बहुमत प्रामाणिकता का प्रमाण नहीं होता

रोज शाम की तरह शुक्रवार (लोस चुनाव 2019 परिणाम के एक दिन पश्चात) को भी मैं बेगूसराय के गांधी स्टेडियम में टहल रहा था। अचानक मेरी नज़र उस जगह पर पड़ी जहां प्रतिदिन अलग-अलग विचारों एवं विभिन्न राजनीतिक दलों के समर्थक आपस में बैठकर विभिन्न मुद्दों पर बहस किया करते थे। आज उनलोगों की संख्या अन्य दिनों की अपेक्षा थोड़ी ज्यादा थी। सभी साथ बैठे हुए तो थे परन्तु आज कोई बहस नहीं चल रही थी। यह देखकर मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ तो मैंने ही उनलोगों से चुनाव परिणाम पर अपनी-अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का आग्रह किया। किसी व्यक्ति की कोई प्रतिक्रिया न आते देख मुझे और आश्चर्य हुआ। इतने में उनमें से एक वृद्ध मेरी ओर मुखातिब हुए और भरी आंखों एवं रूंधे गले से मज़रूह सुल्तानपुरी का एक शे’र कहा-

“अब सोचते हैं लाएंगे तुझ सा कहां से हम
उठने को उठ तो आए तिरे आस्तां से हम”
शे’र सुनाने के पश्चात उन्होंने कहा- “आपने सुना होगा, लोग अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारते हैं लेकिन हमलोगों ने कुल्हाड़ी पर जाकर अपना पैर मार लिया है।”
इतना कहकर वो वहां से चले गए। लेकिन वहां बैठे अन्य लोगों की आंखें भी उन्हीं की ज़बान बोल रही थीं।
अपना देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लेकिन ऐसा उसकी चुनी हुई संस्थाओं की वजह से नहीं है। क्या अपनी लोक सभा और विधानसभाएं ठीक वैसा ही काम कर रही हैं, जैसा उन्हें करना चाहिए। शायद नहीं। इन सब जगहों में अपराधी रिकॉर्ड वाले अच्छी-खासी तादाद में होते हैं। शायद इसलिए हमें हैरत नहीं होती, जब ये वहां पर अजीबोगरीब हरकत करते हैं। ये लोग चुनाव जीतकर आ जाते हैं। तब उनकी बहस ज़ुबान से नहीं, मुट्ठियों से ही होती है।
अल्लामा इकबाल ने कभी अपने ढ़ंग से कहा था-
“जम्हूरियत इक तर्ज-ए-हुकूमत है जिसमें
बंदों को गिना करते हैं, तोला नहीं करते”
जब राजनेता सत्ता के खेल में शामिल होते हैं तो वे बिना किसी सिद्धांतों के व्यवहार करते हैं। किसी भी कीमत पर सत्ता में बने रहने का निश्चय अनैतिक है। जब राजनेता या कोई अन्य सच्चाई का साथ छोड़ देते हैं तब उनका नैतिक पतन हो जाता है।
आज की राजनीति इसी क्षरण का शिकार है लेकिन राजनेता किसी दूसरी प्रजाति के सदस्य नहीं हैं। वे उसी समाज का हिस्सा हैं जिसका प्रतिनिधित्व करते हैं। हम खतरनाक रूप से सामाजिक और नैतिक पतन के युग के गवाह हैं। राजनीति उसका महज एक लक्षण है। यहां तक कि वोटर भी गलतियां करते हैं। लोकतंत्र की खुबसूरती यह है कि यहां गलतियों को ठीक किया जा सकता है। हर किसी को दूसरों के बजाय खुद को ही दोषी ठहराना चाहिए। जैसा कि रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था- “आप किसे दोष देते हैं? यह पाप हमारा और तुम्हारा ही तो है।”
:- आलोक कौशिक

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