बेगूसराय के प्राइवेट अस्पतालों के काले कारनामे

यह सच है कि सी-सेक्शन डिलीवरी के समय ज़िंदगियां बचा सकता है और कुछ केस में इसे एकदम भी नकारा नहीं जा सकता। हालांकि विषम परिस्थितियों के न होने के बावजूद भी सी-सेक्शन के इतने सारे मामले होना चिंता का विषय है। बेगूसराय में सी-सेक्शन काफ़ी तेज़ी से बढ़ रहा है। ये काफ़ी चिंताजनक है। बेगूसराय के प्राइवेट अस्पतालों में 80 फ़ीसदी डिलीवरी सी-सेक्शन से हो रही हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक होने वाली डिलीवरियों में सी-सेक्शन का 10-15% होना एक सही आंकड़ा होता है। हालांकि बेगूसराय के प्राइवेट अस्पतालों में मेडिकल की ज़रूरतों के हिसाब से सी-सेक्शन रेट काफ़ी ज़्यादा है। ये बात इस तरफ़ इशारा करती है कि काफी डिलीवरी बिना किसी मेडिकल वजह के सी-सेक्शन से की जाती हैं।

आंकड़े बताते हैंं कि मेडिकल ज़रूरत नहीं बल्कि डॉक्टर और पैसे ये तय कर रहे हैं कि किस तरह की डिलीवरी होनी है। प्राइवेट अस्पतालों (80% ऑपरेशन) में सरकारी अस्पतालों (10.0% ऑपरेशन) के मुकाबले ये रेट आठ गुना ज्यादा है। ये नतीजा है हेल्थकेयर फैसिलिटीज़ का ऐसा मकसद लेकर चलने का, जिससे वो ज्यादा से ज्यादा पैसे कमा सकें। अमीर परिवार की महिलाओं में सी-सेक्शन रेट लगभग 76% है, वहीं गरीब महिलाओं में ये रेट सिर्फ 15% है। ये सारे आंकड़े ये बात समझाने के लिए काफी हैं कि गले में आला टांगी हुई जमात ने सी-सेक्शन डिलीवरी को पैसे कमाने का ज़रिया बनाया हुआ है।

बहुत सारे फैक्टर्स हैं जो ये तय करते हैं कि किस तरह की डिलीवरी होनी है। अगर सी-सेक्शन डिलीवरी करनी है तो ये बात पहले से फिक्स भी हो सकती है, या फिर इसे इमर्जेंसी के समय भी किया जा सकता है। तय की गई सी-सेक्शन डिलीवरी, इन हालातों मे होती है जब मां की उम्र ज्यादा हो, मोटापा हो, या बच्चे की पोजीशन सही न हो। वहीं इमरजेंसी सी-सेक्शन डिलीवरी कई सारे मेडिकल वजहों से की जाती है। भ्रूण संकट (फीटल डिस्ट्रेस) और एमनियॉ टिक फ्लुइड (बच्चे की जरूरत का लिक्विड जो मां के शरीर में होता है) में कमी, उन कारणों में से हैं।
नॉर्मल डिलीवरी में काफी दर्द होता है। फिर भी ये एक बार का दर्द है। वहीं सी-सेक्शन डिलीवरी से लंबे समय तक चलने वाले गंभीर नतीजे हो सकते हैं। जिनमें इन्फेक्शन, खून का ज्यादा बह जाना, अंगों में चोट आ जाना जैसी चीजें भी होती हैं। कभी-कभी एक और सी-सेक्शन करने की भी ज़रूरत पड़ सकती है। इसके साथ ही अस्पताल में ज्यादा दिनों के लिए रुकना पड़ सकता है और रिकवरी टाइम भी बढ़ सकता है।

बेगूसराय में सी-सेक्शन रेट प्राइवेट अस्पतालों में सरकारी अस्पतालों के मुकाबले कहीं ज्यादा है। जिससे साफ-साफ पता लगता है कि प्राइवेट अस्पतालों का मकसद ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाना है। सी-सेक्शन टाइम भी कम लेता है ऊपर से इससे मरीज़ को ज्यादा समय के लिए अस्पताल में रोका भी जा सकता है, जिससे मां के परिवार से ज्यादा से ज्यादा पैसे वसूले जा सकें। इसके अलावा डॉक्टरों पर बहुत भरोसा किया जाता है। डॉक्टर की कही बात पर अकसर लोग कोई सवाल खड़े नहीं करते। जिसका फायदा सबसे ज्यादा प्राइवेट अस्पताल उठाते हैं।
इस बात पर बहस होती है कि ये महिला पर निर्भर करता है कि उसे किस तरह डिलीवरी करवानी है। यहां पर डॉक्टर्स का ये फर्ज़ बनता है कि वो महिला को सी-सेक्शन डिलीवरी के नुकसान और फायदे दोनों बताएं। हालांकि असलियत में इस बात का फैसला अकेले डॉक्टर ही ले लेता है। दिक्कत की बात तो यहां भी आ रही है कि आज कल के डॉक्टर्स और खासकर प्राइवेट मेडिकल कॉलेज से पढ़कर आने वालों को पता ही नहीं होता कि नॉर्मल डिलीवरी करते कैसे हैं।

आवश्यकता है कि बच्चे और मां की मेडिकल कंडीशन की हर एक डिटेल का ध्यान रखा जाए। रिकॉर्ड मेनटेन करने की ज़रूरत है। इससे डॉक्टरों को मदद मिलेगी ये तय करने में कि नॉर्मल डिलीवरी करनी है या सी-सेक्शन करना है। इसके साथ ही क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट में सरकार को कुछ बदलाव लाने चाहिए। सरकार को नॉर्मल और सी-सेक्शन डिलीवरी के रेट फिक्स कर देने चाहिए। इससे डॉक्टर्स सी-सेक्शन डिलीवरी करवाने के लिए ज्यादा फ़ोर्स नहीं करेंगे। इसके साथ ही ज़रूरी है कि प्रेग्नेंट लेडी को नॉर्मल और सी-सेक्शन डिलीवरी के बारे में पढ़ाया और बताया जाए।

:- आलोक कौशिक

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