षा सचिव जी मोहन कुमार इस तरह की गड़बड़ियों से पूरी तरह इंकार करते हैं
जवाब- वो अब इससे इंकार कर रहे हैं लेकिन सवाल ये कि उन्होंने उस वक्त तब चिट्ठी क्यों लिखी थी. क्या उन्होंने ये नहीं लिखा कि समानांतर बातचीत से हमारी बातचीत प्रभावित होगी?
सवालः रफ़ाल डील को लेकर बनी कमेटी के चीफ़ एयर मार्शल एपीपी सिन्हा ने आपकी रिपोर्ट की आलोचना की है.
जवाब- 1980 के दशक के बाद रक्षा अधिकारियों को कभी भी इस तरह के सौदे का हिस्सा नहीं बनाया गया. लेकिन, उन्हें समिति के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया था. उन्होंने एमके शर्मा की पुरानी चिट्ठियों की आलोचना की. लेकिन, रक्षा सचिव की चिट्ठी भी इन फाइलों का हिस्सा रही. उसके बारे में उनका क्या कहना है?
सवाल- क्या आपको लगता है कि ये इस सौदे में घोटाला किया गया है?
जवाब- हम एक राजनीतिक पार्टी की तरह बात नहीं कर सकते. हमें नतीजे पर पहुंचने से पहले क़दम-दर-क़दम चीज़ों को समझना होगा.
सवाल- क्या इससे पहले किसी रक्षा सौदे में सरकार का इस तरह दखल रहा है?
जवाब- हां रहा है, लेकिन बोफ़ोर्स घोटाले के बाद केंद्र सरकार नए विस्तृत नियम लेकर आई. सरकार ये दावा कर रही है कि बातचीत फ्रांस की सरकार से की जा रही थी. लेकिन दासो फ्रांस की सरकारी कंपनी नहीं है. ‘संप्रभु गारंटी’ दी जाती तो बेहतर होता. लेकिन फ्रांस ने ऐसा नहीं किया. फ्रांस की सरकार ने एक दस्तावेज़ दिए जिसे ‘लेटर ऑफ कंफर्ट’ कहते हैं.
कानून के मुताबिक ‘लेटर ऑफ कंफर्ट’ की कोई कानूनी मान्यता नहीं होती. अगर भविष्य में दासो इस सौदे को पूरा नहीं कर पाती है तो ये दस्तावेज़ किसी काम के नहीं होंगे
सवाल- लेकिन इस मामले को सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है.
जवाब- ये सुप्रीम कोर्ट के लिए भी एक बुरी स्थिति थी. वे ग़लत जानकारी के साथ इस निष्कर्ष पर पहुंचे.
मुझे लगता है कि कोई ना कोई वकील इस मामले को दोबारा सुप्रीम कोर्ट में लेकर जाएगा. अरूण शौरी और यशवंत सिन्हा ने तो इसके लिए पुनर्विचार याचिका दायर की है.
सवाल- अगर 2019 में सरकार बदली तो क्या ये समझौता रद्द होगा?
जवाब- रफ़ाल एक अच्छा विमान है. लेकिन यूरो-फ़ाइटर भी एक बेहतर विकल्प है. ब्रिटेन, जर्मनी, इटली और स्पेन ने मिलकर एक संघ बनाया है जिसके विमान को यूरो-फ़ाइटर करते हैं. वो 20 फ़ीसदी डिस्काउंट दे रहे थे. ये विमान रफ़ाल से सस्ते थे.
लेकिन इन विमानों को नहीं खरीदा गया. इसका कारण है अप्रैल 2015 के बाद सरकार का बातचीत में शामिल होना. इससे विशेषज्ञों की शक्ति कम हो गई. हम इस डील को तो रद्द नहीं कर सकते. हाँ जाँच की जा सकती है.
सवाल- जब बोफ़ोर्स पर सवाल उठाए गए और जब रफ़ाल पर सवाल उठाए जा रहे हैं दोनों की स्थिति में कितना अंतर है?
जवाब- हमें बोफोर्स को लेकर कई प्रतिक्रियाओं का सामना किया था. कई मीडिया ने इसकी खबर छापी. अब कई न्यूज़ चैनल ने रफ़ाल पर रिपोर्ट दिखाई. सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर चर्चा हो रही है.
जब बोफोर्स मामला सामने आया था तो कई अखबारों ने इसे प्रमुखता से छापा. बोफोर्स घोटाले का पर्याय बन गया. वैसे मीडिया में कई हमारे प्रतिद्वंदी इसे प्रकाशित तो नहीं कर रहे हैं लेकिन वे इसे नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते.
सवाल- क्या बोफोर्स के वक्त आपको सरकार से कोई धमकी मिली थी?
जवाब- नहीं, लेकिन, कुछ अफवाहें थीं. अरुण शौरी की दी गई जानकारी के आधार पर एम करुणानिधि और तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने मेरे लिए सुरक्षा का इंतज़ाम किया था. राजीव गांधी ने मुझसे सीधे बात की. हम श्रीलंका के मुद्दे के बारे पर अक्सर बात करते थे लेकिन उन्होंने मुझसे कभी बोफोर्स घोटाले के बारे में बात नहीं की.
एक बार हमारी मुलाक़ात हुई, मैंने उनसे सबकुछ बताया. तो राजीव गांधी ने मुझसे कहा कि तुम्हें क्या लगता है किसने पैसे लिए?
मैंने कहा , क्या यह बड़े नेताओं की अनुमति के बिना हो सकता है? लेकिन उन्होंने इस बात से इनकार किया कि बोफोर्स घोटाले से न तो उनका और न ही उनके परिवार का कोई संबंध था. उन्होंने बेहद सहज तरीके से मुझसे बात की.
उसके बाद, वीपी सिंह भारत के प्रधानमंत्री बने और कुछ पत्रकारों ने उनसे बोफोर्स पर सवाल पूछा. उन्होंने हंसते हुए कहा, “आपको राम से पूछना होगा. वह अच्छी तरह से जानता है, “
सवाल- रफ़ाल के मुद्दे से जुड़ी और क्या-क्या बातें आप सामने लाने वाले हैं?
जवाब- मैं अभी कुछ नहीं कह सकता लेकिन, कई चौंकाने वाली बातें सामने आ सकती हैं. हमें कई और दस्तावेज़ मिल रहे हैं.
सवाल- सोशल मीडिया पर कहा जाता है कि द हिंदू वाम विचारधारा रखता है और आप भी लेफ़्ट की ओर झुकाव रखते है.
जवाब- मैं छिपे हुए एजेंडा वाले लोगों को जवाब देने का इच्छुक नहीं हूं. यह सच है कि मैं प्रगतिशील वामपंथी विचार रखता हूं. लेकिन इस मुद्दे और मेरी विचारधारा के बीच क्या संबंध है? अगर दक्षिणपंथी विचारक इस तरह की बात कहते या लिखते हैं तो ठीक है. यदि वे आपत्ति जताना चाहते हैं, तो उन्हें उस सूचना पर आपत्ति करनी होगी जो मैंने प्रकाशित की थी. मैंने पर्रिकर के नोट्स प्रकाशित क्यों नहीं किए?’ ये कोई तर्क नहीं है. कुछ चीजें केवल क्रमशः सामने आती हैं. बोफोर्स में भी ऐसा ही हुआ था.
राफ़ाल पर हर कोई चर्चा कर रहा है. क्या हम दस्तावेज़ों को हाथ में लेकर बैठे रहेंगे. हमें जैसे-जैसे दस्तावेज़ मिलेंगे हम उसे प्रकाशित करेंगे.
रफ़ाल मुद्दे पर हमने पहली रिपोर्ट प्रकाशित करने में कुछ हफ्तों का वक्त लग गया था. हम रात 10.30 बजे तक इस रिपोर्ट को लिखते रहे थे.
सवाल- भारत में खोजी पत्रकारिता की स्थिति आपके मुताबिक कैसी है?
जवाब- कई पत्रकार हैं जो खोजी पत्रकारिता करते हैं लेकिन कई बार उनका संस्थान उन्हें ऐसा करने से रोक देता है.
द वायर, कारवां, स्क्रॉल और द हिंदू ये सभी ऐसी पत्रकारिता कर रहे हैं. कारवां इस दिशा में काफी बेहतर काम कर रहा है.
पड़ोसी देश बांग्लादेश में डेली स्टार सही दिशा में काम कर रहा है. हालांकि इस संस्थानों पर सरकारें कई केस भी करती हैं लेकिन वे अपना काम कर रहे हैं. पाकिस्तान में डॉन भी इसका उदाहरण है.