विनोद दुआ: आने वाली नस्लें याद रखेंगी, एक ऐंकर ऐसा भी था

डॉ मुकेश कुमार
जाने-माने टीवी ऐंकर विनोद दुआ का जाना टीवी पत्रकारिता के एक युग का अंत है. यहाँ ‘एक युग का अंत’ घिसा-पिटा मुहावरा या अतिश्योक्ति नहीं है, वह सच्चाई है. ख़ास तौर पर हिंदी टीवी पत्रकारिता के लिए. उन्हीं की वज़ह से टीवी पर हिंदी पत्रकारिता पहली बार जगमगाई थी.
उस समय जब टीवी की दुनिया दूरदर्शन तक सिमटी थी और टीवी पत्रकारिता नाम के लिए भी नहीं थी, विनोद दुआ धूमकेतु की तरह उभरे थे. इसके बाद वे लगभग साढ़े तीन दशकों तक किसी लाइट टॉवर की तरह मीडिया जगत के बीच जगमगाते रहे.
दूरदर्शन पर उनकी शुरुआत ग़ैर समाचार कार्यक्रमों की ऐंकरिंग से हुई थी, मगर बाद में वे समाचार आधारित कार्यक्रमों की दुनिया में दाखिल हुए और छा गए. चुनाव परिणामों के जीवंत विश्लेषण ने उनकी शोहरत को आसमान तक पहुँचा दिया था. प्रणय रॉय के साथ उनकी जोड़ी ने पूरे भारत को सम्मोहित कर लिया था.
दरअसल, विनोद दुआ का अपना विशिष्ट अंदाज़ था. इसमें उनका बेलागपन और दुस्साहस शामिल था. जनवाणी कार्यक्रम में वे मंत्रियों से जिस तरह से सवाल पूछते या टिप्पणियाँ करते थे, उसकी कल्पना करना उस ज़माने में एक असंभव सी बात थी.
मंत्री के मुंह पर आलोचना करने का साहस
सरकार नियंत्रित दूरदर्शन में कोई ऐंकर किसी शक्तिशाली मंत्री को ये कहे कि उनके कामकाज के आधार पर वे दस में से केवल तीन अंक देते हैं तो ये उसके लिए बहुत ही शर्मनाक बात थी. मगर विनोद दुआ में ऐसा करने का साहस था और वे इसे बारंबार कर रहे थे. इसीलिए मंत्रियों ने प्रधानमंत्री से इसकी शिकायत करके कार्यक्रम को बंद करने के लिए दबाव भी बनाया था, मगर वे कामयाब नहीं हुए.
विनोद दुआ ने अपना ये अंदाज़ कभी नहीं छोड़ा. आज के दौर में जब अधिकांश पत्रकार और ऐंकर सत्ता की चाटुकारिता करने में गौरवान्वित होते नज़र आते हैं, विनोद दुआ नाम का ये शख्स सत्ता से टकराने में भी कभी नहीं घबराया.
उन्होंने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि सत्ता उनके साथ क्या करेगी. सत्तारूढ़ दल ने उनको राजद्रोह के मामले में फँसाने की कोशिश की, मगर उन्होंने ल़ड़ाई लड़ी और सुप्रीम कोर्ट से जीत भी हासिल की. उनका मुकदमा मीडिया के लिए भी एक राहत साबित हुआ.
हिंदी और अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं पर दुआ साहब की पकड़ अद्भुत थी. प्रणय रॉय के साथ चुनाव कार्यक्रमों में उनकी ये प्रतिभा पूरे देश ने देखी और उसे सराहा. त्वरित अनुवाद की क्षमता ने उनकी ऐंकरिंग को एक पायदान और ऊपर पहुँचा दिया.
अपवाद को छोड़ दें तो वे हिंदी के कार्यक्रम करते रहे और अपनी पहचान को हिंदी के ऐंकर के रूप में कायम रखा. उनमें इस बात को लेकर कमतरी का एहसास बिल्कुल भी नहीं था कि वे हिंदी में काम कर रहे हैं. इस तरह उन्हें हिंदी को लोकप्रियता और प्रतिष्ठा दिलाने वाले शख्स को तौर पर भी याद रखा जाएगा.
हालाँकि वे ख़ुद को ब्रॉडकास्टर यानी प्रसारक बताते थे और कहते थे कि पत्रकार नहीं हैं. मगर इसमें आंशिक सच्चाई ही थी. दूरदर्शन के शुरुआती दौर में ख़बरें पढ़ने वाले अधिकांश ऐंकरों का पत्रकारिता से कोई वास्ता नहीं होता था. वे टेलीप्राम्पटर (टीपी) पर लिखा ही पढ़ना जानते थे. इसके उलट विनोद दुआ को टीपी की ज़रूरत ही नहीं होती थी. वे मिनटों में अपने दिमाग़ में तय कर लेते थे कि क्या बोलना है कैसे बोलना है. इसीलिए वे लाइव प्रसारण के उस्ताद थे.
ये सही है कि वे घटनाओं की रिपोर्टिंग के लिए शुरुआती दौर के अलावा (न्यूज़ लाइन) कभी फील्ड में नहीं उतरे (खाने-पीने के कार्यक्रम ज़ायका इंडिया को छोड़कर) और न ही पत्र-पत्रिकाओं में रिपोर्ट या लेख आदि लिखते थे, मगर वे देश-दुनिया की हलचलों के प्रति बहुत सजग रहते थे. ये उनकी पत्रकारीय प्रतिबद्धता को दर्शाता है.
और यही वजह है कि उनकी ऐंकरिंग पत्रकारीय समझ और जानकारियों से भरी रहती थी. उनके सवालात में इसकी छाप देखी जा सकती थी. सवालों का नुकीलापन केवल तेवरों और भाव-भंगिमाओं की वजह से नहीं आता था, मगर समाचारों की उस बारीक़ समझ से भी आता था जो वे लगातार साथी-संगियों से चर्चा करके विकसित करते रहते थे.
देश की पहली हिंदी साप्ताहिक दृश्यात्मक पत्रिका परख की लोकप्रियता इसका प्रमाण थी. इस पत्रिका के वे न केवल ऐंकर थे बल्कि निर्माता-निर्देशक भी थे. इसके लिए उन्होंने देश भर में संवाददाताओं का जाल बिछाया और विविध सामग्री का संयोजन करके पूरे देश को मुरीद बना लिया.
चूँकि मैं इस पत्रिका का लगभग सौ एपिसोड में संपादकीय प्रमुख था इसलिए अपने अनुभव से बता सकता हूँ कि वे अपने सहयोगियों को भरपूर आज़ादी देते थे. ये और बात है कि उस समय दूरदर्शन में हर रिपोर्ट प्रीव्यू होती थी और अधिकारी बहुत सारी काट-छाँट करवाते थे, मगर दुआ साहब ने कभी इस पर आपत्ति नहीं की कि फलाँ स्टोरी में ये क्यों था या ये क्यों नहीं था.
इसी दौर में वे ज़ी टीवी के लिए एक कार्यक्रम चक्रव्यूह करते थे. ये एक स्टूडियो आधारित टॉक शो था, जिसमें ऑडिएंस के साथ किसी मौज़ू सामाजिक मसले पर चर्चा की जाती थी. इस शो में विनोद दुआ के व्यक्तित्व और ऐंकरिंग का एक और रूप देखा जा सकता था.
विनोद दुआ की पत्रकारीय समझ का एक उदाहरण सहारा टीवी पर उनके द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला कार्यक्रम प्रतिदिन भी था. इस कार्यक्रम में वे पत्रकारों के साथ उस दिन के अख़बारों में प्रकाशित ख़बरों की समीक्षा करते थे. इस कार्यक्रम में उनकी भूमिका को देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि ऐंकर पत्रकार नहीं है.
विनोद दुआ टीवी पत्रकारिता की पहली पीढ़ी के ऐंकर थे. उन्होंने उस दौर में ऐंकरिंग शुरू की थी, जब लाइव कवरेज न के बराबर होता था. युवा मंच (1974) और आपके लिए (1981) जैसे कार्यक्रम रिकॉर्डेड होते थे. बहुत बाद में, 1985 में समाचार आधारित चुनाव विश्लेषण लाइव प्रसारण शुरू हुआ और उन्होंने इसमें अपनी महारत साबित कर दी.
बाद में जब न्यूज़ चैनलों का दौर आया, जिसमें सब लाइव ही लाइव था. उन्हें इससे तारतम्य बैठाने में किसी तरह की दिक़्क़त नहीं आई और जब डिजिटल पत्रकारिता का दौर आया तो वे बड़ी आसानी से वहाँ भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में कामयाब रहे. द वायर और एचडब्ल्यू पर उनके शो के दर्शकों की संख्या लाखों में थी.
वे लगातार पढ़ते रहने वाले संप्रेषक थे. हिंदी-उर्दू के साहित्य उन्होंने काफी पढ़ रखा था, मगर नए के प्रति उनकी जिज्ञासा बनी रहती थी. साहित्य इतर विषयों पर भी उनका अध्ययन चलता रहता था. क़िताबें उनकी अभिन्न मित्र थीं.
दुआ साहब (जैसा कि हम लोग उन्हें कहते थे) ज़िंदादिल जोश-ओ-खरोश से भरे आदमी थे. ओढ़ी हुई गंभीरता को वे अपने पास फटकने भी नहीं देते थे. वे हँसने और किसी स्थिति पर व्यंग्य करने को तैयार बैठे रहते थे. किसी के कहे या किए में नए मायने ढूँढ़ना उनकी सहज वृत्ति थी.
इसीलिए उनकी महफिल में उदासी के लिए कोई जगह नहीं होती थी. उनके पास ढेर सारे प्रसंग और लतीफ़े होते थे और चुटकियाँ लेने में उन जैसा उस्ताद मैंने कोई दूसरा नहीं देखा. उनकी कॉमेडियन बेटी मल्लिका में ये गुण उन्हीं से आया होगा. उनके जैसी हाज़िरजवाबी भी दुर्लभ थी.
संगीत उनकी पहली पसंद था, ख़ास तौर पर सूफ़ी संगीत. अकसर बाबा बुले शाह और बाबा फ़रीद का ज़िक्र करते. उनकी कार में इसी तरह का संगीत बजता था. अकसर उनके घर पर शाम को महफिलें होती थीं और उनमें गाना-बजाना भी. वे ख़ुद भी गाते थे और उनकी पत्नी डॉ. चिन्ना (पद्मावती) भी.
विनोद दुआ ज़मीन से जुड़े हुए व्यक्ति थे. उनका परिवार विभाजन के वक़्त पाकिस्तान के डेरा इस्माइल ख़ान से भागकर आया था और उसने वे तमाम दुश्वारियाँ झेली होंगी जो विभाजन पीड़ितों को झेलनी पड़ी थीं. इसलिए उनमें वह विनम्रता थी. मुझे इसका अनुभव पहली भेंट में हुआ था, जब मैं उनसे मिलने गया था तो वे मुझे रिसीव करने के लिए दफ़्तर के गेट पर खड़े थे.
कितनी बार ऐसा भी हुआ आए और कहा कि आइए मुकेश जी आपको खीरा या मूली खिलाते हैं और सड़क पर किसी ठेले वाले के पास गाड़ी रोककर हम खीरा-मूली खाने लगते. खाना खाने के मामले में भी वे भव्य होटलों या रेस्तराँ के बजाय छोटे मगर साफ़-सुथरे ढाबों को पसंद करते थे.
बहरहाल, विनोद दुआ का इस तरह ऐसे समय में जाना पत्रकारिता की नहीं, लोकतंत्र की भी एक बहुत बड़ी क्षति है. उनकी उपस्थिति हम जैसे बहुत सारे पत्रकारों को तो प्रेरणा देती ही थी, उन लड़ाकों को भी लड़ने और सत्ता के दबावों को चुनौती देने की हिम्मत देती थी जो लोकतंत्र और साझी संस्कृति को बचाने के लिए प्रयासरत हैं.
आज की पीढ़ी पता नहीं विनोद दुआ को कितना जानती है और किस रूप में उन्हें पहचानती है. व्हाट्सऐप-ज्ञान और ट्रोलिंग के इस दौर में लाँछित-कलंकित करने की प्रवृत्ति किसी के योगदान को नष्ट-भ्रष्ट करने में क्षण भर नहीं लगाती. लेकिन जब कभी विनोद दुआ का संपूर्णता में मूल्यांकन होगा, तो उन्हें एक पत्रकार योद्धा के तौर पर जाना जाएगा. धुंध छँटने के बाद ही आने वाली नस्लें तब जान पाएंगी कि विनोद दुआ नाम का एक ऐंकर था(.बीबीसी से साभार )

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