मॉब लिंचिंग क्यों नहीं बना झारखंड में चुनावी मुद्दा?

जुरमू गांव के प्रकाश लकड़ा अब इस दुनिया में नहीं हैं. बीती 10 अप्रैल को एक उन्मादी भीड़ ने उनकी पीट-पीटकर हत्या कर दी. यह भीड़ उनके ही पड़ोसी गांव जैरागी से आयी थी.

भीड़ को शक़ था कि वे और उनके साथी गाय का मांस काट रहे हैं. जबकि, जुरमू के ग्रामीणों का कहना है कि प्रकाश और उनके तीन साथी मरे हुए बैल का मांस काट रहे थे. बैल के मालिक ने उनसे उसकी खाल (चमड़ा) उतारने के लिए कहा था.

बहरहाल, प्रकाश लकड़ा का नाम अब झारखंड के उन दर्ज़नों लोगों में शामिल हो गया है, जिनकी मौत गोरक्षा या दूसरे सांप्रदायिक कारणों के कारण भीड़ के पीटे जाने से हुई. इस दौरान झारखंड में बीजेपी का शासन रहा.

राज्य के मुख्यमंत्री रघुवर दास हैं. झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां उनकी प्रबल विरोधी हैं. ये पार्टियां मॉब लिंचिंग की कड़ी आलोचना करती रही हैं. इसके बावजूद किसी पार्टी ने मॉब लिंचिंग को अपना चुनावी मुद्दा नहीं बनाया है.

पूर्व आइपीएस अधिकारी और कई किताबों के लेखक रामचंद्र राम कहते हैं कि इसकी मुख्य वजह पीड़ित पक्ष का ताल्लुक वंचित समुदाय से होना है. मारे गए अधिकतर लोग या तो मुसलमान हैं, या फिर दलित-आदिवासी.

मुख्यधारा में इनका सबल प्रतिनिधित्व नहीं है. ऐसे लोग न तो ब्यूरोक्रेसी में महत्वपूर्ण पदों पर हैं, न न्यायपालिका, विधायिका और न ही पत्रकारिता में.

रामचंद्र राम ने बीबीसी से कहा, ”झारखंड के किसी भी ज़िले में किसी आदिवासी या मुसलमान को न तो डीसी (ज़िलाधीश) बनाया गया है और न एसपी. राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी दोनों एक ही जाति (ब्राह्मण) के हैं. ज्यूडिशियरी में इनका प्रतिनिधित्व नहीं है. तो, इन्हें न्याय कैसे मिलेगा.”

”सरकार को इनकी फिक्र नहीं है और विपक्षी पार्टियां अपने एजेंडे पर काम कर रही हैं. इस कारण मॉब लिंचिंग चुनावी मुद्दा नहीं है. क्योंकि, उन्होंने वंचित समुदाय के वोट को अपनी गारंटी मान रखा है.”

30 जनसंगठनों के समूह झारखंड जनाधिकार महासभा की एक रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा बीजेपी सरकार के कार्यकाल के दौरान झारखंड में मॉब लिंचिंग के शिकार 9 लोग मुसलमान थे और 2 लोग आदिवासी.

इन पर हिंदुत्व की विचारधारा से जुड़ी भीड़ ने हमला किया. इसके पीछे गाय की रक्षा और उसके संवर्धन के कारण गिनाए गए.

जनाधिकार महासभा के अफ़जल अनीस, भारत भूषण चौधरी, सरोज हेंब्रम, शादाब अंसारी, जियाउल्लाह और तारामणि साहू ने संयुक्त रूप से कहा कि अधिकतर मामलों में स्थानीय प्रशासन व पुलिस की कार्रवाईयां संदेहास्पद रही हैं.

यह हिंसा लोगों के जीने के अधिकार का हनन है. यह घटना बीजेपी शासन में बढ़ती असिहष्णुता एवं आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर दमन का उदाहरण है.

चर्चित सोशल एक्टिविस्ट सिराज दत्ता ने कहा कि गुमला में हुई इस लिंचिंग की घटना के बाद बीजेपी या विपक्षी पार्टियों का कोई नेता पीड़ित परिवारों से मिलने नहीं पहुंचा. जुरमू गांव लोहरदगा संसदीय सीट का हिस्सा है. यहां आगामी 29 अप्रैल को चुनाव होना है. इसके बावजूद नेताओं की उदासीनता चिंतित करती है.

सिराज दत्ता कहते हैं, ”प्रकाश लकड़ा की लिंचिंग वाले मामले में आरोपी लोग साहू परिवार के हैं. वे लोग पैसे से मजबूत हैं और संभव है राजनीतिक पार्टियां उनसे मदद लेती हों. इस कारण वहां बीजेपी से चुनाव लड़ रहे केंद्रीय मंत्री सुदर्शन भगत और विपक्षी महागठबंधन के कांग्रेस प्रत्याशी सुखदेव भगत ने आज तक इस घटना के ख़िलाफ़ कोई उल्लेखनीय प्रतिक्रिया नहीं दी है.”

”बीजेपी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में लगी है क्योंकि लिंचिंग के शिकार लोग ईसाई हैं. वहीं कांग्रेस दबाव की वजह से चुप है. इससे आरोपियों का मनोबल बढ़ना स्वाभाविक है.”

गुमला के जुरमू गांव में हिंसक भीड़ के हाथों मारे गए प्रकाश लकड़ा के तीन और साथियों को भी भीड़ ने बुरी तरह पीटा था. ये तीनों लोग रांची के एक अस्पताल में अपना इलाज करा रहे हैं.

इनमें से एक जेनेरियस मिंज ने दावा किया कि भीड़ में शामिल लोगों को पता था कि हम ईसाई हैं. इसके बावजूद उन लोगों ने हमसे ‘जय श्री राम’ और ‘जय बजरंगबली’ के नारे लगवाए और आवाज़ कम होने पर पिटाई की. उनकी पिटाई से हम बुरी तरह डर गए और अपने ज़िंदा बचने की उम्मीद छोड़ दी थी.

जेनेरियस मिंज बताते हैं, ”उस दिन बुधवार की हटिया (साप्ताहिक बाज़ार) लगी थी. हम लोग शाम के समय नदी किनारे मरे हुए बैल का मांस काट रहे थे. तभी जैरागी के कुछ लोगों ने हमें ऐसा करते हुए देखा. उन लोगों ने गाय का मांस काटे जाने की अफवाह फैला दी.”

”देखते ही देखते कई लोग वहां आ गए और उन लोगों ने हमें पीटते हुए परेड करायी. वे नारे लगा रहे थे. उन्होंने तीन घंटे तक हमें पीटा और पहले अपने गांव ले गए, फिर डुमरी थाना के सामने छोड़ दिया.”

”तब तक प्रकाश लकड़ा की सांसें चल रही थीं. पुलिस अगर हमें तत्काल अस्पताल ले गयी होती, तो प्रकाश की जान बचायी जा सकती थी. लेकिन, पुलिस ने सुबह होने का इंतज़ार किया. जब हम लोग अस्पताल पहुंचे तब तक प्रकाश लकड़ा की जान जा चुकी थी. यह मेरी ज़िंदगी की सबसे खौफ़नाक घटना है. इसके बारे में सोचकर ही हमें डर लगता है.”

गुमला के एसपी अंजनी कुमार झा ने मीडिया के सामने माना कि जैरागी गांव के लोगों ने जुरमू के लोगों पर हमला किया था. हालांकि, उन्होंने पुलिस लापरवाही पर कुछ नहीं बोला और कहा कि हमने नामजद प्राथमिकी दर्ज़ कर कुछ लोगों को गिरफ़्तार किया है.

इस बीच, झारखंड जनाधिकार महासभा की फैक्ट फाइंडिंग टीम ने पुलिस कार्रवाई पर सवाल उठाया है. महासभा ने कहा है कि डुमरी के थाना प्रभारी ने डॉक्टर पर प्रकाश लकड़ा को ज़िंदा अस्पताल लाए जाने की रिपोर्ट बनाने का दबाव डाला, लेकिन डॉक्टर ने उनकी बात नहीं मानी.

महासभा का कहना है कि घायलों को तत्काल अस्पताल ले जाने की जगह उन्हें खुले आसमान के नीचे चार घंटे तक छोड़ दिया गया. बाद में चौकीदार के बयान पर पीड़ितों के ख़िलाफ़ ही गौवंश की हत्या की रिपोर्ट दर्ज कर ली. जबकि वह चौकीदार उस रात घटनास्थल पर था ही नहीं, वह सुबह वहां पहुंचा. ऐसे में पुलिस कार्रवाई पर भरोसा नहीं किया जा सकता है.

रवि प्रकाश,
बीबीसी से साभार

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